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जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन चेतना को जीव का स्वरूप धर्म मानता है। जीव में स्वभावतः अनन्त दर्शन , अनन्त ज्ञान , अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द होता है। आशय यह है कि जैन धर्म में जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त होता है। जैन दर्शन की मान्यता है  कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के साथ - साथ अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जीवात्मा किसी पदार्थ को जानने के साथ ही स्वयं को भी जानती है। यद्यपि जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है , फिर भी उसका शुद्ध चैतन्य कर्म पुद्गलों के कारण ओझल रहता है। जीव कर्म पुद्गलों के आवरण के कारण अपने पूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाने पर ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो पाता है। जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। परोक्ष ज्ञान जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है , वह केवल अ