Showing posts with label ज्ञातता सिद्धान्त. Show all posts
Showing posts with label ज्ञातता सिद्धान्त. Show all posts

Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन का ज्ञाततावाद या ज्ञातता सिद्धान्त

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

मीमांसा दर्शन का ज्ञाततावाद या ज्ञातता सिद्धान्त

मीमांसा दर्शन का ज्ञाततावाद या ज्ञातता सिद्धान्त

ज्ञाततावाद या ज्ञातता (कुमारिल भट्ट)

    कुमारिल का ज्ञान विषयक मत 'ज्ञाततावाद' कहलाता है। कुमारिल का मत है कि ज्ञान सर्वप्रकाश नहीं होता है। ज्ञान न तो स्वयं प्रकाशित होता है और न ही आत्मा को ज्ञाता के रूप में प्रकाशित करता है। ज्ञान केवल ज्ञेय (विषय) को ही प्रकाशित करता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान किसी अन्य ज्ञान द्वारा प्रकाशित नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि ज्ञान के प्रामाण्य के सन्दर्भ में यहाँ परत:प्रामाण्यवाद को अस्वीकार किया गया है। प्रश्न यह उठता है कि आत्मा तो ज्ञाता है फिर ऐसी स्थिति में आत्मा का ज्ञान कैसे प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में कुमारिल का मत है कि आत्मा स्वयं अपने ही द्वारा अपना ज्ञान प्राप्त करती है तथा इस स्थिति में आत्मा स्वयं ज्ञाता एवं ज्ञेय दोनों होती है।

    कुमारिल के समक्ष समस्या यह है कि जब ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता अर्थात् ज्ञान प्राप्त होते समय उसकी कोई अनुभूति नहीं होती तो फिर हमें यह कैसे पता चलता है कि ज्ञान प्राप्त हो गया? इस सन्दर्भ में कुमारिल कहते हैं कि ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान कर लिया जाता है। कुमारिल के अनुसार, किसी पदार्थ का ज्ञान प्राप्त होने पर उस धर्म में ज्ञातता नामक धर्म का उदय होता है। यहाँ ज्ञातता से तात्पर्य है कि विषय ज्ञाता द्वारा ज्ञात हो चुका है, इसकी प्रतीति होती है। ' इस ज्ञातता के आधार पर यह अनुमान कर लिया जाता है कि आत्मा को विषय का ज्ञान प्राप्त हो गया। उदाहरणार्थ जिस प्रकार पकाने पर चावल में 'पकता' नामक एक नया गुण उत्पन्न हो जाता है और उस गुण को जानकर हम यह ज्ञान प्राप्त करते हैं कि यह पकाया गया है। यद्यपि पकते समय उसे नहीं देखा गया था, ठीक इसी प्रकार जब कोई विषय ज्ञान में प्रकाशित होता है, तो हमें यह पता चलता है कि पहले यह विषय अज्ञात था, अब ज्ञात हो गया। इस विषय में जो यह परिवर्तन आया, जिसने इसे अज्ञात से ज्ञात की कोटि में ला दिया, इसमें किसी नए गुण की उत्पत्ति द्वारा ही सम्भव है। विषय में उत्पन्न इस गुण को ही कुमारिल 'ज्ञातता' का गुण कहते हैं। अत: स्पष्ट है कि पदार्थ के ज्ञात होने पर उसकी ज्ञातता के आधार पर ज्ञान का अनुमान किया जाता है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान आत्मा का अनिवार्य गुण (स्थिर गुण) नहीं बल्कि आगन्तुक गुण है।

-------------


विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...