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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। परोक्ष ज्ञान जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है , वह केवल अपेक्षाकृत अपरोक्ष है। इन्द्रियों की अपेक्षा के बगैर स्वत : प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान में आत्मा का पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध होता है। परोक्ष ज्ञान के प्रकार सिद्ध सेन दिवाकर के अनुसार परोक्ष ज्ञान के प्रकार निम्नलिखित हैं - ●     स्मृतिज्ञान जिसे पहले कभी सुना , देखा या अनुभव किया गया हो , ऐसे विषय का यथार्थ स्मरण स्मृतिज्ञान कहलाता है। ●     प्रत्यभिज्ञा जब मनुष्य किसी वस्तु को देखता है , तो उसे सादृश्यता का बोध होता है और वह उस वस्तु को पहचान लेता है , तब ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञा ज्ञान कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ होता है - पहले से जाना पहचाना। ●     तर्कज्ञान तर्क के आधार पर अपनी

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन चेतना को जीव का स्वरूप धर्म मानता है। जीव में स्वभावतः अनन्त दर्शन , अनन्त ज्ञान , अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द होता है। आशय यह है कि जैन धर्म में जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त होता है। जैन दर्शन की मान्यता है  कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के साथ - साथ अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जीवात्मा किसी पदार्थ को जानने के साथ ही स्वयं को भी जानती है। यद्यपि जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है , फिर भी उसका शुद्ध चैतन्य कर्म पुद्गलों के कारण ओझल रहता है। जीव कर्म पुद्गलों के आवरण के कारण अपने पूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाने पर ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो पाता है। जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। परोक्ष ज्ञान जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है , वह केवल अ

जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त  जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त      जैनदर्शन में सप्तभंगीनय सिद्धान्त को नयवाद भी कहा जाता है। स्यादवाद , सप्तभंगीनय का आधार है। स्यादवाद के अन्तर्गत जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है , वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण , सापेक्ष तथा एकांगी होता है , फलतः प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता , क्योंकि वह अपने आंशिक सत्य होने का प्रकाशन नहीं करता। अत : यदि उस ज्ञान को प्रामाणिकता की कोटि में लाना है , तो उस ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। यहाँ ' स्याद ' से आशय है ' हो सकता है।      जैन दार्शनिकों के अनुसार सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करने पर किसी वस्तु के सन्दर्भ में सात नय या परामर्श प्राप्त होते हैं। यहाँ नय से तात्पर्य किसी सांसारिक ज्ञान को स्याद शब्द का प्रयोग करके उसकी आंशिक