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Saturday, August 6, 2022

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

प्रमाण विचार न्याय दर्शन में 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी जाती है । 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्क निर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः। (न्यायसूत्र, 1.1.1) 

अर्थात प्रमाणादि षोडश पदार्थों के तत्त्वज्ञान से अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। 

       प्रायः सभी भारतीय दर्शन तत्त्व विचार करने के पूर्व तत्त्व को जानने के साधन पर विचार करते हैं। ये साधन ही प्रमाण कहे जाते हैं। प्रमा ( यथार्थ ज्ञान ) की प्राप्ति के साधन को प्रमाण कहते हैं 'प्रमीयते अनेन इति प्रमाणम्, तथा 'प्रमाकरणं प्रमाणम्’। प्रमाण के चार प्रकार हैं - 

1. प्रत्यक्ष प्रमाण 

महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है – 

इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम्। 

अव्यपदेशमव्यभिचारिव्यवसायात्मक प्रत्यक्षम् ।। (न्यायसूत्र)

        इसका अभिप्राय इन्द्रिय और अर्थ (वस्तु) के सन्निकर्ष (समीपता) से उत्पन्न ऐसा ज्ञान, जो भाषा पर आधारित न हो, जो भ्रामक न हो तथा जो अनिश्चित न हो, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं - लौकिक प्रत्यक्ष तथा अलौकिक प्रत्यक्ष। इन्द्रियों का वस्तु से सम्पर्क होने पर जिस ज्ञान की उपलब्धि होती है उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते है। यह दो प्रकार का होता है – बाह्य प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष। पाँच ज्ञानेन्द्रियों से मिलने वाला ज्ञान बाह्य प्रत्यक्ष होता है जो कि पाँच प्रकार का है – चाक्षुष प्रत्यक्ष, श्रौत प्रत्यक्ष, घ्राण प्रत्यक्ष, स्पर्शज प्रत्यक्ष और रासज प्रत्यक्ष। मन के द्वारा सुख-दुःख आदि का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष कहलाता है। 

        एक अन्य दृष्टि से लौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद है – निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, सविकल्पक प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञा। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में केवल यह ज्ञान होता है कि कोई अमुक वस्तु है। सविकल्पक प्रत्यक्ष में वस्तु के ज्ञान में इन्द्रिय ज्ञान निहित हो जाता है और हम वस्तु की सही-सही जानकारी ले लेते है। प्रत्यभिज्ञा ज्ञान में वस्तु से जुड़े सभी पूर्व संस्कार भी समाहित हो जाते है। 

       अलौकिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत उस ज्ञान की उपलब्धि होती है जो बिना इन्द्रियों के सन्निकर्ष से प्राप्त होता है। इसके भी तीन भेद होते है – समान्य लक्षणा प्रत्यक्ष, ज्ञान लक्षणा प्रत्यक्ष और योगज प्रत्यक्ष। सामान्य ज्ञान की उपलब्धि सामान्य लक्षणा प्रत्यक्ष के कारण होती है। जैसे – मनुष्य को देखकर मनुष्य जाति का ज्ञान या मनुष्यत्व का ज्ञान। जब किसी एक ज्ञानेन्द्रिय प्रत्यक्ष से दूसरी ज्ञानेन्द्रिय का भी ज्ञान हो जाता है तो इसे ज्ञान लक्षणा प्रत्यक्ष कहते है। जैसे हरी-हरी घास को देख कर उसकी कोमलता का ज्ञान भी हो जाना। योग सिद्धि के द्वारा योगियों को होने वाला ज्ञान योगज प्रत्यक्ष कहलाता है। 

2. अनुमान प्रमाण 

       अनुमान दो शब्दों से बना है - अनु तथा मान। अनु का अर्थ पश्चात् तथा मान का अर्थ है ज्ञान, इसका तात्पर्य हुआ- पूर्वज्ञान के पश्चात् होने वाला ज्ञान ‘अनुमान' है। न्यायदर्शन में सामान्यतः अनुमिति के करण को अनुमान प्रमाण कहा जाता है। अनुमान प्रमाण के दो भेद किये गये हैं - स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। स्वार्थानुमान का प्रयोग व्यक्ति स्वयं के लिए करता है। जब किसी अन्य व्यक्ति को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग किया जाता है, तब उसे परार्थानुमान कहते हैं । यथा- पर्वत में अग्नि है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वहाँ धुआँ है (हेतु), जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है, जैसे- रसोईघर में (उदाहरण), पर्वत में धुआँ है (उपनय), इसलिए पर्वत में अग्नि है (निगमन)। इस प्रकार से पाँच वाक्यों द्वारा अनुमान की प्रक्रिया पूर्ण होती है। 

अनुमान के भेद – अनुमान के तीन आधार पर भेद किए गए है –

  1. पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट – यह भेद प्राचीन न्याय के अनुसार है। 
  2. केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी – यह भेद नव्य-न्याय के अनुसार है। 
  3. स्वार्थानुमान और परार्थानुमान – यह भेद मनोवैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार है। 

स्वार्थानुमान – जब अनुमान की प्रक्रिया स्वयं के ज्ञान के लिए पूर्ण की जाती है तो इस विधि स्वार्थानुमान कहते है। इस अनुमान में तीन वाक्यों अर्थात अवयवों का प्रयोग किया जाता है–

  • प्रतिज्ञा – पर्वत पर आग है। 
  • चन्ह या हेतु – क्योंकि पर्वत पर धुआँ है। 
  • उदाहरण – जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। 

परार्थानुमान – जब दूसरों को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग किया जाता है तो इसे परार्थानुमान कहते है। इसमें पंचावयवों का प्रयोग किया जाता है – 

  • प्रतिज्ञा – पर्वत पर आग है। 
  • चिन्ह या हेतु – क्योंकि पर्वत पर धुआँ है। 
  • उदाहरण – जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
  • उपनयन – पर्वत में धुआँ है। 
  • निगमन – इसलिए पर्वत में आग है। 

पूर्ववत् अनुमान – कारण को देखकर कार्य का अनुमान पूर्ववत् अनुमान होता है। जैसे – काले बादलों को देखकर वर्षा का ज्ञान होना। 

शेषवत् अनुमान – कार्य को देखकर कारण का अनुमान शेषवत् अनुमान है। जैसे – सड़क को गीली देखकर वर्षा का ज्ञान। 

सामान्यतोदृष्ट अनुमान – सामान्य को देखकर विशेष का ज्ञान सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। जैसे – सिंग वाले पशु को देखकर पुंछ का ज्ञान। 

केवलान्वयी अनुमान – जब केवल भावात्मक उदाहरणों के आधार पर व्याप्ति की स्थापना होती है। अभावात्मक उदाहरण मिलते है नहीं, तो उसे केवलान्वयी अनुमान कहते है। जैसे- "जिन्हें नाम दिया जा सकता है, उनका ज्ञान सम्भव है।" इस सामान्य वाक्य के आधार पर हम निम्नलिखित अनुमान उपस्थित कर सकते हैं –

सभी ज्ञेय पदार्थ नामधारी (अभिधेय) है। 

घट नामधारी हैं। 

अतः घट ज्ञेय है। 

     इसे हमने केवलान्वयी अनुमान इसलिए कहा क्योंकि ऐसी व्याप्ति में अभावात्मक उदाहरण नहीं मिलते जैसे कि हम यहाँ पर यह नहीं कह सकते कि जो नामधारी (अभिधेय) नहीं है वह अज्ञेय है क्योंकि हम ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बता सकते जिसका नाम न रखा जा सकता हो। 

केवलव्यतिरेकी - कभी-कभी व्यापित स्थापना के लिए केवल भावात्मक उदाहरण मिलते हैं, अभावात्मक नहीं, जैसे- “यह पर्वत हिमालय है, क्योंकि यह सबसे ऊँचा है।" उक्त अनुमान की पुष्टि के लिए हमें कोई भावात्मक उदाहरण नहीं मिलते, क्योंकि हम यह नहीं कह सकते कि 'क' सबसे ऊँचा है, अतः वह हिमालय है अथवा 'ग' सबसे ऊँचा है, अतः वह हिमालय है, तो यहाँ केवल अभावात्मक उदाहरण देते हुए कह सकते हैं । "जो हिमालय नहीं है वह सबसे ऊँचा नहीं है, जैसे सिहावा पर्वत।" इस प्रकार केवल अभावात्मक उदाहरण द्वारा पुष्टि होने के कारण यह अनुमान केवलव्यतिरेकी अनुमान हुआ। 

अन्वयव्यतिरेकी - जहाँ भावात्मक और अभावात्मक दोनों प्रकार के उदाहरण दिये जा सकते हों, उसे अन्वयव्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जैसे - "पर्वत में आग है, क्योंकि वहाँ धुआँ है" इस उदाहरण के व्यापित सम्बन्ध (जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ आग होती है) को हम भावात्मक एवं अभावात्मक दोनों प्रकार के उदाहरण द्वारा पुष्ट कर सकते हैं, जैसे- इसका भावात्मक उदाहरण है- 'रसोईघर, गौशाला आदि (क्योंकि यहाँ धुएँ के संग बराबर आग रहती है) तथा इसका अभावात्मक उदाहरण हैं 'कमरा' जहाँ आग नहीं तो धुआँ भी नहीं है। इस तरह दोनों प्रकार के उदाहरण दिये जा सकने वाला अनुमान अन्वव्यतिरेकी अनुमान हुआ। 

3. उपमान प्रमाण 

        सादृश्यता के आधार पर प्राप्त ज्ञान ही उपमान कहलाता है। न्याय सूत्र के अनुसार- “प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्” अर्थात् प्रसिद्ध पदार्थों के समान धर्म से साध्य के साधन को उपमान कहा जाता है। 

4. शब्द प्रमाण 

        गौतम के अनुसार “आप्तोपदेशः शब्दः” कहा गया है अर्थात् आप्त का उपदेश (कथन) ही शब्द प्रमाण है। इनके अनुसार शब्द तभी प्रमाण बन्ते हैं जब यथार्थ, वास्तविक एवं विश्वास के योग्य हों। ऐसे वचनों को व्यक्त करने वाला आप्त कहा गया है। 

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Wednesday, July 20, 2022

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

प्रमा / Prama

       “प्रमियते अनेन इति प्रमा” अर्थात प्रमा अवस्थाओं का यथार्थ ज्ञान है। इसमें वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है, जैसे - घट को घट के रूप में जानना प्रमा है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति अनुसार ‘प्रमा उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिससे किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है’। यह विचार पाश्चात्य दर्शन के व्यवहारवादी सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। मीमांसकों के अनुसार – ‘अनधिगत ज्ञान प्रमा है’। पार्थसारथी मिश्र ने शास्त्रदीपिका में कहा हैं – “यथार्थमगृहीत ग्राही ज्ञानम् प्रमा इति” अर्थात् अग्रहीत ज्ञान का ग्रहण प्रमा है। नैयायिकों के अनुसार – ‘प्रमा किसी वस्तु का असंदिग्ध ज्ञान है’। गंगेश उपाध्याय के अनुसार – “यत्रयदस्ति तत्र तस्यानुभव: प्रम”। अन्नंभट्ट के अनुसार – “तद्वति तत्प्रकारका रकानुभवो यथार्थ:”। अद्वैत वेदान्त में प्रमा को नवीन एवं अबाधित माना गया है। इस संदर्भ में धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्त परिभाषा में कहा है – “अनधिगताबाधितार्थ विषयक ज्ञानत्वम् प्रमात्वम्"। यहां पर ध्यातव्य यह है कि जहाँ मीमांसक प्रमा को अनधिगत मात्र मानते हैं वहीं दूसरी ओर वेदान्ती अनधिगत के साथ अबाधित लक्षण भी प्रमा में स्वीकार करते हैं। अद्वैत वेदान्तियों द्वारा अबाधित ज्ञान को प्रमा कहने का मात्र कारण यह है कि अनधिगत ज्ञान के अधार पर प्रमा का विश्लेषण करने के बाद विरोधी अनुभवों के उपस्थित होने पर प्रमा अप्रमा हो जाने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्रमा और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। 

         न्याय दर्शन में प्रमेय विचार - प्रमाण के द्वारा हम जिन पदार्थों के ज्ञान की प्राप्ति करते हैं, उन्हें प्रमेय कहा जाता है। न्याय सूत्र में प्रमेय 12 बताये गये हैं - आत्मा-शरीर-इन्द्रिय अर्थ-बुद्धि-मन-प्रवृत्ति दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःख अपवर्गास्तु प्रमेयम्'। इनमें आत्मा प्रथम है। तर्कभाषा में आत्मा का लक्षण "आत्मत्वसामान्यवानात्मा” दिया गया है, जिसका अर्थ है - आत्मत्व नामक सामान्य (जाति) जिस पर रहता है उसे आत्मा कहा गया है। इसके अतिरिक्त आत्मा को शरीर से भिन्न, अनेक एवं विभु कहा गया है। आत्मा के भोग का आश्रय 'शरीर' कहलाता है। शरीरसंयुक्त अतीन्द्रिय ज्ञानकरण को 'इन्द्रिय' कहते हैं। 'अर्थ' पदार्थ का बोधक है जिनकी संख्या 6 है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष समवाय। “अर्थप्रकाशो बुद्धिः” अर्थविषयक प्रकाश को ‘बुद्धि' कहते हैं। सुख-दुःखादि की उपलब्धि का साधनभूत अन्तरिन्द्रिय 'मन' कहलाता है। शास्त्रविहित एवं शास्त्रनिषिद्ध कर्मों के आचरण से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट (धर्म-अधर्म) को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष एवं मोह संयुक्त रूप से 'दोष' कहलाते हैं। पुनरुत्पत्ति (मरण के पश्चात् पुनर्जन्म का होना) को 'प्रेत्यभाव' कहते हैं। सुख-दुःख के अनुभवरूप भोग को 'फल' कहा जाता है। पीड़ा (जो सभी को प्रतिकूलवेदनीय हो) को 'दुःख' कहते हैं। 21 प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति 'अपवर्ग' कहलाती है । 

      अन्य पदार्थ विचार - एक धर्मी में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों का बोध 'संशय' कहलाता है। जिस अर्थ को अधिकृत करके मनुष्य किसी कर्म में प्रवृत्त होता है उसे ‘प्रयोजन' कहते हैं। जिस विषय में वादी प्रतिवादी दोनों एकमत हों, वह 'दृष्टान्त' कहलाता है। किसी दर्शन द्वारा प्रामाणिक रूप से स्वीकृत अर्थ को ‘सिद्धान्त' कहते हैं। अनुमान वाक्य के अंश (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन) अवयव कहलाते हैं। व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप 'तर्क' कहलाता है। निश्चयात्मक ज्ञान को 'निर्णय' कहते हैं। तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से होने वाली कथा 'वाद' कहलाती है। विजय की इच्छा से की जाने वाली कथा 'जल्प' होती है। जल्प कथा में जब कोई पक्ष अपने अभिमत की स्थापना न करके केवल प्रतिपक्ष का खण्डन ही करता है तो वह ‘वितण्डा' कहलाती है। असद हेतु को 'हेत्वाभास' कहते हैं। वक्ता द्वारा किसी भिन्न अभिप्राय से कहे गए वाक्य को सुनकर श्रोता द्वारा उसका भिन्न अर्थ मानकर दोष प्रदर्शन को 'छल' कहते हैं। असंगत उत्तर को 'जाति' कहते हैं। पराजय के निमित्त को ‘निग्रहस्थान’ कहते हैं । 

          मोक्ष - न्याय दर्शन में मोक्ष को अपवर्ग तथा निःश्रेयस भी कहा गया है। प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन- दृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थाना नां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः 

(न्यायसूत्र, 1.1.1) 



Tuesday, July 19, 2022

न्याय दर्शन // Nyaya

न्याय दर्शन // Nyaya

 न्याय दर्शन का परिचय 

       ‘नीयते अनेन इति न्यायः' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  - 

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।

आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) 

उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य भारतीय दर्शन परम्पराओं को 'वादविधि की प्रक्रिया' का ख्यापन न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अवदान है। 

       न्याय दर्शन का इतिहास लगभग 2000 वर्षों में समाविष्ट है। इस विशाल दर्शन को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है - प्राचीन न्याय, मध्य न्याय तथा नव्य-न्याय। दूसरी शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई. का समय प्राचीनन्याय का है। मध्यन्याय का समय 6-12वीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी एवं उसके बाद का दर्शन नव्य-न्याय में रखा जाता है। बारहवीं शती के गंगेश उपाध्याय ने नव्य-न्याय की आधारशिला रखी थी। अन्य दर्शनों की भाँति न्याय दर्शन का भी मुख्य उद्देश्य दुःखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना ही है। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति तत्त्वज्ञान से अर्थात् द्वादश प्रमेयों के ज्ञान से प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है, जिससे दोष अर्थात् राग-द्वेष नष्ट होते हैं तथा मुक्ति मिलती है। 

न्याय दर्शन का साहित्य 

न्याय दर्शन के साहित्य को 3 भागों में देखा जा सकता है - 

1- प्राचीन न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक

  • गौतम - तर्क विद्या प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान रही है। उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु न्याय दर्शन को व्यवस्थित रूप में , एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि गौतम को जाता है जिनका 'न्यायसूत्र' इस मूल ग्रन्थ माना जाता है। इसमें 5 अध्याय 10 आह्निक, 84 प्रकरण तथा 528 सूत्र हैं। 
  • वात्स्यायन - न्यायसूत्र पर सर्वप्रथम भाष्य वात्स्यायन ने लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में लिखा जो 'वात्स्यायन भाष्य' या 'न्यायभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। 

 2. मध्य न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • उद्योतकार - वात्स्यायन भाष्य पर न्यायवार्तिक नाम की टीका लिखी, इनका समय लगभग 650 ई. कश्मीर में माना जाता है। 
  • वाचस्पतिमिश्र - इनका समय 841 ई में माना जाता है। ये मिथिला के निवासी थे तथा इन्हें षड्दर्शनीवल्लभ की उपाधि से जाना जाता है। इन्होंने न्यायवार्तिक पर तात्पर्यटीका लिखी जो ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • जयन्तभट्ट - 9 वीं शताब्दी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा जो न्यायमञ्जरी के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें आह्निकों की संख्या 84 है।
  • उदयन - इनका समय 984 ई0 माना जाता है। इन्होंने तात्पर्यटीका पर एक उपटीका लिखी, जो 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'न्यायकुसुमांजलि' एवं 'आत्मतत्त्वविवेक’ उनके दो अन्य प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं । 

3- नव्य-न्याय (प्रमाण प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • गंगेश उपाध्याय - नव्यन्याय के प्रवर्तक के रूप में विख्यात गंगेश उपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से ग्रन्थ लिखा, जो 4 खण्डों मे विभाजित है, जिसमें इन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द की विशद् व्याख्या की है। 'तत्वचिन्तामणि' की व्याख्या परम्परा में वर्धमान ने 'प्रकाश', पक्षधर मिश्र ने 'आलोक', शंकरमिश्र ने 'मयूख' रघुनाथ शिरोमणि ने 'दीधिति', मथुरानाथतर्कवागीश ने 'रहस्य', जगदीश तर्कालंकार ने दीधितिप्रकाश (जागदीशी), हरिराम तर्कवागीश ने ‘तत्त्वचिन्तामणिविचार' तथा गदाधर भट्टाचार्य ने 'दीधितिप्रकाशिका' नाम से विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाग्रन्थों की रचना की है। 

न्याय दर्शन के अन्य प्रमुख प्रवर्तक 

  • भासर्वज्ञ - 10 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' नामक प्रमाणाधारित प्रकरण ग्रन्थ की रचना की है जो कि अपनी मौलिक एवं नवीन उद्भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है। 
  • वरदराज - इनके ग्रन्थ का नाम ‘तार्किकरक्षा' है तथा इनका समय 1150 ई. का है। यह वैशेषिकपदार्थसमावेष्टा न्याय का प्रकरण ग्रन्थ है। 
  • केशव मिश्र - मिथिला के इस प्रसिद्ध नैयायिक ने 13 वीं शताब्दी में 'तर्कभाषा' की रचना की है जिसे न्यायदर्शन में प्रवेश का द्वार माना जाता है। 

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न्याय दर्शन के महत्वपूर्ण टॉपिक 

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

Monday, June 13, 2022

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy 

   तिब्बती बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म की महायान शाखा की एक उपशाखा है जो तिब्बत, मंगोलिया, भूटान, उत्तर नेपाल, उत्तर भारत के लद्दाख़, अरुणाचल प्रदेश, लाहौल व स्पीति ज़िले और सिक्किम क्षेत्रों, रूस के कालमिकिया, तूवा और बुर्यातिया क्षेत्रों और पूर्वोत्तरी चीन में प्रचलित है। तिब्बती इस समप्रदाय की धार्मिक भाषा है और इसके अधिकतर धर्मग्रन्थ तिब्बती व संस्कृत में ही लिखे हुए हैं। वर्तमानकाल में 14वें दलाई लामा इसके सबसे बड़े धार्मिक नेता हैं।

    तिब्बती बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं है – निमिंगम, काग्यू, शाक्य और गेलुग। इसके साथ-साथ तिब्बती बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व को प्राप्त करने के लिए पाँच मार्गों का वर्णन है –

  1. संचय का मार्ग
  2. तैयारी का मार्ग
  3. देखने का मार्ग
  4. ध्यान का मार्ग
  5. अधिक सीखने का मार्ग।

   तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासन काल में किया गया था। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा ‘निंगमा’ अर्थात प्राचीन युग का संस्थापक माना जाता है।

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बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

    भारत में प्राचीन काल से ही दो मुख्य परम्पराएं देखने को मिलती है। एक ब्रह्मण परम्परा और दूसरी श्रमण परम्परा। ब्रह्मण परम्परा के उपासक मूलतः ब्रह्मण जाति के लोग थे जो वेदों को प्रमुख स्रोत मानते थे और उसे ईश्वरीय ज्ञान का आधार मानते थे। वे वैदिक देवताओं की पूजा-अर्चना करते थे। वे कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थे तथा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करते थे। किन्तु श्रमण-परम्परा को मानने वालों ने वेदों के स्थान पर लोक-प्रचलित मान्यताओं, कथाओं को अपनाया। वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर चिन्तन, मनन, तप, संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ समझा। बौद्ध धर्म और जैन धर्म इसी श्रमण-परम्परा के अनुगामी सिद्ध हुए एवं इन्हीं धर्मों से निःसृत कथाएं, उपदेशोंक्तियाँ आदि बौद्ध कथा/जातक कथा, जैन कथा/आगम कथा की संज्ञा दी गई।

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बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism

बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism

बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism 

    बुद्ध के द्वितीय आर्य सत्य अर्थात दुःख समुदय को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। इसका अर्थ – दुःख के कारण को खोज करना है। यदि एक बार कारण को खोज लिया जाए तो निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। बुद्ध का दर्शन दुःख से निवारण का मार्ग है। अतः बुद्ध ने सर्वप्रथम दुःख के कारणों को खोज और द्वादश निदान संसार के लोगों को बताए जो इस प्रकार है –

  1. जरा-मरण अर्थात वृद्धा अवस्था। 
  2. जाति अर्थात जन्म लेना।
  3. भव अर्थात जन्म ग्रहण करने की इच्छा।
  4. उपादान अर्थात जगत की वस्तुओं के प्रति राग एवं मोह।
  5. तृष्णा अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति।
  6. वेदना अर्थात अनुभूति
  7. स्पर्श अर्थात इन्द्रियों का विषयों से संयोग
  8. षडायतन अर्थात छः इन्द्रिय समूह या शरीर
  9. नामरुप अर्थात मन के साथ शरीर सम्बन्ध।
  10. विज्ञान अर्थात चेतना
  11. संस्कार अर्थात पूर्व जन्मों के फल
  12. अविद्या अर्थात अनित्य को नित्य, असत्य को सत्य और अनात्म को आत्म समझना।

    इस प्रकार इन 12 कारणों से दुःख उत्पन्न होता है। बुद्ध ने दुःख निरोध के लिए 8 उपाय कहे है जिन्हें अष्टांग मार्ग कहते है। ये निम्नलिखित है –

  1. सम्यक् दृष्टि अर्थात सही दृष्टिकोण होना।
  2. सम्यक् संकल्प अर्थात सही सोच रखना। 
  3. सम्यक् वाक् अर्थात सही बोलना।
  4. सम्यक् कर्मांत अर्थात सही कर्म करना।
  5. सम्यक् आजीव अर्थात सही जीविकोपार्जन करना।
  6. सम्यक् व्यायाम अर्थात सही श्रम करना।
  7. सम्यक् स्मृति अर्थात सही सोच रखना।
  8. सम्यक् समाधि अर्थात ध्यान करना।

सम्यक् समाधि की चार अवस्थाएं काही गई है –

  1. प्रथम अवस्था – साधक चार आर्य सत्यों पर तर्क-वितर्क करें।
  2. द्वितीय अवस्था – साधक चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा रखे।
  3. तृतीय अवस्था – साधक मन में आनन्द के प्रति उपेक्षा का भाव रखे।
  4. चतुर्थ अवस्था – साधक चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध करें।

    इस प्रकार इस अष्टांग मार्ग का अनुसरण कर साधक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। इन उपरोक्त 8 मार्ग के अतिरिक्त बुद्ध ने साधक को तीन शिक्षा भी दी है जिन्हें बुद्ध की त्रिशिक्षा कहते है। ये है – शील, समाधि और प्रज्ञा।

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बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

 बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

    ‘चार आर्य सत्य’ गौतम बुद्ध के व्यवहारिक दर्शन को प्रकट करने वाला विचार है। इन चरों आर्य सत्यों में दुःख क्या है तथा उसका निवारण कैसे हो पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध संसार के लोगों से पूछते है की “अंधकार से घिरे हुए तुम लोग दीपक क्यों नहीं खोजते हो? और कहते है कि 'अप्प दीपो भव' अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनो। अतः दीपक खोजने से स्वयं दीपक बनने का दर्शन इन चार आर्य सत्यों में निहित है जिसका वर्णन इस प्रकार है –

  1. प्रथम आर्य सत्य – सर्वं दुःखम् अर्थात सब और दुःख है।
  2. द्वितीय आर्य सत्य – दुःख समुदयः अर्थात दुःख के कारण
  3. तृतीय आर्य सत्य – दुःख निरोधः अर्थात दुःख का नाश हो सकता है।
  4. चतुर्थ आर्य सत्य – दुःख निरोगमिनी प्रतिपद् अर्थात दुःखनिरोध का मार्ग।

    वृद्ध, रोगी एवं मृत व्यक्ति को देखकर बुद्ध सर्वस्व दुःख की अनुभूति हुई और उन्होंने दुनिया के लोगों को कहा कि “हमारी अनादिकाल से चली आने वाली इस महायात्रा में हमने जीतने आँसू बहाए है वह चार महासागरों के जल से अधिक है”। आगे वे कहते है कि “दुःख तो संसार में ऐसे घुला-मिला है जैसे समुद्र के पानी में नमक होता है”। इसलिए बुद्ध संसार के लोगों से पूछते है कि “संसार में आग लगी है तब आनन्द मनाने का अवसर कहाँ है? बस इसी भाव में यह प्रथम आर्य सत्य दिया। इस दुःख का मुख्य कारण बुद्ध ने तृष्णा कहा है। बुद्ध कहते है “हे भिक्षुओं, तृष्णा या वासना ही दुःख का मूल कारण है, यह प्रबल तृष्णा ही है जिसके कारण बार-बार जन्म होता है और उसी के साथ इन्द्रिय सुख आते है, जिसकी पूर्ति जहाँ-तहाँ से हो जाती है”। यह तृष्णा तीन प्रकार की है –

  1. भव तृष्णा अर्थात जीवित रहने की इच्छा।
  2. विभव तृष्णा अर्थात वैभव प्राप्त करने की इच्छा।
  3. काम तृष्णा अर्थात इन्द्रिय सुख की इच्छा ।

    इसी तृष्णा को कारण बताकर बुद्ध ने दूसरे आर्य सत्य का उपदेश दिया है और तीसरे उपदेश में कहा है कि इस तृष्णा को समाप्त किया जा सकता है अर्थात दुःख का नाश हो सकता है। बुद्ध संसार के लोगों से कहते है कि “जो भयंकर तृष्णा को जीत लेता है, उससे दुःख कमल-पत्र से भरे जल की बूंदों के समान दूर हो जाते है। तृष्णा की जड़ों को खोद डालो ताकि वह ललचाने वाली तुम्हें बार-बार न पिसे”। इस भयंकर तृष्णा को समाप्त करने के लिए बुद्ध ने संसार को चौथा उपदेश दिया और कहा कि अपने जीवन को अष्टांग मार्ग पर ले चलो। यह अष्टांग मार्ग तुम्हें अविद्या से निर्वाण अर्थात मोक्ष की और ले जाएगा। इस अष्टांग मार्ग के साधक के लिए बुद्ध भिक्षुकों को त्रिशिक्षा का उपदेश देते है– शील, समाधि और प्रज्ञा। यही वह विशुद्ध मार्ग है जिसपर चलकर तृष्णा को पूर्णतः जीता जा सकता है।

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बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

 

बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

    बौद्ध दर्शन का 4 शाखाओं में जो वर्गीकरण हुआ है इसके पीछे दो प्रश्न विद्यमान हैं, एक अस्तित्व संबंधीय और दूसरा ज्ञान संबंधी। अस्तित्व संबंधित प्रश्न यह है कि, मानसिक या बाह्य कोई वस्तु है या नहीं ? इस प्रश्न के तीन उत्तर दिए गए हैं - पहला माध्यमिकों के अनुसार कि ‘मानसिक या बाह्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। सभी शून्य है’। अतः ये शून्यवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरा योगाचारों के अनुसार ‘मानसिक अवस्थाएं या विज्ञान ही एक मात्र सत्य है। बाह्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं है’। अतः योगाचार विज्ञानवादी के नाम से प्रसिद्ध है। तीसरा, कुछ बौद्ध यह मानते हैं कि ‘मानसिक तथा बाह्य सभी वस्तुएं सत्य हैं। अतः यह वस्तुवादी हैं’। ये सर्वास्तिवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। बाहरी वस्तुओं के ज्ञान के लिए क्या प्रमाण है ? सर्वास्तित्ववादी अर्थात जो वस्तुओं की सत्ता को मानते हैं इस प्रश्न के दो उत्तर देते हैं। कुछ जो सौत्रांतिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, यह मानते हैं कि ‘वह वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। उनका ज्ञान अनुमान के द्वारा ही होता है’। दूसरे जो वैभाषिक नाम से विख्यात हैं वे कहते हैं कि ‘बाह्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा भी प्राप्त होता है’। अब इनका प्रमुख संप्रदायों का वर्णन करते हैं -

  1. शून्यवाद - शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन का जन्म दूसरी शताब्दी में दक्षिण भारत के एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। बुद्धचरित के प्रणेता अश्वघोष भी शून्यवाद के समर्थक थे। नागार्जुन की मूल माध्यमिक कारिका ही इस मत की आधारशिला है। आर्यदेव की चतुःशतिका भी एक और प्रधान ग्रंथ है। माध्यमिक शून्यवाद को भारतीय दर्शन में कभी-कभी सर्ववैनाशिकवाद भी कहा गया है क्योंकि इसके अनुसार किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। किंतु यदि हम माध्यमिक दर्शन का विचार पूर्वक अध्ययन करें तो हम देख सकते हैं कि माध्यमिक मत वस्तुतः वैनाशिकवाद नहीं है। यह तो केवल इंद्रियों से प्रत्यक्ष जगत् को असत्य मानता है। प्रत्यक्ष जगत से परमार्थी सत्ता अवश्य है लेकिन वह अवर्णनीय है उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि वह मानसिक है या बाह्य। साधारण लौकिक विचारों के द्वारा अवर्णनीय होने के कारण उसे शून्य कहते हैं। इन विचारों से स्पष्ट है कि पारमार्थिक सत्ता या परम तत्व बिल्कुल अवर्णनीय है। इस वर्णनातीत तत्व को शून्यता कहते हैं।
  2. योगाचार विज्ञानवाद - योगाचार विज्ञानवाद के अनुसार चित्त ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञान के प्रवाह को ही चित्त कहते हैं। हमारे शरीर तथा अन्यान्य पदार्थ जो मन के बहिर्गत मालूम पड़ते हैं वे सभी हमारे मन के अंतर्गत हैं। जिस तरह स्वप्न या मतिभ्रम की अवस्था में हम वस्तुओं को बाह्य समझते हैं यद्यपि वे मन के अंतर्गत ही रहती हैं, उसी तरह साधारण मानसिक अवस्थाओं में भी जो पदार्थ बाह्य प्रतीत होते हैं वे विज्ञान मात्र हैं। किसी वस्तु में तथा तत्संबंधी ज्ञान में भेद सिद्ध नहीं किया जा सका है इसलिए बाह्य वस्तु का अस्तित्व बिल्कुल असिद्ध है।
  3. सौत्रांतिक - सौत्रांतिक चित्त तथा बाह्य जगत् दोनों को ही मानते हैं। उनका कथन है कि यदि बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को नहीं माना जाए तो वह वस्तु की प्रतीति कैसे होती है इसका प्रतिपादन हम नहीं कर सकते हैं। जिसने बाह्य वस्तु को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा है वह यह नहीं कह सकता कि भ्रमवश अपनी मानसिक अवस्था ही बाह्य वस्तु के सदृश प्रतीत होती है इसके लिए बाह्य वस्तु के सदृश यह कहना उसी तरह अर्थहीन है जिस तरह बंध्यापुत्र विज्ञानवादियों के अनुसार वस्तु की तो कोई सत्ता ही नहीं है। अतः बाह्य वस्तु का न तो कोई ज्ञान हो सकता है न ही उसके साथ किसी की तुलना ही की जा सकती है। सौत्रांतिक कहते हैं कि यह सही है कि वस्तु के वर्तमान रहने पर ही उसका प्रत्यक्ष होता है किंतु वस्तु और उसका ज्ञान समकालीन है इसलिए अभिन्न है, यह युक्ति ठीक नहीं है। जब हमें घट का प्रत्यक्ष होता है तो घट हमारे बाहर है और ज्ञान अंदर है, इसका स्पष्ट अनुभव होता है।
  4. वैभाषिक - सौत्रांतिक की तरह ही वैभाषिक भी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को मानते हैं। किंतु आधुनिक नव्य वस्तु वादियों की तरह यह कहते हैं कि वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते हैं कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते हैं। किंतु यह इसलिए संभव होता है कि अतीत में हमने आग और धुआं एक साथ देखा है। जिसने भी दोनों को एक साथ कभी नहीं देखा वह धुंआ देखकर आग का अनुमान नहीं कर सकता। यदि बाह्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष कभी नहीं हुआ रहे तो केवल मानसिक परिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। जिसने कभी कोई वस्तु नहीं देखी है वह यह नहीं समझ सकता कि कोई मानसिक अवस्था किसी वस्तु का प्रतिरूप है। प्रत्युत् वह तो यह समझेगा कि मानसिक अवस्था ही मौलिक और स्वतंत्र सत्ता है, उसका अस्तित्व किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। अतः, या तो हमें विज्ञानवाद को स्वीकार करना होगा या मानना होगा कि वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान ही संभव है। अतः वैभाषिक मत को बाह्यप्रत्यक्षवाद कहते हैं। अभिधर्म पर महाविभाषा या विभाषा नाम की प्रकांड टीका इस मत का मूल अवलंबन थी इसलिए इसका नाम वैभाषिक पड़ा।

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बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

 

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

बौद्ध दर्शन के संप्रदाय (Sampradaya)

     महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या आगे चलकर बहुत बढ़ गई और ये कई संप्रदायों में विभक्त हो गए। धार्मिक मतभेद के कारण बौद्ध धर्म की दो शाखाएं कायम हुईं जो हीनयान तथा महायान के नाम से प्रसिद्ध हैं। हीनयान का प्रचार भारत के दक्षिण में हुआ। इसका अधिक प्रचार श्रीलंका थाईलैंड में है। पालि त्रिपिटक ही हीनयान के प्रधान ग्रंथ हैं। महायान का प्रचार अधिकतर उत्तर के देशों में हुआ है, इसके अनुयाई तिब्बत, चीन तथा जापान में अधिक पाए जाते हैं। महायान का दार्शनिक विवेचन संस्कृत में हुआ है। अतः इसके ग्रंथों की भाषा संस्कृत है।

    बुद्ध निर्वाण के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में संपन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर (स्थविरवादी) भिक्षुओं ने मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को पापभिक्खु कह कर संघ से बाहर निकाल दिया था। उन भिक्षुओं ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को महासांघिक और थेरवादियों को हीनसांधिक नाम दिया। जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप धारण किया। थेरवाद से महायान संप्रदायों के क्रमशः विकास में कई शताब्दियाँ लगीं। सम्राट अशोक द्वारा लगभग 249 ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र में आहूत तृतीय बौद्ध संगीति में पाली तिपिटक का संकलन हुआ जिसका प्रचार अशोक के पुत्र महेंद्र द्वारा श्रीलंका में किया गया जो अभी तक वहाँ प्रचलित हैं।

    श्रीलंका में प्रथम शती ई.पू. में पाली तिपिटक को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया। यही पालि तिपिटक (त्रिपिटक) अब सर्वाधिक प्राचीन त्रिपिटक के रूप में उपलब्ध हैं। तृतीय संगीति के बाद से ही भारत में थेरवाद धीरे-धीरे लुप्त होता गया और उसका स्थान सर्वास्तिवाद या वैभाषिक समुदाय ले लिया, इसका त्रिपिटक और उसकी टीकाएं आदि संस्कृत में थीं जो मूल में नष्ट हो गई थी तथा चीनी अनुवाद में सुरक्षित हैं। अश्वघोष के ग्रंथों में तथा महायानवैपुल्यसूत्रों में क्रमशः विकसित होकर महायान नागार्जुन के माध्यमिक और असंग के योगाचार संप्रदायों के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। हीनयान में बुद्ध के उपदेशों का मर्म ना समझने के कारण क्षणिक धर्मों को ही सत्य मानकर बहुत्ववादी वस्तुवाद का विकास हुआ जिसके अनुसार पुद्गलनैरात्म्य द्वारा क्लेशावरण के क्षय पर बल दिया गया। महायान में, बुद्ध के उपदेशों के तात्विक अर्थ के आधार पर पुद्गल या जीवात्मा के साथ-साथ भौतिक धर्मों की भी प्रातीतिक सत्ता और तात्विक असत्ता को स्वीकार करके पुद्गल नैरात्म्य के साथ धर्मनैरात्म्य का भी प्रतिपादन किया गया एवं क्लेशावरण क्षय के साथ साथ ज्ञेयावरण क्षय पर भी बल दिया गया है। हीनयान के अनुसार बुद्ध एक महापुरुष थे जिन्होंने अपने प्रयत्नों से निर्वाण प्राप्त किया और निर्वाण प्राप्ति के मार्ग का उपदेश दिया। महायान में बुद्ध को लोकोत्तर तथा ईश्वर स्थानापन्न बना दिया गया। बुद्ध के अवतारों की कल्पना की गई। त्रिकाल के सिद्धांत को विकसित किया गया। बुद्ध भक्ति की प्रतिष्ठा हुई। लोक कल्याण की भावना और महाकरुणा का विकास हुआ।

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बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

     बौद्ध दर्शन का परिचय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध थे जो बचपन में सिद्धार्थ कहलाते थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हिमालय तराई के कपिलवस्तु नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। जन्म-मरण के दृश्यों को देखने से उनके मन में विश्वास पैदा हुआ कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है। अतः दुःख से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने सन्यास ग्रहण किया। सन्यासी बन कर इन्होंने दुःखों के मूल कारणों को तथा उनसे मुक्त होने के उपायों को जानने का प्रयास किया। बुद्ध का समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी कहा जाता है। उनके जन्म का वर्ष बौद्ध परंपरा अनुसार लगभग 624 ईसा पूर्व तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 566 ईसा पूर्व के आसपास होना चाहिए। किंतु यह सिद्ध है कि भगवान बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग और परिव्राजकत्व) से लेकर महापरिनिर्वाण तक का समय छठी सदी ईसा पूर्व है। संन्यास के बाद 6 वर्षों की कठिन तपस्या और साधना के बाद लगभग 35 वर्ष की आयु में गया के समीप बोधि वृक्ष के नीचे अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञानसूर्य का साक्षात्कार कर 'सम्यक् संबुद्ध' बने। फिर वे वाराणसी के पास ऋषिपत्तन में सारनाथ गए और वहाँ पांच भिक्षुओं को उन्होंने अपना शिष्य बना कर अपने साक्षात्कृत सत्य का सर्वप्रथम उपदेश दिया, जिसे धर्मचक्रप्रवर्तन की संज्ञा दी गई है। यहीं से बौद्ध धर्म का प्रारंभ हुआ।

बौद्ध दर्शन का साहित्य

    बौद्ध दर्शन का साहित्य बौद्ध दर्शन का साहित्य त्रिपिटकों में संग्रहीत है। त्रिपिटकों के अंतर्गत विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का, सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालाप और उपदेशों तथा अभिधम्म पिटक में दार्शनिक विचारों का संग्रह हुआ है। इन पिटको में केवल प्राचीन बौद्ध धर्म का वर्णन मिलता है। इनकी भाषा पालि है।

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Sunday, June 12, 2022

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

    जैन दर्शन ज्ञान के दो भेद मानते हैं - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। इंद्रियों को मन के द्वारा जो बाह्य एवं अभ्यंतर विषयों का ज्ञान होता है वह अनुमान की अपेक्षा अवश्य अपरोक्ष होता है। किंतु ऐसे ज्ञान को पूर्णतया अपरोक्ष नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह भी इंद्रिय या मन के द्वारा होता है। इस व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान के अतिरिक्त पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान भी हो सकता है जिसकी प्राप्ति कर्म बंधन के नष्ट होने पर ही होती है। परमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं - अवधि, मनः पर्याय तथा केवल।

  1. अवधि ज्ञान - इंद्रिय द्वारा अदृष्ट दूर स्थित पदार्थों का ज्ञान अवधि ज्ञान कहलाता है। यह अतींद्रिय है। काल से सीमित होने के कारण ही यह अवधि ज्ञान कहलाता।
  2. मनः पर्याय - जब मनुष्य राग, द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है1 ऐसे ज्ञान को मनः पर्याय ज्ञान कहते हैं। अवधि और मनः पर्याय दोनों ज्ञान सीमित हैं।
  3. केवल ज्ञान - केवल ज्ञान का अर्थ है - शुद्ध सर्वज्ञ ज्ञान। जब आत्मा के समस्त आवरणीय कर्मों का आत्यंतिक नाश हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध सर्वज्ञ रूप में प्रकाशित होता है। इसे 'केवल ज्ञान' कहते हैं। यही शुद्ध अपरोक्ष ज्ञान है जिसे हेमचंद्राचार्य ने आत्मा के ‘स्वरूप आविर्भाव' की संज्ञा दी है और जिसे आचार्य गुणरत्न ने ‘पारमार्थिक प्रत्यक्ष’ कहा है। यह मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है।

लौकिक ज्ञान 

मति और श्रुत - साधारणतः मतिज्ञान उसे कहते हैं जो इंद्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार मति के अंतर्गत व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा आंतर (प्रत्यक्ष, स्मृति), प्रत्यभिज्ञा, अनुमान सभी आ जाते हैं। श्रुत ‘शब्द ज्ञान' को कहते हैं। जैन तीर्थंकरों के उद्देश्यों एवं जैन आगमों से प्राप्त ज्ञान श्रुत ज्ञान है। यह शास्त्रनिबद्ध ज्ञान है अर्थात आप्त पुरुषों द्वारा रचित शास्त्रों से जो मतिपूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है वह श्रुत ज्ञान है। इसमें मति कारण रूप में होता है और शुद्ध ज्ञान कार्य रूप में क्योंकि शब्द श्रवण रूप व्यापार मति ज्ञान है और तदनंतर उत्पन्न होने वाला ज्ञान और श्रुत ज्ञान है ।

प्रत्यक्ष प्रमाण 

जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष परमार्थिक प्रत्यक्ष है जिसकी प्राप्ति हेतु किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसमें विषय का सीधा प्रत्यक्ष होता है। यह कर्म जन्य बाधाओं के दूर होने पर संभव होता है। हेतु एक व्यापक साधना पद्धति विकसित की गई है। जैन दर्शन में एक अन्य प्रत्यक्ष की भी चर्चा की गई है। वह व्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान है एवं अन्य विषय के साथ होने पर प्राप्त होता है। उसमें से साधक को गुजरना पड़ता है जो इस प्रकार हैं –

  1. अवग्रह - इंद्रिय और विषय का संघर्ष होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्रा का ज्ञान व ग्रह है जैसे नेत्र का पुष्प से संघर्ष होने पर प्रतीत होना कि कोई वस्तु है, किंतु यह ज्ञात ना हो ना कि वह क्या है अवग्रह है। अवग्रह के भी भेद होते हैं - व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यंजनावग्रह अर्थ और इंद्रियों के संयोग के पूर्व का अव्यक्त ज्ञान है। इसमें चेतनावर्धक विषय का प्रभाव इंद्रियों की परिधिस्थ उपान्तों पर पड़ता है जिससे विषयी विषय के संपर्क में आता है । अर्थावग्रह में चेतना को उत्तेजना मिलती है और एक संवेदना का अनुभव होता है। इससे व्यक्ति को विषय का ज्ञान मात्र होता है ।
  2. ईहा - अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा 'ईहा' है। इसमें मन प्रमेय विषय का विवरण जानने की इच्छा करता है। वह अन्य विषयों के साथ उसका सादृश्य एवं विभेद जानना चाहता है, गुणों को जानने की इच्छा होना 'ईहा' है। जैसे मन में पुष्प के गुणों को जानने की इच्छा ‘ईहा’ है। 
  3. अवाय - ईहितार्थ का विशेष निर्णय 'अवाय' है। इस अवस्था में दृश्य विषय के गुणों का निश्चायक एवं निर्णायक ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे - यह रक्त कमल है, दृश्य विषय का यह निश्चायक अज्ञान 'आवाय' है।
  4. धारणा - इस अवस्था में दृश्य विषय का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और इसका संस्कार जीव के अंतःकरण में अंकित हो जाता है। कालांतर में इसी से स्मृति उत्पन्न होती है। अतः जैन दार्शनिक स्मृति के हेतु के रूप में धारणा की व्याख्या करते हैं।

उपर्युक्त चारों अवस्थाओं से संक्रमित होने के उपरांत प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।

अनुमान प्रमाण 

    जैन दार्शनिक अनुमान को भी यथार्थ ज्ञान का प्रमाण मानते हैं। वे सर्वप्रथम चार्वाक दार्शनिकों की अनुमान प्रमाण खण्डन वृत्ति की आलोचना करते हैं और यथार्थ ज्ञान के प्रमाण के रूप में अनुमान के प्रमाणत्व को स्थापित करते हैं। जैन दार्शनिकों ने दिखाया कि चार्वाक विचारक व्याप्ति का निराकरण कर के अनुमान का खंडन करना चाहते हैं किंतु ‘प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है अनुमान प्रमाण नहीं है' उनके ये कथन उनकी इस आस्था की ओर संकेत करते हैं कि कतिपय दृष्टांतों में व्याप्ति संभव है। इस प्रकार चार्वाकों द्वारा व्याप्ति का निराकरण तथा उसके आधार पर अनुमान के प्रमाण पत्र का निषेध अनुचित है।

    अनुमान एक परोक्ष ज्ञान है जिसमें हेतु के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे पर्वत पर धुएं को देखकर वहाँ का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान से ही संभव है। जैन दार्शनिक भी अनुमान के दो भेद स्वीकार करते हैं - स्वार्थ और परार्थ। अपने संशय को दूर करने के लिए किया गया अनुमान स्वार्थ अनुमान और दूसरों की संशय निवृत्ति के लिए व्यवस्थित तरीके से व्यक्त किया गया अनुमान परार्थानुमान है। जहाँ जैन तर्कशास्त्री सिद्धसेन दिवाकर न्याय दार्शनिकों के समान ही अनुमान में 5 अवयव स्वीकार करते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन। भद्रबाहु अनुमान में दशावयव मानते हैं प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा विभक्ति, हेतु, हेतु विभक्ति, विपक्ष, विपक्ष प्रतिषेध, दृष्टांत, आशंका, आशंका प्रतिषेध और निगमन।

शब्द प्रमाण 

    शब्द प्रमाण भी जैन दर्शन में एक परोक्ष प्रमाण है। ज्ञान शब्द प्रमाण से ही प्राप्त होता है जो ज्ञान शब्द के द्वारा प्राप्त हो किंतु प्रत्यक्ष के विरुद्ध हो वह शब्द प्रमाण है। जैन दर्शन में शब्द प्रमाण के दो भेद किए जाते हैं - लौकिक और शास्त्र । विश्वसनीय व्यक्तियों के शब्दों एवं वचनों से प्राप्त ज्ञान और शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को जैन दार्शनिक शास्त्रज ज्ञान कहते है।

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जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

जैन दर्शन का नयवाद /Nayvad of Jain Philosophy

    जैन दर्शन का नयवाद सप्तभंगी नय सिद्धान्त के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्याद्वाद का पूरक सिद्धान्त हैं। क्योंकि जैन दर्शन में वस्तु को अनन्त धर्मात्मकम् कहा है अतः प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में कहा गया कथन उसके किसी विशेष धर्म को ही इंगित करता है । इस तरह वह आंशिक सत्य होता है। इसे ही नय कहते हैं। इस तरह 'नय' किसी वस्तु के संबंध में सापेक्ष अथवा आंशिक कथन है। चूँकि धर्म अनन्त है, अतः नय भी अनन्त होने चाहिए। परंतु अनन्त नयों की अलग-अलग अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है। केवल सात प्रकार से इन अनन्त धर्मों की अभिव्यक्ति सम्भव है। इन सात प्रकार के नय वाक्यों को ही जैन दार्शनिक 'सप्तभंगी नय' नामक सिद्धान्त कहते हैं जो इस प्रकार है -

  1. स्यात् अस्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य हैं।
  2. स्यात् नास्ति - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं हैं।
  3. स्यात् आस्ति च नास्ति च - अर्थात किसी अपेक्षा से द्रव्य है और नहीं भी है।
  4. स्यात् अव्यक्तव्य - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य ऐसा है जिसके बारे में कुछ निश्चित नहीं जा सकता है अर्थात् अव्यक्तव्य हैं।
  5. स्यात् अस्ति च अव्यक्तव्यम् च - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य है, किन्तु ऐसा है जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
  6. स्यात् नास्ति च अव्यक्तवयम् च - अर्थात् किसी अपेक्षा से द्रव्य नहीं है, किन्तु यह ऐसा जिसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
  7. स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च - अथर्सात् किसी अपेक्षा से द्रव्य है, नहीं भी है और वह ऐसा है जिसके बारे में कुछ कहा जा सकता।

*श्रमण बौद्धों ने जैन दर्शन के नय सिद्धान्त को ‘पागलों का प्रलाप’ कहा है।

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जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

    जैन दर्शन का स्यादवाद अनेकांतवादी सिद्धान्त पर ही आधारित एक सिद्धान्त है। परन्तु जहाँ अनेकांतवाद जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से सम्बन्धित है वहीं स्यादवाद ज्ञानमीमांस से सम्बन्धित है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ – ‘किसी अपेक्षा से’ या ‘किसी दृष्टि में’ लिया गया है। इसे एक शब्द में ‘कथंचित’ भी कहा जा सकता है। इस प्रकार किसी भी वाक्य में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का अर्थ है कि वह किसी विशेष दृष्टि या अपेक्षा से सत्य है। इस प्रकार जैन दर्शन का स्यादवाद एक प्रकार से सापेक्षवाद ही है। 

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जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

 जैन दर्शन का अनेकांतवाद / Anekantavada of Jain Philosophy

    जैन दर्शन के अनुसार, - द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण किसी एक दृष्टि से नहीं किया जा सकता बल्कि यह कार्य अनेक दृष्टि से ही सम्भव है – ‘न एकांतः अनेकांतः”। इस आधार पर जैन दर्शन जैन दर्शन कहता है – “अनन्त धर्मकं वस्तु” अर्थात प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मों से युक्त है। द्रव्यों में ये अनन्त धर्म दो प्रकार से विभाग है – नित्य धर्म अर्थात स्वरूप धर्म और अनित्य धर्म अर्थात आगंतुक धर्म। इन दोनों प्रकार के धर्मों को क्रमशः गुण और पर्याय कहा गया है। एक सामान्य व्यक्ति द्रव्य के इन अनन्त धर्मों को नहीं जान सकता परन्तु केवली अर्थात जिसने कैवल्य प्राप्त कर लिए वह द्रव्य के सभी धर्मों का ज्ञाता होता है।

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जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

 

जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

जैन दर्शन में जीव और अजीव / Jiva and Ajiva in Jain Philosophy

    जैन दर्शन में जीव एक चेतन द्रव्य है। इसे ही जैन दर्शन में आत्मा माना गया है। चैतन्य जीव का स्वरूपधर्म अर्थात गुण है – “चैतन्य लक्षणों जीवः”। प्रत्येक जीव स्वरूप से अनन्त चतुष्टय सम्पन्न है अर्थात उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य है। कर्ममल से संयुक्त होने के कारण जीवों पर कर्मफल का आवरण पड़ जाता है। जिस कारण जीव में स्वरूप धर्मों का प्रकाशन नहीं हो पाता। इन गुणों के तारतम्य के कारण जीवों में अनन्त भेद हो जाते है।

    जैन दर्शन जीवों में गुणात्मक भेद नहीं मानता, केवल मात्रात्मक भेद मानता है। जैन दर्शन में जीव में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष बताया गया है। अर्थात सबसे निकृष्ट जीव एक इंद्रिय होते है जो भौतिक जड़ तत्व में रहते है और निष्प्राण प्रतीत होते है किन्तु इनमें भी प्राण तथा चैतन्य सुप्तावस्था में विद्यमान है। वनस्पति जगत के जीवों में चैतन्य तन्द्रिल अवस्था में तथा मर्त्यलोक के क्षुद्र कीटों, चीटियों, मक्खियों, पक्षियों, पशुओं और मानवों में चैतन्य का उत्तरोत्तर उत्कर्ष पाया जाता है।

     जैन दर्शन में जीव को ज्ञाता, करता और भोक्ता माना गया है। ज्ञान जीव का स्वरूप गुण है। यह अस्तिकाय द्रव्य है। यह न विभु है और न ही अणु है। यह शरीरपरिणामी है अर्थात जैसे जीव का शरीर है वैसा ही इसका विस्तार है। इसका विस्तार आकाश में पुदगल के समान नहीं होता बल्कि दीपक के प्रकाश के समान होता है।

जीव के प्रकार 

    जैन-दर्शन में जीव के प्रकारों का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है । यहाँ माना गया है कि स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान एवं अनन्त सामर्थ्य से युक्त होते हुए भी पूर्वजन्मों के कर्मफल के कारण प्रत्येक जीव को चेतना का विकास एक समान नहीं होता। इसी आधर पर जैन-दर्शन में जीव के अनेक प्रकार बताए गये हैं । सबसे पहले तो बद्ध और मुक्त ये दो जीव के प्रकार हैं –

1.    मुक्त जीव

      वस्तुत : ये अन्य जीवों से एकदम अलग होते हैं क्योंकि अन्य जीवों के समान ये शरीर नहीं धारण करते। इनमें प्रकृति का लेशमात्र भी तत्त्व नहीं रहता। इनमें परिवत्रता और असीम चेतना होती है। इन्हें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य एवं अनन्त सुख प्राप्त है।

2.   बद्ध जीव 

    जीवन चक्र में घूमने वाले शरीर बद्ध जीव कहे गये है। अज्ञान के कारण स्वयं को प्रकृति के समान समझने वाले ये जीव दो प्रकार के होते है- स्थावर जीव और जंगम जीव। 

  • स्थावर जीव- स्थावर याने एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव। ये इन्द्रियगोचर नहीं होते अर्थात् हम उन्हें अपनी इन्द्रियों के द्वारा नहीं जान सकते। ये स्वयं ऐकेन्द्रिय अर्थात् एक ही इन्द्रिय रखने वाले होते हैं। इनमें आत्मिक शक्ति का विकास बहुत ही कम होता है। इनके भी स्थान के अनुसार पाँच प्रकार बताये गये हैं- (1) पृथ्वीकाय, (2) जलकाय (3) अग्निकाय, (4) वायुकाय, (5) वनस्पति काय। अर्थात् पृथ्वी, जल आदि में रहने वाले जीव।
  • जंगमजीव - ये उद्देश्यपूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने में समर्थ होते हैं। इन्द्रियों की संख्या के आधार पर ये पाँच प्रकार के बताये गये हैं –

  1. एकेन्द्रि जीव - इसमें केवल एक इन्द्रिय युक्त जीव आते हैं।
  2. द्वीन्द्रिय जीव - स्पर्श और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त जीवों में कृमि, शंख जैसे जीव आते हैं।
  3. त्रिन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त जीवों में चींटी, पतंगे जैसे जीव आते हैं।
  4. चतुरिन्द्रिय जीव - स्पर्श रसना, घ्राण और नेत्र इन चार इन्द्रियों युक्त जीवों में भ्रमर, मच्छर जैसे जीव आते हैं।
  5. पंचेन्द्रिय जीव - स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और श्रवण इन पाँच इन्द्रियों से युक्त जीवों में मछली जैसे जलचर, हाथी जैसे थलचर और पक्षी जैसे नभचर प्राणी आते हैं। मनुष्य भी इसी श्रेणी में आते हैं।

जैन दर्शन में अजीव

जैन दर्शन में चार प्रकार के अजीव तत्वों का वर्णन किया गया है – पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश।

  1. पुद्गल (Material Substance) - पुद्गल का शाब्दिक अर्थ है- 'पूरयन्ति गलन्ति च’ अर्थात् जिसका संयोग और विभाजन होता है, वह पुद्गल है। पुद्गल की इसी विशेषता के कारण पुद्गल कण जुड़कर आकार बनाने में सफल होते हैं और बड़े आकार को तोड़कर छोटे-छोटे कणों में बाँटा जा सकता हैं। अणु और संघात्- पुद्गल के लघुतम् कण को अर्थात् जिसे और आगे न तोड़ा जा सके अणु या परमाणु कहा गया है। दो या दो से अधिक अणुओं से जुड़कर बनने वाले पदार्थ को संघात् कहते हैं। परमाणु आकारहीन एवं अनादि होते हैं। यह अतिसूक्ष्म एवं निरपेक्ष पर सत्ता है। इनमें परस्पर आकर्षण शक्ति होती है जिससे भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति होती है। भौतिक जगत् में परिवर्तन अणुओं के विश्लेषण एवं संश्लेषण के कारण होते हैं। इन अणुओं को हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते किन्तु स्कन्धों को देख सकते हैं। पुद्गल के गुण-जैन दर्शन में पुद्गल के चार गुण माने गये हैं - स्पर्श, स्वाद, गंध और रंग । ये गुण अणुओं और संघातों दोनों में पाये जाते हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यूनानी परमाणुवादी दार्शनिक ल्यूसीपस और डेमोक्रिटस ने परमाणुओं को गुणहीन माना है। जैन एवं यूनानी परमाणुवादियों में एक अन्तर यह भी है कि यूनानी परमाणुवादी जहाँ परमाणुओं को सतत् गतिशील बताते हैं, वहाँ जैनी परमाणुओं में गति एवं स्थिरता दोनों मानते हैं।
  2. धर्म और अधर्म - यहाँ धर्म और अधर्म का मतलब पुण्य व पाप जनक लौकिक धर्म और अधर्म से नहीं है। यहाँ इन्हें क्रमश: गति और स्थिरता का विशेष कारण बताया गया है। इनका प्रत्यक्ष द्वारा तो अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, लेकिन अनुमान द्वारा अवश्य होता है। जैसे - मछली जल में तैरती है। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मछली जल में गति करती है, हालांकि उसकी यह गति उसकी अपनी शक्ति पर निर्भर करती है, किन्तु जल न हो तो उसकी यह शक्ति कोई काम की नहीं होती। जैसे जल मछली के तैरने में सहकारी होता है, उसी तरह संसार के समस्त जीवों और पुद्गल को गति देने में धर्म अस्तिकाय सहायक होता है। जगत् में गति के साथ स्थिरता भी दिखाई देती है। यह स्थिरता जिस द्रव्य के कारण सम्भव है उसे ही जैन दर्शन में अधर्म कहा गया है। जिस प्रकार थके हुए पथिक के ठहरने के लिए वृक्ष की छाया सहायक होती है, उसी प्रकार गतिशील पिण्डों के रुकने में अधर्म सहायक होता है, किन्तु यह सक्रिय रूप से किसी भी पिण्ड की गति में बाधा नहीं डालता।
  3. आकाश - आकाश वह अजीव अस्तिकाय है जो अनन्त दिक्-बिन्दुओं से निर्मित है, किन्तु ये दिक्-बिन्दु अगोचर रहते हैं। इसीलिए हम आकाश का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। अनुमान के आधार पर ही इसे स्वीकार किया जा सकता है। अनुमान यह है कि समस्त जीव एवं अजीव तत्त्वों को अपने अस्तित्व के लिए स्थान का होना जरूरी है। यही स्थान वस्तुत: आकाश है। जैन दर्शन में आकाश के दो प्रकार माने गये हैं –
    1. लोकाकाश - जिसमें समस्त जीव एवं अजीव द्रव्य स्थान लेते हैं यह हमारे सीमित विश्व का परिचायक है।
    2. अलोकाकाश - जो लोकाकाश से परे द्रव्य-रहित शुद्ध बाह्य आकाश है।

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