अष्टांग योग ( Ashtanga )
अष्टांग योग ( Ashtanga ) |
अष्टांग योग ( Ashtanga )
योगांग - योग दर्शन के अनुसार - यम नियमाऽऽसन प्राणायाम
प्रत्याहार धारणाध्यान समाधयोऽष्टावंगानि (यो० सू०, 2.26)। अर्थात् यम,
नियम, आसन, प्राणायाम,
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान
तथा समाधि ये आठ योग के अंग कहे जाते। यहाँ ध्यातव्य यह है कि योग सूत्र के प्रथम
पाद में पातञ्जलि ने यद्यपि अभ्यास, वैराग्य तथा श्रद्धा
वीर्य को भी योगांग माना है किन्तु इनका अन्तर्भाव इन्हीं आठों अंगों में हो जाने
से योगांग आठ ही हैं।
1.
यम - योग दर्शन में योग के अष्ट अंगों में से
प्रथम अंग यम है। उपरमे धातु से यम शब्द की व्युत्पत्ति होती है जिसका सामान्य
अर्थ उपरम अर्थात् अभाव होता है। योग दर्शन के अनुसार - अहिंसा सत्यास्तेय
ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः (यो० सू०, 2.30 )। अर्थात् अहिंसा,
सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह को यम कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि प्रकृत में हिंसा, मिथ्या, स्तेय, मैथुन तथा परिग्रह
का क्रमशः अभाव (विरोधी) रूप अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह रूप उपरम यम कहलाता
है। शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति में यम का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह
संपूर्ण विश्व ब्रह्म है, ऐसा समझकर इन्द्रियों को नियंत्रित
करना यम है –
सर्वं ब्रह्मोति
विज्ञानादिन्द्रियग्राम संयमः ।
यमोऽयमिति सम्प्रोक्तोऽभ्यसनीयो
मुहुर्मुहुः ॥ (अपरो०, 104)
कठोपनिषद् में यम का तात्पर्य आचार्य
है जो मृत्यु का देवता है।
2.
नियम - योग दर्शन के अनुसार- शौच सन्तोष तपः
स्वाध्यायेश्वरप्रणधानानि ईश्वर: (यो० सू०, 2.32)। अर्थात् शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय ओर ईश्वर
प्रणिधान को नियम कहते हैं। मीमांसा दर्शन के अनुसार- नियमः पाक्षिके सति (सं० वा०,
1.2.36)। अर्थात् एक पक्ष में किसी अन्य प्रमाण से विधि की प्राप्ति
होने पर भी दूसरे पक्ष में भी प्राप्त होने वाले उस विचार के निवारणार्थ पुनः कथन
करने को नियम कहते हैं।
3.
आसन - आस्यतेऽनेन इति आसनम् । हस्त पदादि
अंगों को किसी स्थिति विशेष में स्थिरता पूर्वक रखना आसन कहलाता है। योग सूत्रकार
पतञ्जलि के अनुसार - स्थिर सुखासनम् (यो० सू० 2.46)। तात्पर्य यह कि शरीर को सुख
देने वाली तथा चित्त को स्थिर रखने वाली स्थिति को आसन कहते हैं। व्यास भाष्य में
ग्यारह आसनों की चर्चा की गई है - पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन,
सोपाश्रयासन, पर्य्यकासन, कौचनिषदनासन, हस्तिनिषदनासन, उष्ट्रनिषदनासन,
समसंस्थानासन इत्यादि। आचार्य शंकर ने अपरोक्षानुभूति में आसन के
सन्दर्भ में कही है –
सुखनैव
अवेधस्मिन्नजस्त्र ब्रह्मचिन्तनम् ।
आसनं
तद्विजानीयान्नेतरत्सुखनामनम् ॥ (अपरो०, 12)
अर्थात् जिस स्थिति में सुखपूर्वक निरन्तर
ब्रह्मचिन्तन होता रहे, उसे ही आसन समझना चाहिए।
4.
प्राणायाम् - योग दर्शन के अनुसार- तस्मिन्
सति श्वासप्रश्वासयोगंति विच्छेदः प्राणायामः (यो० सू०, 46)।
आशय यह कि आसान के सिद्ध हो जाने पर बाह्य वायु का भीतर प्रवेश श्वास, उदर में स्थित वायु को बाहर निकालना प्रश्वास, इन दोनों की स्वाभाविक गति
का विच्छेद— यानि की श्वास-प्रश्वास दोनों का अभाव प्राणायाम
कहा जाता है। योग दर्शन में रेचक, पूरक और कुम्भक के भेद से
तीन प्रकार के प्राणायाम हैं। शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति (118) में कहा है–
चित्तादि
सर्वभावेषु ब्रह्मत्वेनैव भावनात् ।
निरोधः
सर्ववृत्तिनां प्राणायामः स उच्यते ॥
अर्थात् चित्त आदि समस्त जागतिक पदार्थों में
ब्रह्मरूपता की भावना करते रहने से जो सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध हो जाता है, वही
प्राणायाम कहलाता है।
5.
प्रत्याहार – प्रत्याहार का
शाब्दिक अर्थ होता है - इन्द्रियों का विषयों के विरुद्ध खींचना। संस्कृत व्याकरण
में प्रथम अक्षर से अन्तिम वर्णं तक जोड़ने का कार्य प्रत्याहार के माध्यम से होता
है। जैसे - अ इ उ ण सूत्र का प्रत्याहार अण है। इसी तरह अन्य स्थलों में भी उसी
प्रकार का प्रयोग किया जाता है। योग दर्शन के अनुसार – स्वविषयासंप्रयोगे चित्त
स्वरूपानुकार दुर्वन्द्रियानां प्रत्याहारः (यो० सु०, 5.4)।
अर्थात् इन्द्रियों को बाह्य विषयों से अलग कर मन को वश में रखना प्रत्याहार है।
यहां पर यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संयम की सिद्धि प्रत्याहार के बिना नहीं
हो सकती।
6. धारणा- देशबन्ध चित्तस्य धारणा (यो० सू०, 3.1)।
अर्थात् चित्त को एक स्थान पर दृढ़ करना धारणा है। विष्णु पुराण ( 6.7.45) में कहा
गया है –
प्राणायामेन
पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् ।
वशीकृत्य
ततः कुर्याच्चित्तस्थानं शुभाश्रये ॥
अर्थात् प्राणायाम के द्वारा वायु को और
प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने के बाद किसी अच्छे आधार (नाभि आदि)
में चित्त को स्थिर करना चाहिये और यही धारणा है।
7. ध्यान- शंकराचार्य ने अपरोक्षानुभूति (123)
में कहा है –
ब्रह्म
वास्मीति सद्वृत्त्या निरालम्बतया स्थितिः ।
ध्यान
शब्देन विख्याता परमानन्द दायिनी ||
आशय यह कि 'मैं ब्रह्म हूं' इस प्रकार चित्तवृत्ति से जो परमानन्द दायिनी निरालम्बन स्थिति होती है, वही ध्यान है। सांख्य दर्शन के अनुसार - रागोपहितिर्ध्यानम् (सां० सू०, 3.30)। अर्थात् चित्त का जो विषयोपराग है उसका दूर हो जाना ध्यान है। योग दर्शन के अनुसार - तस्मिन् देशे ध्येयश्वा लम्बनस्य प्रत्ययस्यैकतानता सदृश: प्रवाहः प्रत्ययस्तरेणापरामृष्ठो ध्यानम् (यो० सू०, 3.2)। आशय यह कि ध्येयाकार चित्तवृत्ति की एकाग्रता को ध्यान कहा जाता है। यानि कि धारणा काल में जिस नाभि चक्रादि देश में चित्त वृत्ति को लगाया हो उसी देश में चित्तवृत्ति की एकाग्रता प्राप्त हो जाने को ध्यान कहा जाता है। रामानुज के अनुसार - चेतज्ञः वर्तन चैव तैल धारासमम् (ब्र० सू०, श्रीभाष्य, 1.1.1)। आशय यह कि एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल डालने पर जिस प्रकार वह अखण्ड धारा में गिरता है उसी प्रकार किसी ध्येय के निरन्तर स्मरण को ध्यान कहते हैं ।
8- समाधि - समाधि का सामान्य अर्थ होता है - मन को एकाग्र करना, किसी एक विषय पर मन को केन्द्रित करना इत्यादि। बौद्ध धर्म के अनुसार चित्त को तथा चित्त के व्यापार को एक आलम्बन के ऊपर सम्पर्क रूप से लगाना समाधि है। न्याय दर्शन के अनुसार समाधि विशेषाम्यासात् (न्या०सू०, 4.2.38)। अर्थात् इन्द्रियों से प्रतीप (उल्टे) हटाये हुए किसी हृदय कमलादि रूप प्रदेश में आत्मा के अपने स्थान में मन की धारणा करने के प्रयास से जो आत्मा और मन का संयोग होता है वही तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से होने वाला समाधि कहलाता है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार - चित्तं निर्वातदीपवदचलं सदखण्ड चैतन्यमात्रमवतिष्ठते यदा तदा समाधिरित्युच्यते (वे० सा०, पृ० 222)। अर्थात् जब चित्त वायु रहित स्थान में रखे हुए दीपक के समान निश्चल होता हुआ अखण्ड चैतन्य मात्र के रूप में स्थित होता है तब उसे समाधि कहते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार - समाधिसम्प्रज्ञातावस्था (सां० प्र० भा०, 2.6)। अर्थात् चित्त की असम्प्रज्ञात अवस्था समाधि कहलाती है। योग दर्शन के अनुसार - तदेवार्थ मात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः (यो० सू०, 3.3)। अर्थात् घ्यान काल में चित्त, चित्तवृत्ति तथा चित्तवृत्ति का विषय, इन तीनों के समुदायरूप त्रिपुटी, जिसको क्रमश: ध्याता, ध्यान तथा ध्येय कहते हैं, उसका भान होता है, परन्तु जब वही ध्यान अभ्यासवश अपनी ध्यानकारता को त्याग कर केवल ध्येय रूप से स्थित होता हुआ प्रतिभासित होता है तब समाधि कहा जाता है। जैसे जल में डाला हुआ नमक विद्यमान रहता हुआ भी जल रूप हो जाने के कारण नमक रूप से न भासकर केवल जल रूप में भासता है, वैसे ही समाधि काल में ध्यान विद्यमान रहता हुआ भी ध्येयरूप हो जाने से ध्यान रूप से न भासकर केवल ध्येय रूप से भासता है। योग दर्शन में सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात भेद से समाधि के दो प्रकार बतलाये गये हैं। इनका दूसरा नाम क्रमशः निर्विकल्प और सविकल्प या सबीज या निर्बीज समाधि है। सम्प्रज्ञात समाधि के भी चार भेद हैं - वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत एवं अस्मितानुगत।
------------
Comments
Post a Comment