उपनिषदों का परिचय Introduction to Upanishads

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उपनिषदों का परिचय Introduction to Upanishads

उपनिषदों का परिचय Introduction to Upanishads

  उपनिषद दार्शनिक विचारों का प्राचीनतम संग्रह है, जिनमें शुद्धतम ज्ञानपक्ष पर बल दिया गया है। उपनिषदों को भारतीय दर्शन का स्रोत कहा जाता है। उपनिषदों की कुल संख्या 108 मानी गई है, किन्तु आचार्य शंकर ने केवल 10 उपनिषदों पर ही अपने भाष्य लिखे है, जो कि वर्तमान में लोकप्रिय है।

निम्नलिखित श्लोक में दस उपनिषद बताएं गए है - 
"ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुंड-माण्डुक्य-तित्तिरिः 
ऐतरेयञ्च छान्दोग्यं वृहदारण्यकन्तथा" ।। 
अर्थात दस उपनिषद ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, माण्डुक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और वृहदारण्यक है।
इस सूची में कौशितकी, मैत्री और श्वेताश्वेतर नाम जोड़ देने पर मुख्य उपनिषदों की संख्या तेरह हो जाती है।
उपनिषद वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग है, इसलिए इन्हें वेदान्त भी कहा जाता है। इन्हें आरण्यक भी कहा जाता है क्योंकि इनका मनन अरण्य अर्थात वन के एकांत वातावरण में होता था। आरण्यक का मुख्य विषय आध्यात्मिक तत्व की प्राप्ति है। उपनिषदों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण इन्हें आत्मविद्या, मोक्षविद्या और ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है।

उपनिषद उप्, नि एवं सद् के संयोग से बना है। उप् का अर्थ निकट, नि का अर्थ श्रद्धा और सद् का अर्थ बैठना है।इस प्रकार उपनिषद का तात्पर्य है- श्रद्धापूर्वक ज्ञान के लिए गुरु के पास बैठना।
आचार्य शंकर उपनिषद का अर्थ 'ब्रह्मज्ञान' से लेते है।

1- ईश 

ईश उपनिषद्‌ का पूरा नाम 'ईशावास्य' है। प्रथम मन्त्र के प्रारम्भ के अक्षरों को लेकर ही यह नामकरण किया गया है। इसमें केवल 18 मन्त्र हैं। दर्शन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञानोपार्जन के साथ-साथ कर्म करने की भी आवश्यकता है, अतः इसी विषय का प्रतिपादन 'ईश' में है। यही मत 'ज्ञान-कर्म-समुच्चय-वाद' के नाम से बाद को प्रसिद्ध हुआ है ।

2- केन 

'कैन' उपनिषद्‌ में ब्रह्म की महिमा का वर्णन है। ब्रह्म का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं हो सकता । ब्रह्म की शक्ति से सभी देवताओं में शक्ति आती है। ब्रह्म ही सर्वव्यापी एक मात्र तत्त्व है।

3- कठ

'कठ' बहुत रोचक तथा महत्त्वपूर्ण उपनिषद्‌ है। यमराज तथा नचिकेता के संवाद से आत्म-ज्ञान की महिमा, संसार के विषयों की तुच्छता, आत्मा के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए शिष्य की परीक्षा तथा अन्त में आत्म-ज्ञान का उपदेश एवं आत्मा के स्वरूप का निरूपण, ये सभी विषय बहुत ही रोचक तथा सरल मन्त्रों के द्वारा इसमें वणित है। इसके बहुत से मन्त्र 'गीता' में पाये जाते है।

4- प्रश्न

'प्रश्न' उपनिषद्‌ गुरु-शिष्य-संवाद के रूप में है। सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणी, कौसल्य, वेदर्भी और कबन्धी, ये ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासु पिप्लाद ऋषि के समीप हाथ में समिधा लेकर उपस्थित होते हैं और उनसे अनेक प्रकार के प्रश्न करते हैं जो परम्परा में या साक्षात्‌ ब्रह्मज्ञान के सम्बन्ध में हैं। आचार्य पिप्लाद सभी प्रश्नों का क्रमशः उत्तर देकर शिष्यों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हैं।

5- मुण्ड

'मुण्ड' उपनिषद्‌ को 'मुण्डक' भी कहते हैं। इसके मन्त्र बहुत रोचक और सरल हैं। इसमें 'सप्रपंच ब्रह्म' का निरूपण हैं। अनेक लौकिक दृष्टान्तों के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का वर्णन इस उपनिषद में बहुत ही युक्तिपूर्ण और मनोहर है।

6- माण्डूक्य

'माण्डूक्य' सबसे छोटा उपनिषद्‌ हैं। इसमें मनुष्य की चारों अवस्थाओं (जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्त तथा तुरीय) का वर्णन है। इसके अनुसार, “समस्त जगत्‌ प्रणव से ही अभिव्यक्त होता है। भूत, भविष्यत्‌ तथा वर्तमान सभी इसी ॐकार के रूप हैं।” आत्मा के चार पाद हैं जिनके नाम 'जाग्रतस्थान,' 'स्वप्नस्थान,' 'सुषुप्तस्थान' तथा 'सर्वप्रपञ्चोपशमस्थान' हैं । प्रथम में 'प्रज्ञा' बहिर्मुखी है, दूसरे में अन्तर्मुखी तथा तीसरे में एकीभूत प्रधानघन, आनन्दमय और चेतोमुखी होती है। चतुर्थ का वर्णण करना असम्भव है- न अन्तर्मुखी, न बहिर्मुखी; न दोनों, न प्रधानघन, न प्रज्ञा हैं, और न ही अप्रज्ञा है। इस अवस्था में सभी शान्त है। इसे ही शिवं, अद्वैत आदि शब्दों के द्वारा वर्णन किया जाता है।

इस 'उपनिषद्‌' का महत्त्व विशेषरूप से शंकराचार्य के परमगुरु गौडपादाचार्य के द्वारा इस पर लिखी गयी कारिकाओं के कारण है। अद्वैत वेदांत का सारांश गौडपाद ने अपनी इन कारिकाओं में बहुत हीं सुन्दर रूप में लिखा है। बहुत से विद्वानों का कहता है कि गौडपाद ने बौद्धमत से प्रभावित होकर इन कारिकाओं को लिखा है, और यही कारण है कि उनका अनुकरण करने के कारण शंकराचार्य को कुछ लोगों ने 'प्रंच्छन्न बौद्ध' कहा है।

7- तैत्तिरीय

तैत्तिरीय उपनिषद्‌ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसके तीन खंड हैं--पहला 'शिक्षाध्याय' हैं । इसमें वर्ण तथा स्वर के सम्बन्ध में उपदेश है। दूसरा खण्ड ब्रह्मानन्द-वल्ली' के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण है।
पंच कोषों का इस खंड में वर्णन हैं । इसके बहुत से मन्त्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं तथा शास्त्र में समय-समय पर उल्लिखित होते रहते हैं । तीसरा खण्ड हैं— ‘भृगुवल्ली’ ।  भृगु के पिता वरुण ने अपने पुत्र को उदाहरणों के द्वारा ब्रह्मज्ञान का जो उपदेश दिया है, वही इस खण्ड का विषय है।

8- ऐतरेय

'ऐतरेय' उपनिषद्‌ के प्रारम्भ में सृष्टि का वर्णन है, जिसके अनुसार, “पहले यही एक आत्मा था और कुछ नहीं था। इसी की इच्छा से लोकों की सृष्टि हुई एवं क्रमशः अन्य वस्तुओं की भी सृष्टि हुई।” दूसरे अध्याय में मनुष्य के जन्म के क्रम का निरूपण है कि किस प्रकार माता के गर्भ में जब जीव प्रवेश करता है तभी उसका प्रथम जन्म, गर्भ से बाहर आना उसका दूसरा जन्म तथा अपनी सन्तान को घर का भार सौंप कर जब वृद्धावस्था में वह मरता है, तो उसका तीसरा जन्म होता है। तीसरे अध्याय में आत्मा के ज्ञान का विचार है और विज्ञान के भिन्न-भिन्न रूपों का भी निरूपण हैं, जिससे ज्ञान के मार्ग का क्रमिक परिचय लोगों को होता है।

9- छान्दोग्य

'छान्दोग्य' एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा बड़ा उपनिषद्‌ है। इसमें सूक्ष्म उपासना के द्वारा ब्रह्म के सर्वव्यापी होने का उपदेश है। अनेक दृष्टान्तों के द्वारा, छोटी-छोटी कहानियों का उल्लेख कर ज्ञान की महिमा का इसमें निरूपण है। ब्रह्मज्ञान के स्वरूप का वास्तविक परिचय इसमें दिया गया है। इसमे महावाक्‍यों के द्वारा आत्मा के साक्षात्कार करने की विधि का वर्णन युक्तिपूर्वक तथा अनुभव के आधार पर बड़ी रोचकता के साथ किया गया है।इस उपनिषद्‌ के पूर्व भी भारत में अनेक विद्याएँ थीं, जिनका उल्लेख नारद तथा सनत्कुमार के संवाद से हमें प्राप्त होता है । इस उपनिषद्‌ के बहुत से मन्त्र इतने प्रसिद्ध हैं कि वे वेदान्त के सभी ग्रन्थों में अद्वैत के प्रतिपादन के लिए प्रस्तुत किये जाते हैं। बृहदारण्यक के समान यह उपनिषद भी बहुत ही प्राचीन तथा प्रामाणिक है।

10- बृहदारण्यक

बृहदारण्यक सबसे बड़ा उपनिषद्‌ हैं। यह सबसे प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण है। इसके आरम्भ में उपासना के सूक्ष्म रूप का वर्णन है, पश्चात्‌ सृष्टि के क्रम का भी निरूपण हैं। अनेक लौकिक दृष्टान्तों के द्वारा आत्मा और ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन तथा उसके सर्वंव्यापी होने का निरूपण इसमें है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण भाग ‘याज्ञवल्क्य काण्ड' है, जिसमें याज्ञवल्क्य ने अपनी स्‍त्री को ज्ञान का उपदेश दिया है। इसमें न केवल अद्वैत का ही निरूपण है, बल्कि चार्वाक दर्शन से लेकर ज्ञान के सभी सोपानों का भी विशेष वर्णन है। ब्रह्म और आत्मा के ऐक्य का प्रतिपादन इसी उपनिषद्‌ में पहली बार मिलता है। विदेह-जनक की सभा में याज्ञवल्क्य की विद्वत्ता का परिचय इसी उपनिषद्‌ में हम पाते हैं।

11- कौशितकी

इसके पहले अध्याय में देवयान और पितृयान मार्गों का वर्णन है तथा अंतिम अर्थात चतुर्थ अध्याय में बालाकि और अजातशत्रु की कथा का वर्णन है। दूसरे अध्याय में कौषीतकी, पेंग प्रतर्दन और शुष्क भृंगार ऋषियों के सिद्धांतों का वर्णन है। तृतीय अध्याय में इंद्र, प्रतर्दन से कहते हैं कि मुझे ( इंद्र को ) जानने से ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है।

12- मैत्री

मैत्री उपनिषद पर सांख्य और बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई देता है। इसमे राजा बृहद्रथ, शक्यायन के पास अपनी दार्शनिक जिज्ञासा लेकर जाता है। इस उपनिषद में खगोल-विद्या से साथ-साथ षडंग-योग का भी वर्णन है।

13- श्वेताश्वेतर

श्वेताश्वेतर के पहले अध्याय में तत्कालिक अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों जैसे- स्वभाववाद, कालवाद एवं यदृच्छावाद आदि की आलोचना की गई है। इस उपनिषद पर शैवमत और सांख्य-सम्बन्धी विचारों का प्रभाव है।
इस उपनिषद के अनुसार, प्रकृति एक माया है और महेश्वर इसके स्वामी है। माया शब्द का प्रयोग करते हुए भी यह उपनिषद जगत को मिथ्या नहीं मानता है।

उपनिषदों की प्रमुख उक्तियाँ

  • अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ)   वृहदारण्यक उपनिषद
  • अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है)  माण्डुक्य उपनिषद
  • तत्वमसि (वह तुम ही हो)  छान्दोग्य उपनिषद
  • प्रज्ञान ब्रह्म (प्रज्ञा ही ब्रह्म है)   ऐतरेय उपनिषद

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