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जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

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जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy     जैन दर्शन का नयवाद सप्तभंगी नय सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्याद्वाद का पूरक सिद्धान्त हैं। क्योंकि जैन दर्शन में वस्तु को अनन्त धर्मात्मकम् कहा है अतः प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में कहा गया कथन उसके किसी विशेष धर्म को ही इंगित करता है । इस तरह वह आंशिक सत्य होता है। इसे ही नय कहते हैं। इस तरह ' नय ' किसी वस्तु के संबंध में सापेक्ष अथवा आंशिक कथन है। चूँकि धर्म अनन्त है , अतः नय भी अनन्त होने चाहिए। परंतु अनन्त नयों की अलग-अलग अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। केवल सात प्रकार से इन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति सम्भव है। इन सात प्रकार के नय वाक्यों को ही जैन दार्शनिक ' सप्तभंगी नय ' नामक सिद्धान्त कहते हैं जो इस प्रकार है - स्यात् अस्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य हैं। स्यात् नास्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं हैं। स्यात् आस्ति च नास्ति च - अर्थात किसी अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं भी है। स्यात् अव्यक्तव्य - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य ऐसा है जिसके बारे में क

जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त  जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त      जैनदर्शन में सप्तभंगीनय सिद्धान्त को नयवाद भी कहा जाता है। स्यादवाद , सप्तभंगीनय का आधार है। स्यादवाद के अन्तर्गत जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है , वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण , सापेक्ष तथा एकांगी होता है , फलतः प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता , क्योंकि वह अपने आंशिक सत्य होने का प्रकाशन नहीं करता। अत : यदि उस ज्ञान को प्रामाणिकता की कोटि में लाना है , तो उस ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। यहाँ ' स्याद ' से आशय है ' हो सकता है।      जैन दार्शनिकों के अनुसार सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करने पर किसी वस्तु के सन्दर्भ में सात नय या परामर्श प्राप्त होते हैं। यहाँ नय से तात्पर्य किसी सांसारिक ज्ञान को स्याद शब्द का प्रयोग करके उसकी आंशिक