जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy
जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy
जैन दर्शन में जीव एक चेतन द्रव्य है। इसे ही जैन दर्शन में
आत्मा माना गया है। चैतन्य जीव का स्वरूपधर्म अर्थात गुण है – “चैतन्य लक्षणों
जीवः”। प्रत्येक जीव स्वरूप से अनन्त चतुष्टय सम्पन्न है अर्थात उसमें अनन्त
ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है। कर्ममल से संयुक्त होने के कारण
जीवों पर कर्मफल का आवरण पड़ जाता है। जिस कारण जीव में स्वरूप धर्मों का प्रकाशन
नहीं हो पाता। इन गुणों के तारतम्य के कारण जीवों में अनन्त भेद हो जाते है।
जैन दर्शन जीवों में गुणात्मक भेद नहीं मानता, केवल मात्रात्मक
भेद मानता है। जैन दर्शन में जीव में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष बताया गया है।
अर्थात सबसे निकृष्ट जीव एक इंद्रिय होते है जो भौतिक जड़ तत्व में रहते है और
निष्प्राण प्रतीत होते है किन्तु इनमें भी प्राण तथा चैतन्य सुप्तावस्था में
विद्यमान है। वनस्पति जगत के जीवों में चैतन्य तन्द्रिल अवस्था में तथा मर्त्यलोक
के क्षुद्र कीटों, चीटियों, मक्खियों, पक्षियों, पशुओं और मानवों में चैतन्य का
उत्तरोत्तर उत्कर्ष पाया जाता है।
जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता, करता और भोक्ता माना गया है।
ज्ञान जीव का स्वरूप गुण है। यह अस्तिकाय द्रव्य है। यह न विभु है और न ही अणु है।
यह शरीरपरिणामी है अर्थात जैसे जीव का शरीर है वैसा ही इसका विस्तार है। इसका
विस्तार आकाश में पुदगल के समान नहीं होता बल्कि दीपक के प्रकाश के समान होता है।
जीव के प्रकार
जैन-दर्शन में जीव के प्रकारों का अत्यन्त
सूक्ष्म विवेचन किया गया है । यहाँ माना गया है कि स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त
ज्ञान एवं अनन्त सामर्थ्य से युक्त होते हुए भी पूर्वजन्मों के कर्मफल के कारण
प्रत्येक जीव को चेतना का विकास एक समान नहीं होता। इसी आधर पर जैन-दर्शन में जीव
के अनेक प्रकार बताए गये हैं । सबसे पहले तो बद्ध और मुक्त ये दो जीव के प्रकार
हैं –
1. मुक्त जीव
वस्तुत : ये अन्य
जीवों से एकदम अलग होते हैं क्योंकि अन्य जीवों के समान ये शरीर नहीं धारण करते।
इनमें प्रकृति का लेशमात्र भी तत्त्व नहीं रहता। इनमें परिवत्रता और असीम चेतना
होती है। इन्हें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त
वीर्य एवं अनन्त सुख प्राप्त है।
2. बद्ध जीव
जीवन चक्र में घूमने वाले शरीर बद्ध जीव कहे गये है। अज्ञान के कारण स्वयं को प्रकृति के समान समझने वाले ये जीव दो प्रकार के होते है- स्थावर जीव और जंगम जीव।
- स्थावर जीव- स्थावर याने एक
स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव। ये इन्द्रियगोचर नहीं होते अर्थात् हम उन्हें अपनी
इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते। ये स्वयं ऐकेन्द्रिय अर्थात् एक ही इन्द्रिय
रखने वाले होते हैं। इनमें आत्मिक शक्ति का विकास बहुत ही कम होता है। इनके भी
स्थान के अनुसार पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) पृथ्वीकाय, (2)
जलकाय (3) अग्निकाय, (4) वायुकाय, (5)
वनस्पति काय। अर्थात् पृथ्वी, जल आदि में रहने वाले जीव।
- जंगमजीव - ये उद्देश्यपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने में समर्थ होते हैं। इन्द्रियों की संख्या के आधार पर ये पाँच प्रकार के बताये गये हैं –
- एकेन्द्रि जीव - इसमें केवल एक इन्द्रिय युक्त जीव आते हैं।
- द्वीन्द्रिय जीव - स्पर्श और रसना इन दो इन्द्रियों
से युक्त जीवों में कृमि, शंख जैसे जीव आते हैं।
- त्रिन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना
और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त जीवों में चींटी, पतंगे
जैसे जीव आते हैं।
- चतुरिन्द्रिय जीव - स्पर्श रसना, घ्राण
और नेत्र इन चार इन्द्रियों युक्त जीवों में भ्रमर, मच्छर
जैसे जीव आते हैं।
- पंचेन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना,
घ्राण, नेत्र और श्रवण इन पाँच इन्द्रियों से
युक्त जीवों में मछली जैसे जलचर, हाथी जैसे थलचर और पक्षी
जैसे नभचर प्राणी आते हैं। मनुष्य भी इसी श्रेणी में आते हैं।
जैन दर्शन में अजीव
जैन दर्शन में चार प्रकार के अजीव तत्वों का वर्णन किया गया है
– पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश।
- पुद्गल (Material Substance)
- पुद्गल का शाब्दिक अर्थ है- 'पूरयन्ति
गलन्ति च’ अर्थात् जिसका संयोग और विभाजन होता है, वह पुद्गल
है। पुद्गल की इसी विशेषता के कारण पुद्गल कण जुड़कर आकार बनाने में सफल होते हैं
और बड़े आकार को तोड़कर छोटे-छोटे कणों में बाँटा जा सकता हैं। अणु और संघात्-
पुद्गल के लघुतम् कण को अर्थात् जिसे और आगे न तोड़ा जा सके अणु या परमाणु कहा गया
है। दो या दो से अधिक अणुओं से जुड़कर बनने वाले पदार्थ को संघात् कहते हैं।
परमाणु आकारहीन एवं अनादि होते हैं। यह अतिसूक्ष्म एवं निरपेक्ष पर सत्ता है।
इनमें परस्पर आकर्षण शक्ति होती है जिससे भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति होती है।
भौतिक जगत् में परिवर्तन अणुओं के विश्लेषण एवं संश्लेषण के कारण होते हैं। इन
अणुओं को हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते किन्तु स्कन्धों को देख सकते हैं। पुद्गल
के गुण-जैन दर्शन में पुद्गल के चार गुण माने गये हैं - स्पर्श, स्वाद, गंध और रंग । ये गुण अणुओं और संघातों दोनों
में पाये जाते हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यूनानी परमाणुवादी दार्शनिक
ल्यूसीपस और डेमोक्रिटस ने परमाणुओं को गुणहीन माना है। जैन एवं यूनानी
परमाणुवादियों में एक अन्तर यह भी है कि यूनानी परमाणुवादी जहाँ परमाणुओं को सतत्
गतिशील बताते हैं, वहाँ जैनी परमाणुओं में गति एवं स्थिरता
दोनों मानते हैं।
- धर्म और अधर्म - यहाँ धर्म और
अधर्म का मतलब पुण्य व पाप जनक लौकिक धर्म और अधर्म से नहीं है। यहाँ इन्हें क्रमश:
गति और स्थिरता का विशेष कारण बताया गया है। इनका प्रत्यक्ष द्वारा तो अस्तित्व
सिद्ध नहीं होता, लेकिन अनुमान द्वारा अवश्य होता है। जैसे - मछली
जल में तैरती है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मछली जल में गति करती है,
हालांकि उसकी यह गति उसकी अपनी शक्ति पर निर्भर करती है, किन्तु जल न हो तो उसकी यह शक्ति कोई काम की नहीं होती। जैसे जल मछली के
तैरने में सहकारी होता है, उसी तरह संसार के समस्त जीवों और
पुद्गल को गति देने में धर्म अस्तिकाय सहायक होता है। जगत् में गति के साथ स्थिरता
भी दिखाई देती है। यह स्थिरता जिस द्रव्य के कारण सम्भव है उसे ही जैन दर्शन में
अधर्म कहा गया है। जिस प्रकार थके हुए पथिक के ठहरने के लिए वृक्ष की छाया सहायक
होती है, उसी प्रकार गतिशील पिण्डों के रुकने में अधर्म
सहायक होता है, किन्तु यह सक्रिय रूप से किसी भी पिण्ड की
गति में बाधा नहीं डालता।
- आकाश - आकाश वह अजीव
अस्तिकाय है जो अनन्त दिक्-बिन्दुओं से निर्मित है, किन्तु ये
दिक्-बिन्दु अगोचर रहते हैं। इसीलिए हम आकाश का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। अनुमान के
आधार पर ही इसे स्वीकार किया जा सकता है। अनुमान यह है कि समस्त जीव एवं अजीव
तत्त्वों को अपने अस्तित्व के लिए स्थान का होना जरूरी है। यही स्थान वस्तुत: आकाश
है। जैन दर्शन में आकाश के दो प्रकार माने गये हैं –
- लोकाकाश - जिसमें समस्त जीव एवं अजीव द्रव्य स्थान लेते हैं यह हमारे सीमित विश्व का परिचायक है।
- अलोकाकाश - जो लोकाकाश से परे
द्रव्य-रहित शुद्ध बाह्य आकाश है।