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योग दर्शन में ईश्वर विचार

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में ईश्वर विचार  योग दर्शन में ईश्वर विचार    ईश्वर विचार ( योग में ईश्वर की भूमिका )      योग दर्शन में प्रकृति और पुरुष से भिन्न एक स्वतन्त्र नित्य तत्त्व के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि योग दर्शन को ' सेश्वर - सांख्य ' भी कहा जाता है। ईश्वर के सम्बन्ध में पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है कि जो क्लेश , कर्म , आसक्ति और वासना इन चारों से असम्बन्धित हो , वही ईश्वर है। यहाँ ईश्वर के सम्बन्ध में निम्न बातें स्पष्ट होती है - ●     ईश्वर , अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश , इन पाँचों क्लेशों से रहित है। ●       ईश्वर पाप - पुण्य और इन कर्मों से उत्पन्न फल तथा उनसे उत्पन्न वासनाओं ( आशय ) से असम्बन्धित है। ●     ईश्वर को एक विशेष पुरुष की संज्ञा दी गई है , जो दुःख कर्म विपाक से अछूता रहता है। परन्तु ईश्वर न कभी बन्धन में था , न कभी होगा , क्योंकि वह नित्य मुक्त है।     योगमतानु

योग दर्शन में चित्तभूमियाँ

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में चित्तभूमियाँ योग दर्शन में चित्तभूमियाँ     योग दर्शन चित्तभूमि अर्थात् मानसिक अवस्था के भिन्न - भिन्न रूपों में विश्वास करता है। व्यास ने चित्त की पाँच अवस्थाओं अर्थात् पाँच भूमियों का उल्लेख किया है क्षिप्त चित्त की इस अवस्था में रजो गुण की प्रधानता होती है। इसलिए इस अवस्था में चित्त में अत्यधिक सक्रियता तथा चंचलता रहती है , परिणामस्वरूप ध्यान किसी एक वस्तु पर टिक नहीं पाता है। मूढ़ चित्त की इस अवस्था में चित्त में तमो गुण की प्रधानता होती है , परिणामस्वरूप चित्त निद्रा , आलस्य एवं निष्क्रियता से ग्रसित रहता है। विक्षिप्त यह क्षिप्त तथा मूढ़ के बीच की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त का ध्यान किसी वस्तु पर तो जाता है , किन्तु वहाँ अधिक देर तक टिकता नहीं है। एकाग्र चित्त की इस अवस्था में सत् गुण की प्रधानता होने के कारण चित्त किसी वस्तु पर टिकने लगता है। चित्त की यह अ

योग दर्शन में क्लेश की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में क्लेश की अवधारणा  योग दर्शन में क्लेश की अवधारणा  क्लेश योग दर्शन में पाँच प्रकार के क्लेश बताए गए हैं , जो निम्न हैं - अविद्या यह क्लेश समस्त क्लेशों का मूल कारण है। इसी की वजह से हम अनित्य को नित्य , अपवित्र को पवित्र तथा दुःखदायी को सुखदायी मान लेते हैं। अस्मिता पुरुष और चित्त में अभेद्य मान लेना। राग सुखों को प्राप्त करने की चाह। द्वेष सुख में बाधक और दुःख को उत्पन्न करने वालों के प्रति क्रोध , हिंसा या घृणा का भाव। अभिनिवेश जीवन के प्रति आसक्ति तथा मृत्यु का भय।     इन पाँचों को क्लेश इसलिए कहा जाता है , क्योंकि इन पाँचों के कारण जीव संसार चक्र में फँसा रहता है और दुःखों को भोगता है। जब तक योगाभ्यास , तप , वैराग्य , स्वाध्याय , ईश्वर शरणागति आदि के द्वारा क्लेशों का नाश नहीं होता , तब तक जीवों को विवेक का ज्ञान नहीं हो पाता है। ----------

योग दर्शन में चित्तवृत्तियाँ

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में चित्तवृत्तियाँ योग दर्शन में चित्तवृत्तियाँ     जब चित्त इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों के सम्पर्क में आता है , तब वह विषय का आकार ग्रहण कर लेता है , तो इस आकार को ही वृत्ति कहते हैं। जब पुरुष के चैतन्य के प्रकाश से चित्तवृत्ति प्रकाशित होती है , तब जीव को विषय का ज्ञान हो जाता है। योग दर्शन में चित्तवृत्तियों के पाँच प्रकार बताए गए हैं - प्रमाण इस वृत्ति के द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। विपर्यय इस वृत्ति के द्वारा मिथ्या ज्ञान प्राप्त होता है। विकल्प इस वृत्ति के द्वारा काल्पनिक ज्ञान प्राप्त होता है। निद्रा यह एक मानसिक वृत्ति है , जिसके द्वारा जीव को यह ज्ञान होता है कि उसे निद्रा आई। स्मृति इस वृत्ति के द्वारा पूर्व में अनुभव किए गए विषयों का संस्कारजन्य ज्ञान प्राप्त होता है।     योग मतानुसार चित्त की ये सभी पाँचों वृत्तियाँ जीव को सुख , दुःख तथा मोह आदि का अनुभव कराती

योग दर्शन में चित्त की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में चित्त की अवधारणा योग दर्शन में चित्त की अवधारणा      योग दर्शन का प्रतिपादन पतंजलि ने किया तथा अपने ' योगसूत्र ' के दूसरे सूत्र में कहा कि ' योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः ' अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। अत : योग को ठीक प्रकार से समझने के लिए चित्त तथा चित्तवृत्ति क्या है ? तथा इन चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे होता है ? यह जानना आवश्यक है। चित्त     योग दर्शन में चित्त का अर्थ ' अन्त : करण ' माना गया है। योग मतानुसार चित्त के अन्तर्गत महत् ( बुद्धि ), अहंकार तथा मन तीनों ही आ जाते हैं अर्थात् बुद्धि , अहंकार तथा मन को ही संयुक्त रूप से चित्त की संज्ञा दी गई है। चित्त की विशेषताएँ योग दर्शन में चित्त की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई गई हैं - ●     त्रिगुणात्मक प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण चित्त को भी त्रिगुणात्मक माना गया है , परन्तु इसमें सत् गुण की प्रधानता होती है। ●     प्रकृति से

योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  शब्द प्रमाण     पतंजलि ने शब्द को तीसरा प्रमाण माना है। किसी विश्वसनीय व्यक्ति से प्राप्त ज्ञान को शब्द कहा जाता है। विश्वास योग्य व्यक्ति के कथनों को ' आप्त वचन ' कहा जाता है। आप्त वचन ही शब्द है। शब्द दो प्रकार के होते हैं लौकिक शब्द वैदिक शब्द लौकिक शब्द     साधारण विश्वसनीय व्यक्तियों के आप्त वचन को लौकिक शब्द कहा जाता है। श्रुतियों वेद के वाक्य द्वारा प्राप्त ज्ञान को वैदिक शब्द कहा जाता है। लौकिक शब्दों को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना जाता , क्योंकि वे प्रत्यक्ष और अनुमान पर आश्रित हैं। इसके विपरीत वैदिक शब्द अत्यधिक प्रामाणिक हैं , क्योंकि वे शाश्वत सत्यों का प्रकाशन करते हैं। वैदिक वाक्य     वेद में जो कुछ भी कहा गया है , वह ऋषियों की अन्तर्दृष्टि पर आधारित है। वैदिक वाक्य स्वतः प्रमाणित है। वेद अपौरुषेय हैं। वे किसी व्यक्ति - विशेष की रचना नहीं ह