भारतीय दर्शन |
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मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा |
मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा
अभाव और अनुपलब्धि
अभाव और अनुपलब्धि दोनों की विवेचना मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत प्रमाण
के सन्दर्भ में की जाती है। यद्यपि पूर्व-मीमांसा दर्शन
के प्रवर्तक जैमिनी ने यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान
एवं शब्द प्रमाणों का विवेचन किया था। जैमिनी के बाद बहुत से टीकाकार एवं स्वतन्त्र
ग्रन्थकार हुए, जिनमें दो प्रमुख थे-कुमारिल भट्ट
एवं प्रभाकर।
प्रभाकर ने यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के पाँच प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द
तथा अर्थापत्ति को स्वीकार किया था, जबकि कुमारिल
भट्ट ने प्रभाकर के पाँच प्रमाणों के अतिरिक्त अनुपलब्धि को भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त
करने के प्रमाण (साधन) के रूप में स्वीकार किया। इसी अनुपलब्धि के सन्दर्भ में अभाव की
भी चर्चा होती है अर्थात् अभाव एवं अनुपलब्धि को लेकर प्रभाकर एवं कुमारिल सम्प्रदाय
में मतभेद भी देखने को मिलता है।
प्रभाकर का मत है कि अभाव नामक कोई वस्तु होती ही नहीं, इसलिए अभाव को ग्रहण करने के लिए अनुपलब्धि को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कुमारिल का मत है किसी स्थान विशेष एवं काल में जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है, उसका वहाँ न होना ही अनुपलब्धि है; जैसे-शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, परन्तु उसका उपस्थित न होना ज्ञात कराना है कि मन्दिर में पूजारी का अभाव है। फिर अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, परन्तु नैयायिक इसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। प्रभाकर न तो अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और न ही अभाव को ज्ञान के लिए अनुपलब्धि को स्वीकार करते हैं। प्रभाकर के अनुसार, अभाव अधिकरण से भिन्न नहीं है। यदि मन्दिर में पुजारी नहीं है, तो यह पुजारी के अभाव का ज्ञान नहीं केवल मन्दिर का ज्ञान है।
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