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भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद)

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद) भ्रम के सिद्धान्त ( ख्यातिवाद )     ख्याति का शाब्दिक अर्थ है - भ्रम। भ्रम की समस्या अनिवार्यतः वस्तुवाद से सम्बन्धित है। सभी वस्तुवादी इस समस्या को हल करने का प्रयास करते हैं , क्योंकि यह वस्तुवाद के मूल पर ही कुठाराघात करता है। क्योंकि वस्तुवादियों की मान्यता है कि ज्ञाता से स्वतन्त्र तथा पृथक् बाह्य जगत् में वस्तुओं का अस्तित्व है। जिनका इन्द्रियानुभव के द्वारा साक्षात् ज्ञान प्राप्त किया जाता है अर्थात् वस्तु के अनुरूप ही वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। किन्तु वस्तुवादियों के लिए     समस्या यह है कि इन्द्रियानुभव के द्वारा हमें कभी - कभी अयथार्थ ज्ञान ( अप्रमा ) की प्राप्ति हो जाती है , परिणामस्वरूप भ्रम की स्थिति उभरती है। इस समस्या को ही ख्यातिवाद के नाम से जाना जाता है। विभिन्न वस्तुवादी दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है , किन्तु कोई भी इस समस्या का समुचित समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति     न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है - अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैं , जिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं है , प्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती है , जिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता है ; जैसे - शुक्ति  का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग - अलग सत्य है , केवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने