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Saturday, May 14, 2022

चार्वाक ( Charvaka ) का सुखवाद

चार्वाक ( Charvaka ) का सुखवाद 

चार्वाक ( Charvaka ) का सुखवाद 

    चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी दर्शन है जिसमें चार भूतों - क्षिति (पृथ्वी), अप (जल), तेज और समीर (वायु) को माना गया है । शरीर के बिना आत्मा का अस्तितत्व नहीं माना गया है अर्थात् देहात्मवाद को माना गया है तथा 'सुख' को चरम लक्ष्य माना गया है ।

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बोधिसत्व ( Bodhisattva )

बोधिसत्व ( Bodhisattva ) 

बोधिसत्व ( Bodhisattva ) 

    बौद्ध धर्म में दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब "गौतम बुद्ध" कहलाते हैं, बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है।

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ब्रह्म विहार ( Brahmavihara )

ब्रह्म विहार ( Brahmavihara ) 

ब्रह्म विहार ( Brahmavihara ) 

     महात्मा बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को मन की चार अवस्थाओं की शिक्षा दी। जिन्हें ‘ब्रह्म-विहार’, ‘चार दिव्य’ ‘चार राज्य’ ‘फोर परफेक्ट’ गुण कहा जाता है। ये चार गुण है - 

  1. मैत्री
  2. करुणा
  3. मुदिता
  4. उपेक्षा  

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बौद्ध दर्शन में उपाय कौशल ( Remedial Skills ) की अवधारणा

बौद्ध दर्शन में उपाय कौशल ( Remedial Skills ) की अवधारणा 

बौद्ध दर्शन में उपाय कौशल ( Remedial Skills ) की अवधारणा 

    उपाय कौशल बौद्ध धर्म से सम्बन्धित है। उपाय कौशल बौद्ध भिक्षु द्वारा प्रचार का एक माध्यम था जिसके अन्तर्गत बौद्ध भिक्षु घूम-घूम कर जनता के बीच में बुद्ध का सन्देश और महायान धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करते थे।

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पंचव्रत ( Panchavrat ) की अवधारणा

पंचव्रत ( Panchavrat ) की अवधारणा 

पंचव्रत ( Panchavrat ) की अवधारणा 

    जैन दर्शन में मोक्ष प्राप्ति के तीन सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और समाज चरित्र अपरिहार्य साधन माने गये हैं। सम्यक् चरित्र, सम्यक ज्ञान को कर्म में परिणत करना है । यह 'पंचव्रतों' द्वारा ही सम्भव है। ये पंचव्रत - 

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. अस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य  
  5. अपरिग्रह 

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Friday, May 13, 2022

त्रिरत्न ( Triratna )

 

त्रिरत्न ( Triratna ) 

त्रिरत्न ( Triratna ) 

     जैन नीतिशास्त्र में बंधन से छुटकारा पाने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीन आचार बतलाये गये हैं, जिन्हें 'त्रिरत्न कहा जाता है, जो क्रमश: - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचरण है।

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संवर-निर्जरा ( Samvara )

संवर-निर्जरा ( Samvara ) 

संवर-निर्जरा ( Samvara ) 

संवर सम् वृणोति इति संवरः । आशय यह कि जो ढंक देता है वह संवर है। जैन दर्शन के अनुसार- आस्त्रव निरोधः संवर: (सर्व० सं०, पृ० 164)। अर्थात् आस्त्रव का निरोध हो जाना (कर्म पुद्गलों का आत्मा में प्रविष्ट न होना) संवर है।

निर्जरा - जैन दर्शन के अनुसार - अजितस्य कर्मणस्तयः प्रभृतिभिनिर्जरणं निर्जराख्यं तत्त्वम् (सर्व० सं०, पृ० 166)। अर्थात् जो कर्म अर्जित किया गया हो उसे अपनी तपस्या इत्यादि से नष्ट कर देना निर्जरा तत्व है। कषाय समूह से उत्पन्न पुण्य तथा सुख और दुःख को भी यह तत्व शरीर से ही नष्ट कर देता है।

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अष्टांग योग ( Ashtanga )

अष्टांग योग ( Ashtanga ) 

अष्टांग योग ( Ashtanga ) 

योगांग - योग दर्शन के अनुसार - यम नियमाऽऽसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणाध्यान समाधयोऽष्टावंगानि (यो० सू०, 2.26)। अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि ये आठ योग के अंग कहे जाते। यहाँ ध्यातव्य यह है कि योग सूत्र के प्रथम पाद में पातञ्जलि ने यद्यपि अभ्यास, वैराग्य तथा श्रद्धा वीर्य को भी योगांग माना है किन्तु इनका अन्तर्भाव इन्हीं आठों अंगों में हो जाने से योगांग आठ ही हैं।

1.    यम - योग दर्शन में योग के अष्ट अंगों में से प्रथम अंग यम है। उपरमे धातु से यम शब्द की व्युत्पत्ति होती है जिसका सामान्य अर्थ उपरम अर्थात् अभाव होता है। योग दर्शन के अनुसार - अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः (यो० सू०, 2.30 )। अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि प्रकृत में हिंसा, मिथ्या, स्तेय, मैथुन तथा परिग्रह का क्रमशः अभाव (विरोधी) रूप अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह रूप उपरम यम कहलाता है। शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति में यम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह संपूर्ण विश्व ब्रह्म है, ऐसा समझकर इन्द्रियों को नियंत्रित करना यम है –

सर्वं ब्रह्मोति विज्ञानादिन्द्रियग्राम संयमः ।

यमोऽयमिति सम्प्रोक्तोऽभ्यसनीयो मुहुर्मुहुः ॥ (अपरो०, 104)

कठोपनिषद् में यम का तात्पर्य आचार्य है जो मृत्यु का देवता है।

2.   नियम - योग दर्शन के अनुसार- शौच सन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणधानानि ईश्वर: (यो० सू०, 2.32)। अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय ओर ईश्वर प्रणिधान को नियम कहते हैं। मीमांसा दर्शन के अनुसार- नियमः पाक्षिके सति (सं० वा०, 1.2.36)। अर्थात् एक पक्ष में किसी अन्य प्रमाण से विधि की प्राप्ति होने पर भी दूसरे पक्ष में भी प्राप्त होने वाले उस विचार के निवारणार्थ पुनः कथन करने को नियम कहते हैं।

3.   आसन - आस्यतेऽनेन इति आसनम् । हस्त पदादि अंगों को किसी स्थिति विशेष में स्थिरता पूर्वक रखना आसन कहलाता है। योग सूत्रकार पतञ्जलि के अनुसार - स्थिर सुखासनम् (यो० सू० 2.46)। तात्पर्य यह कि शरीर को सुख देने वाली तथा चित्त को स्थिर रखने वाली स्थिति को आसन कहते हैं। व्यास भाष्य में ग्यारह आसनों की चर्चा की गई है - पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रयासन, पर्य्यकासन, कौचनिषदनासन, हस्तिनिषदनासन, उष्ट्रनिषदनासन, समसंस्थानासन इत्यादि। आचार्य शंकर ने अपरोक्षानुभूति में आसन के सन्दर्भ में कही है –

सुखनैव अवेधस्मिन्नजस्त्र ब्रह्मचिन्तनम् ।

आसनं तद्विजानीयान्नेतरत्सुखनामनम् ॥ (अपरो०, 12)

अर्थात् जिस स्थिति में सुखपूर्वक निरन्तर ब्रह्मचिन्तन होता रहे, उसे ही आसन समझना चाहिए।

4.   प्राणायाम् - योग दर्शन के अनुसार- तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोगंति विच्छेदः प्राणायामः (यो० सू०, 46)। आशय यह कि आसान के सिद्ध हो जाने पर बाह्य वायु का भीतर प्रवेश श्वास, उदर में स्थित वायु को बाहर निकालना प्रश्वास, इन दोनों की स्वाभाविक गति का विच्छेदयानि की श्वास-प्रश्वास दोनों का अभाव प्राणायाम कहा जाता है। योग दर्शन में रेचक, पूरक और कुम्भक के भेद से तीन प्रकार के प्राणायाम हैं। शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति (118) में कहा है–

चित्तादि सर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् ।

निरोधः सर्ववृत्तिनां प्राणायामः स उच्यते ॥

अर्थात् चित्त आदि समस्त जागतिक पदार्थों में ब्रह्मरूपता की भावना करते रहने से जो सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध हो जाता है, वही प्राणायाम कहलाता है।

5.   प्रत्याहार प्रत्याहार का शाब्दिक अर्थ होता है - इन्द्रियों का विषयों के विरुद्ध खींचना। संस्कृत व्याकरण में प्रथम अक्षर से अन्तिम वर्णं तक जोड़ने का कार्य प्रत्याहार के माध्यम से होता है। जैसे - अ इ उ ण सूत्र का प्रत्याहार अण है। इसी तरह अन्य स्थलों में भी उसी प्रकार का प्रयोग किया जाता है। योग दर्शन के अनुसार – स्वविषयासंप्रयोगे चित्त स्वरूपानुकार दुर्वन्द्रियानां प्रत्याहारः (यो० सु०, 5.4)। अर्थात् इन्द्रियों को बाह्य विषयों से अलग कर मन को वश में रखना प्रत्याहार है। यहां पर यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संयम की सिद्धि प्रत्याहार के बिना नहीं हो सकती।

6.  धारणा- देशबन्ध चित्तस्य धारणा (यो० सू०, 3.1)। अर्थात् चित्त को एक स्थान पर दृढ़ करना धारणा है। विष्णु पुराण ( 6.7.45) में कहा गया है –

प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् ।

वशीकृत्य ततः कुर्याच्चित्तस्थानं शुभाश्रये ॥

अर्थात् प्राणायाम के द्वारा वायु को और प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के बाद किसी अच्छे आधार (नाभि आदि) में चित्त को स्थिर करना चाहिये और यही धारणा है।

7.  ध्यान- शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति (123) में कहा है –

ब्रह्म वास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः ।

ध्यान शब्देन विख्याता परमानन्द दायिनी ||

आशय यह कि 'मैं ब्रह्म हूं' इस प्रकार चित्तवृत्ति से जो परमानन्द दायिनी निरालम्बन स्थिति होती है, वही ध्यान है। सांख्य दर्शन के अनुसार - रागोपहितिर्ध्यानम् (सां० सू०, 3.30)। अर्थात् चित्त का जो विषयोपराग है उसका दूर हो जाना ध्यान है। योग दर्शन के अनुसार - तस्मिन् देशे ध्येयश्वा लम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृश: प्रवाहः प्रत्ययस्तरेणापरामृष्ठो ध्यानम् (यो० सू०, 3.2)। आशय यह कि ध्येयाकार चित्तवृत्ति की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। यानि कि धारणा काल में जिस नाभि चक्रादि देश में चित्त वृत्ति को लगाया हो उसी देश में चित्तवृत्ति की एकाग्रता प्राप्त हो जाने को ध्यान कहा जाता है। रामानुज के अनुसार - चेतज्ञः वर्तन चैव तैल धारासमम् (ब्र० सू०, श्रीभाष्य, 1.1.1)। आशय यह कि एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल डालने पर जिस प्रकार वह अखण्ड धारा में गिरता है उसी प्रकार किसी ध्येय के निरन्तर स्मरण को ध्यान कहते हैं ।

8- समाधि - समाधि का सामान्य अर्थ होता है - मन को एकाग्र करना, किसी एक विषय पर मन को केन्द्रित करना इत्यादि। बौद्ध धर्म के अनुसार चित्त को तथा चित्त के व्यापार को एक आलम्बन के ऊपर सम्पर्क रूप से लगाना समाधि है। न्याय दर्शन के अनुसार समाधि विशेषाम्यासात् (न्या०सू०, 4.2.38)। अर्थात् इन्द्रियों से प्रतीप (उल्टे) हटाये हुए किसी हृदय कमलादि रूप प्रदेश में आत्मा के अपने स्थान में मन की धारणा करने के प्रयास से जो आत्मा और मन का संयोग होता है वही तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से होने वाला समाधि कहलाता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार - चित्तं निर्वातदीपवदचलं सदखण्ड चैतन्यमात्रमवतिष्ठते यदा तदा समाधिरित्युच्यते (वे० सा०, पृ० 222)। अर्थात् जब चित्त वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान निश्चल होता हुआ अखण्ड चैतन्य मात्र के रूप में स्थित होता है तब उसे समाधि कहते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार - समाधिसम्प्रज्ञातावस्था (सां० प्र० भा०, 2.6)। अर्थात् चित्त की असम्प्रज्ञात अवस्था समाधि कहलाती है। योग दर्शन के अनुसार - तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः (यो० सू०, 3.3)। अर्थात् घ्यान काल में चित्त, चित्तवृत्ति तथा चित्तवृत्ति का विषय, इन तीनों के समुदायरूप त्रिपुटी, जिसको क्रमश: ध्याता, ध्यान तथा ध्येय कहते हैं, उसका भान होता है, परन्तु जब वही ध्यान अभ्यासवश अपनी ध्यानकारता को त्याग कर केवल ध्येय रूप से स्थित होता हुआ प्रतिभासित होता है तब समाधि कहा जाता है। जैसे जल में डाला हुआ नमक विद्यमान रहता हुआ भी जल रूप हो जाने के कारण नमक रूप से न भासकर केवल जल रूप में भासता है, वैसे ही समाधि काल में ध्यान विद्यमान रहता हुआ भी ध्येयरूप हो जाने से ध्यान रूप से न भासकर केवल ध्येय रूप से भासता है। योग दर्शन में सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात भेद से समाधि के दो प्रकार बतलाये गये हैं। इनका दूसरा नाम क्रमशः निर्विकल्प और सविकल्प या सबीज या निर्बीज समाधि है। सम्प्रज्ञात समाधि के भी चार भेद हैं - वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत एवं अस्मितानुगत।

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योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

योग-क्षेम ( Yog-Kshem )

    योग-क्षेम दो शब्दों से मिलकर बना है – योग और क्षेम। शंकराचार्य ने योग का अर्थ ‘अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष’ तथा क्षेम से तात्पर्य ‘प्राप्त वस्तु के रक्षण’ से किया है। गीता में श्री कृष्ण कहते है –

अनन्याश्चितयन्तों मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषा नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहं ।।

अर्थात जब भी कोई व्यक्ति पवित्र उद्देश्य से कोई भी कार्य अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य, प्रयत्न और आत्मसंयम से करता है तो उसे योग और क्षेम की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह दायित्व स्वयं प्रभु अपनी इच्छा से निभाया करते है।  

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सत्य ( Satya ) का स्वरूप

सत्य ( Satya ) का स्वरूप 

सत्य ( Satya ) का स्वरूप 

सत्य सत्य शब्द की व्युत्पत्ति सत् धातु में अत् प्रत्यय करने पर होती है जिसका अर्थ होता है - वास्तविक यथार्थ इत्यादि। वैशेषिक दर्शन में कहा गया हैसत्यं यथार्थि वांगमनसे यथादृष्टं यथानुमिति यथा श्रुतं तथा वांगमनश्चेति अर्थात् वाणी और मन का यथार्थ होना, जैसा देखा, जैसा अनुमान किया और जैसा सुना, मन और वाणी का वैसा ही व्यवहार करना सत्य है। मनुस्मृति में कहा गया है –

सत्यं ब्रूयाति प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात सत्यमप्रियम् ।

प्रियं च नानृतं ब्रुयादेष धर्मः सनातनः ॥ (मनु०, 4.138)

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ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

    वेदों में आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन 'ऋत की अवधारणा' के रूप में हुआ है। वेदो में देवताओं के वर्णन में 'ऋतस्य गोप्ता' (ऋत के परिरक्षक) और ऋतायु (ऋत का अभ्यास करने वाला) शब्दों का प्रयोग बार-बार हुआ है । 'ऋत' विश्वव्यवस्था के अतिरिक्त नैतिक व्यवस्था के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं।  ऋग्वेद में वर्णित ऋत वह नियम है जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है एवं सभी मनुष्य एवं देवता उसका पालन करते है। अतः ऋत सत्यं च धर्माः अर्थात ऋत सत्य और धर्म हैं। ऋत का संरक्षक (रक्षा करने वाला)वरूण को कहा जाता है।

    ऋत् की अवधारणा के समान ही देवी आदिति की अवधारणा में भी नैतिक व्यवस्था का आधार प्राप्त होता है। आदिति संज्ञा शब्द है और इसका अर्थ बन्धन शहित्य है। इस शब्द का स्वतंत्रता मुक्ति और निसीमता के अर्थ में प्रयोग हुआ है। आदिति को आदित्यों की माता कहा गया है। इसी तरह देवताओं के लिए ऋत जात शब्द का प्रयोग किया गया है।

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नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

नीतिपरक निहितार्थ ( Ethical Implications )

    भारतीय दर्शनों में कर्म का नीतिपरक निहितार्थ चार नियमों द्वारा निर्धारित होता है –

1.    मानवता का नियम – जैसा हम दूसरों से अपने लिए अपेक्षा रखते है वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। 

2.   वृद्धि एवं विकास का नियम – जैसी जैसे मनुष्य की आयु बढ़ती है उसकी समझ का दायरा भी बढ़ता है।

3.   उत्तरदायित्व का नियम – मनुष्य को अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन हर परिस्थिति और काल में करना चाहिए।

4.   संकेन्द्रिता का नियम – मनुष्य को अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करके ही सफलता मिल सकती है।

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कर्म के नियम ( Law of Karma )

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

कर्म के नियम ( Law of Karma ) 

    भारतीय दर्शन में कर्म को अवैयक्तिक नियम माना जाता है। जिसे किसी भी व्यक्ति के द्वारा स्वतंत्रता से किया जा सकता है। भारतीय दर्शनों में मनुष्य को कर्म की स्वतंत्रता प्रदान की है परन्तु कर्म का फल ईश्वराधीन बतलाया है। भारतीय दर्शन में मनुष्य द्वारा किए गए प्रत्येक कर्म का फल निर्धारित होता है जो उसे अवश्य भोगना पड़ता है। कर्म सिद्धान्त को लेकर भारतीय दर्शनों में मान्यता है कि, ‘जैसा हम बोते है, वैसा ही काटते है’। इसी आधार पर भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म की अवधारणा विकसित होती है।

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इतिकर्तव्यता की अवधारणा

 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

इतिकर्तव्यता की अवधारणा 

    इतिकर्तव्यता का अर्थ है – कर्तव्य निभाने की विद्या। भट्ट मीमांसा के अनुसार - इतिकर्तव्यता से तात्पर्य संचार एवं वार्तालाप के साधन से है। जिसके अन्तर्गत साधन विषय की भावना, प्रमा, करण एवं प्रकार आदि सम्मिलित है।

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Thursday, May 12, 2022

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

साध्य-साधन ( Saadhy-Saadhan ) का स्वरूप 

    गांधी जी के दर्शन में साध्य-साधन के स्वरूप पर विचार किया गया। गांधी जी के अनुसार, साध्य की पवित्रता जितनी जरूरी है उतनी ही साधन की पवित्रता है। गांधीवादी नीतिशास्त्र में सत्य को सवोच्च साध्य माना गया है। अहिंसा को साधन रूप में माना गया है। गांधी जी के अनुसार एक उचित साध्य साधन के औचित्य का निर्धारण नहीं कर सकता हैं बशर्ते एक उचित साधन यह सुनिश्चित करता है कि साध्य उचित होगा।

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अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

अदृष्ट ( Adṛṣṭa ) की अवधारणा 

    ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए न्याय वैशेषिक दर्शन अदृष्ट की सहायता लेता है। अदृष्ट धर्म एवं अधर्म अथवा पाप एवं पुण्य के संग्रह को अदृष्ट कहते हैं, जिससे कर्मफल उत्पन्न होता है। सभी जीवों को अदृष्ट का फल मिलता है किन्तु अदृष्ट जड़ है। इसी जड़ अदृष्ट के संचालन के लिए चेतन द्रव्य ईश्वर है।

    वैशेषिक के अनुसार, वेद ईश्वर-वाक्य है। ईश्वर नित्य, सर्वज्ञ, पूर्ण है। ईश्वर अचेतन अदृष्ट के सञ्चालक है। ईश्वर इस जगत के निमित्तकारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सचरित कर देना और प्रत्यय के समय इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है।

    वैशेषिक के अनुसार परमाणुओं में संयोग सृष्टि का कारण है। परमाणु भौतिक तथा निष्क्रिय है इसमें सक्रियता और गति ईश्वरीय इच्छा के द्वारा आती है। ईश्वर 'अदृष्ट' से गति लेकर परमाणुओं में डाल देता है जिससे परमाणुओं गति उत्पन्न होती है और परमाणु एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं जिससे शृष्टि का प्रारंभ होता है।

    वैशेषिक में ईश्वर की कल्पना परमात्मा के रूप में मिलती है जो विश्व के निमित्त कारण और परमाणु उपादान कारण है। ईश्वर का कार्य, सर्ग के समय अदृष्ट से गति लेकर परमाणुओं में आद्यस्पन्दन के रूप में सञ्चरित कर देना, और प्रलय के समय, इस गति का अवरोध करके वापस अदृष्ट में संक्रमित कर देना है। अतः अदृष्ट एक नैतिक व्यवस्था है।

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अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा 

अपूर्व अपूर्व का सामान्य अर्थ होता है जो पहले न किया गया हो। मीमांसा दर्शन में अपूर्व उस अदृष्ट शक्ति का नाम है जो कर्म और उसके फल को जोड़ने का कार्य करता है। वार्त्तिककार कुमारिल ने अपूर्व का लक्षण इस प्रकार किया है –

कर्मस्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः पुरुषस्यवा ।

योग्यताः शास्त्रगम्या या परा साऽपूर्वमुच्यते ॥ (त० वा०, पृ० 324)

आशय यह कि कर्म करने के पहले पुरुष स्वर्गादि प्राप्ति के अयोग्य होते हैं। यज्ञ और स्वर्ग आदि कर्म में अयोग्य होते हैं। यही पुरुषगत या ऋतुगत योग्यता अपूर्व द्वारा उत्पन्न की जाती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि कुमारिल और प्रभाकर अपूर्व के स्वरूप के संबंध में एक-दूसरे से अलग विचार रखते हैं। कुमारिल अपूर्व को कर्त्ता की योग्यता मानते हैं जबकि प्रभाकर अपूर्व को कर्म में स्थिर मानते हैं।

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लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

     भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह' के दर्शन का वर्णन हुआ है। यह 'स्थितप्रज्ञ' की अवधारणा के साथ वर्णित हुआ है। लोकसंग्रह का अर्थ होता है 'मानवता के हित में किये गये कर्म।' गीता में लोकसंग्रह के लिए कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। लोकसंग्रह एक सामाजिक आदर्श है। गीता पुरुषोत्तम एवं मुक्तात्माओं को लोककल्याण हेतु प्रयासरत दिखाकर मानवमात्र को लोककल्याण हेतु प्रेरित करती है। लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञ एक आदर्श पुरुष है जो जनसाधारण के कल्याण के लिए कार्य करता है परन्तु बन्धों में नहीं पड़ता है।

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स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म - वह व्यवसाय जो सब लोगों के कल्याण के लिए गुणधर्म के विभाग से किया जाता है स्वधर्म कहलाता है। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (गी०, 3.35)। अर्थात् स्वधर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु हो जाय, तो भी उसमें कल्याण है, क्योंकि परधर्म विनाशकारी होता है। इस सन्दर्भ में एक लोकोक्ति है कि 'तेली का काम तमोली करे, देव न मारे आप मरे।' गीता के अनुसार - परधर्म का आचरण सहज हो तो भी उसकी अपेक्षा स्वधर्म अर्थात् चातुर्वर्ण्यविहित कर्म, सदोष होने पर भी अधिक कल्याणकारक होता है। जो कर्म सहज है, अर्थात् जन्म से ही गुणकर्मविभागानुसार नियत हो गया है, वह सदोष हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए। कारण यह कि सभी उद्योग किसी न किसी दोष से वैसे ही व्याप्त रहते हैं, जैसे धुएं से आग घिरी रहती है

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृताः ।। (गी०, 18.47-48)

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स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

    जो मनुष्य संतुष्ट, भयमुक्त, चिंता रहित एवं प्रसन्नतापूर्वक कर्मलीन है वह स्थितिप्रज्ञ है। इस सम्बन्ध में गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितिप्रज्ञस्तदोयते ।।

अर्थात जो मनुष्य जिस समय में अपने मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं के ऊपर विजय प्राप्त कर, अपनी आत्मा से, अपनी आत्मा में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितिप्रज्ञ हो जाता है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...