विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन् कुतः॥” अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो ऋण लेकर भी घी पियो। एक बार शरीर भस्म हो जाए तो फिर कौन लौटकर आता है।

आज प्रत्येक युवा पीढ़ी इसी दर्शन को फॉलो कर रही है। उन्हें सुखवाद को लेकर एक अजीब सा जनून पैदा हो गया है। हर कोई यह चाहता है कि मुझे बस सुख मिल जाए चाहे उसके लिए वह कितना भी आध्यात्मिक पतन क्यों न कर ले। वह अपने सुख की कामना केवल आर्थिक संसासधनों में खोजने लगा है और अपनी आर्थिक उन्नति के लिए समाज के नैतिक मूल्यों को बेशर्मी के साथ सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर परोस रहा है। नित रोज नैतिक मूल्यों का जो अवमूल्यन इन सोशल प्लेटफॉर्म्स पर हो रहा है उसके पीछे केवल और केवल सुख की चाहा है। इस सुख की चाहा चार्वाक दर्शन भी करता है इसलिए तो चार्वाक दर्शन को सुखवादी दर्शन कहते है। परन्तु नैतिक अवमूल्यन की जो पराकाष्ठा आज देखने को मिल रही है इतनी तो शायद चार्वाक सम्प्रदायों में भी नहीं थी। वे भी अपना एक प्रकार का दर्शन रखते थे। उनकी भी कुछ परम्पराएं-मान्यतायें थी। जिनको आज विश्व के प्रत्येक व्यक्ति जो जानना चाहिए।

चार्वाक दर्शन की प्रमुख मान्यताएं

1-    जड़वादी परम्परा का अनुसरण – भारतीय जड़वाद के लिए प्रायः चार्वाक शब्द का प्रयोग किया जाता है। चार्वाक शब्द के मूल अर्थ के विषय में विद्वानों में प्रायः मतभेद देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों चार्वाक को इस सम्प्रदाय का संस्थापक मानते है जिसके कारण ही यह सम्प्रदाय चार्वाक कहलाया। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चार्वाक शब्द ‘चर्व’ धातु से बना है जो कि चबाना या भोजन के अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस मत का मानना था कि ‘पिव, खाद च वर लोचने’ अर्थात खाने-पीने पर अधिक ध्यान दो। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चारु+वाक् अर्थात् मीठी-वाणी बोलने के करण इस सम्प्रदाय को चार्वाक कहा गया। अन्य कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि गुरु बृहस्पति ने इस निराभौतिकवादी दर्शन का प्रचार दैत्यों के विनाश के लिए किया था। इस दर्शन को लोकायत भी कहा जाता है क्योंकि इस मत का प्रचार संसार के अधिकांश लोग स्वतः ही करते हैं और मानते भी हैं।  

2-    केवल प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकार्यता – लोगों को अक्सर एक कहावत सुनते देखा होगा “प्रत्यक्षमेकं प्रमाणम्” अर्थात् प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। यह उक्ति चार्वाक दर्शन सम्प्रदाय में बृहस्पति-सूत्र से ली गई है। इस प्रकार इस दर्शन सम्प्रदाय के लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण में इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही ज्ञान अर्थात् प्रमा मानता है।

3-    अनुमान प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय के लोग अनुमान ज्ञान को निश्चयात्मक नहीं मानते हैं, क्योंकि अनुमान व्याप्ति पर निर्भर है और व्याप्ति प्रत्यक्ष ज्ञान से सम्भव नहीं है। व्याप्ति क्यों सम्भव नहीं ? इसका उत्तर चार्वाक सम्प्रदाय में इस प्रकार दिया गया है – चार्वाकों का मानना है कि अनुमान तभी युक्तिपूर्ण तथा निश्चयात्मक हो सकता है जब व्याप्ति सर्वथा निःसंदेह हो, क्योंकि व्याप्ति उसे कहते है जिसमें लिंग (साधन) और लिंगी (साध्य) का अनिवार्य सम्बन्ध सथापित हो। हम ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ को निश्चयात्मक मानते हैं परन्तु हमने सभी मनुष्यों को मरते हुए तो नहीं देखा और न ही सभी मनुष्यों के मारने का प्रत्यक्ष सम्भव है, तो हम कैसे इस वाक्य को निश्चयात्मक मान सकते हैं। अतः प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति सम्भव नहीं है।

4-    शब्द प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय शब्द प्रमाण का भी खण्डन करता है और कहता है कि अप्रत्यक्ष वस्तुओं के सम्बन्ध में शब्द विश्वसनीय नहीं है। शब्द प्रमाण में जो आप्त व्यक्ति है उसकी भावना संदिग्ध हो सकती है क्या पता वह अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए आप्त वाक्यों की रचना कर रहा हो। इसलिए चार्वाक सम्प्रदाय के लोगों ने वैदिक वाक्यों को धूर्त पुरोहितों की रचना माना है और कहा है कि इन्होंने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए यह मायाजाल फैलाया है।

5-    चार महाभूतों को मान्यता – चार्वाक पंचभूतों में से केवल चार भूत – पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को ही सत्ता रूप में स्वीकार किया है। आकाश को चार्वाकों ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं, यह केवल अनुमानगम्य है। चार्वाक इन्हीं चार भूतों से सृष्टि की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप में मानते है।

6-    चेतना विशिष्ट शरीर के रूप में आत्मा की मान्यता – चार्वाक दर्शन में कहा गया है – ‘चैतन्य विशिष्ट देह एवं आत्मा’ अर्थात् चेतन से युक्त यह विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। यह चेतन शरीर चार जड़ भूतों से ही उत्पन्न होता है। इसके लिए चार्वाक उदाहरण देता है कि ‘किण्वन प्रक्रिया से अन्न आदि पदार्थों में मादकता का गुण आ जाता है ठीक उसी प्रकार जड़ तत्त्वों के विशेष प्रकार के मिश्रण से उनमें चेतनत्व आ जाता है।

7-    चरम पुरुषार्थ में काम की स्वीकार्यता – चार्वाक भारतीय दर्शनों में वर्णित चार पुरुषार्थों – धर्म अर्थ, काम और मोक्ष में से अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करता है। चार्वाक दर्शन में कहा गया है – “मरणं एव अपवर्गः” अर्थात् मृत्यु ही मोक्ष है। अतः जीवन में सुख प्राप्त करना ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। स्त्री सुख को चार्वाक काम के रूप में मनुष्य का चरम पुरुषार्थ स्वीकार करता है।

8-    ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन – चार्वाक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और ईश्वर का तीन प्रकार से खण्डन करता है –

·        ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं।  
·        ईश्वर न्यायाधीश भी नहीं। 
·        ईश्वर के लिए भी सृष्टि नहीं।

             उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि चार्वाक दर्शन एक नास्तिक, जड़वादी और सुखवादी दर्शन है। इस दर्शन में मनुष्यों का चरम लक्ष्य केवल भौतिक सुख को प्राप्त करना है। इस दर्शन में मनुष्यों के लिए उपदेश है कि “भविष्य के सुख के लिए वर्तमान का सुख त्यागना मूर्खता है साथ ही ईश्वर आदि देवों के भय से भी भौतिक सुख का त्याग करना मूर्खता है।”

आज वर्तमान में भी आपको ये वाक्य अक्सर लोगों से सुनने को मिलते होंगे परन्तु जो लोग इन वाक्यों को कहते है अपने देखा होगा वे सभी स्वार्थी, कपटी व लालची किस्म के लोग है। सोचो अगर इस तरह के लोगों की संख्या समाज में अधिक हो जाए तो क्या होगा ? इसलिए आज के इस दौर में भी चार्वाकी लोग बहुत है जिनको एक आदर्श समाज का अग्रणी दूत नहीं माना जा सकता। यह चार्वाकी समाज स्वतः एक किसान के खेत में उगने वाला वह खतपतवार है जिसकी किसान समय-समय पर निराई-गुड़ाई करता रहता है। अतः सभ्य लोगों का दायित्व है कि इन लोगों के दर्शन को समझे और समाज को उन्नति और शान्ति की और अग्रसर करने के लिए चार्वाकी को भारतीय दर्शन परम्परा में पूर्व पक्ष मानकर उनका ज्ञान के द्वारा शुद्धिकरण करें।


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