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Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद

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मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद

मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद

निरीश्वरवाद

    पूर्व-मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान अत्यन्त ही गौण है। पूर्व-मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी ने ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है जो एक अन्तर्यामी और सर्वशक्तिमान हो। इनके अनुसार संसार की सृष्टि के लिए धर्म और अधर्म का पुरस्कार और दण्ड देने के लिए ईश्वर को मानना भ्रान्तिमूलक है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन में देवताओं के गुण या धर्म की चर्चा नहीं हुई है। पूर्व-मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है, लेकिन देवताओं की चर्चा है। देवताओं की कल्पना बलि-प्रदान के सन्दर्भ में है। देवताओं को केवल बलि को ग्रहण करने वाले के रूप में ही माना गया है। उनकी उपयोगिता केवल इसलिए है कि उनके नाम पर होम किया जाता है। चूँकि मीमांसा दर्शन में अनेक देवताओं को माना गया है इसलिए मीमांसा को बहुदेववादी कहा जा सकता है। लेकिन देवताओं का अस्तित्व केवल वैदिक मन्त्रों में ही माना गया है। विश्व में उनका कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है। देवताओं और आत्माओं के बीच क्या सम्बन्ध है यह भी नहीं स्पष्ट किया गया है। इन देवताओं को किसी भी प्रकार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं दी गई है। यहाँ तक कि इन्हें उपासना का विषय भी नहीं माना गया है।

    कुमारिल और प्रभाकर ने भी कहा कि जगत की सृष्टि और विनाश में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। ईश्वर को विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता मानना भ्रामक है। कुमारिल ईश्वर को वेद का निर्माता भी नहीं मानते। कुमारिल के अनुसार यदि वेद की रचना ईश्वर के द्वारा मानी जाए तो वेद संदिग्ध भी हो सकते हैं। वेद अपौरुषेय हैं। वे स्वप्रकाश और स्वतः प्रमाण हैं। इसलिए कुछ विद्वानों ने मीमांसा के देवताओं को महाकाव्य के अमर-पात्र की तरह माना है। वे आदर्श पुरुष कहे जा सकते हैं। अतः पूर्व-मीमांसा या मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी है।

    बाद के मीमांसा के अनुयायियों ने ईश्वर को स्थान दिया है। उन्होंने ईश्वर को. कर्मफल देने वाला तथा कर्म का संचालक कहा है। पाश्चात्य विद्वान् प्रो. मैक्समूलर ने मीमांसा दर्शन को निरीश्वरवादी कहने में आपत्ति प्रकट की है। इनके अनुसार मीमांसा ने ईश्वर के सृष्टि कार्य के विरुद्ध आक्षेप किया है, परन्तु यह समझना कि मीमांसा अनीश्वरवाद है, गलत है। इसका कारण यह है कि सृष्टि के अभाव में भी ईश्वर को माना जा सकता है। मीमांसा दर्शन वेद पर आधारित है अर्थात् वेद में ईश्वर का पूर्णत: संकेत है। अत: यह मानना कि मीमांसा दर्शन अनीश्वरवादी है सही प्रतीत नहीं होता है। फिर वेदान्तदेशिक ने मीमांसा दर्शन में ईश्वर की कल्पना को और आगे बढ़ाया है।

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Sunday, October 3, 2021

सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

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सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

    ईश्वर की सत्ता को लेकर सांख्य दर्शन के भाष्यकारों में पर्याप्त मतभेद हैं। उनमें अधिकांश तो ईश्वरवाद का खण्डन करते हैं। ये भाष्यकार उन सभी आधारों का खण्डन करते हैं, जिनके आधार पर ईश्वर से सृष्टि का उद्भव एवं विकास दिखाया जाता है। सनातन सांख्य मतावलम्बी मानते हैं कि यह संसार कार्य श्रृंखला है इसलिए इसका कारण होना चाहिए, परन्तु निःसन्देह वह कारण ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर को नित्य, निर्विकार एवं पूर्ण परमात्मा माना गया है। जो परमात्मा निर्विकार, स्वयंभू एवं पूर्ण है, वह परिवर्तनशील वस्तुओं का निमित्त कारण नहीं हो सकता अर्थात् वह किसी भी क्रिया का प्रवर्तक नहीं हो सकता।

    ईश्वर भौतिक तत्त्व नहीं है। अभौतिक तत्त्व से भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अत: यह सिद्ध होता है कि जगत् का मूल कारण नित्य, परन्तु परिणामी (परिवर्तनशील) है। यही नित्य परिणामी कारण प्रकृति है। यह कहा जा सकता है कि प्रकृति तो जड़ है। इसकी गति को निरूपित एवं नियमित करने के लिए चेतन सत्ता आवश्यक है, जो सृष्टि उत्पन्न करती है। जीवात्माओं का ज्ञान सीमित रहता है, इसलिए जगत् के सूक्ष्म उपादान कारण को नियन्त्रित नहीं कर सकते है।

    अत: एक अनन्त बुद्धिमान चैतन्य युक्त सत्ता की कल्पना करनी चाहिए जो प्रकृति का संचालन कर सके। इसी को ईश्वर कहते हैं, परन्तु ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर कुछ नहीं करता, वह किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, परन्तु प्रकृति का संचालन एक क्रिया है। ईश्वर चूँकि पूर्ण है, अत: उसमें अपूर्ण इच्छा सम्भव नहीं है। यदि यह कहा जाए कि ईश्वर का प्रयोजन अन्य जीवों की उद्देश्य पूर्ति है, तो शंका उठती है कि बिना अपने किसी स्वार्थ के कोई भी व्यक्ति दूसरे की उद्देश्य सिद्धि के लिए तत्पर नहीं रहता है। यदि ईश्वर में विश्वास किया जाए, तो जीवों का स्वातन्त्र्य और अमरतत्त्व बाधित हो जाता है। यदि जीवों को ईश्वर का अंश मान लें, तो उसमें ईश्वरीय शक्ति रहनी चाहिए, परन्तु यह देखने में नहीं आती, इसके विपरीत यदि उन्हें ईश्वर के द्वारा उत्पन्न मानें, तो फिर उनका मरण होना असम्भव है।

    उपरोक्त सब बातों से निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति ही संसार का मूल कारण है। प्रकृति अज्ञात रूप से स्वभावत: पुरुषों के कल्याण के लिए उसी तरह सृष्टि रचना करती है, जिस तरह बछड़े की सृष्टि के निमित्त गाय के थन से स्वत: दूध की धारा बहती है। सांख्य ईश्वरवाद का निषेध करता है, अत: सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...