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मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त)

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त) मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त) भावना     मीमांसकों के अनुसार यज्ञ करने का उद्देश्य पूजा या देवता को सन्तुष्ट करना नहीं , बल्कि अपनी भावना को शुद्ध करना है। वैदिक कर्म इसलिए नहीं करने चाहिए कि वेद ऐसा कहते हैं। कुछ कर्म ऐसे हैं जो हमें नित्य करने चाहिए ;  जैसे - पूजा , आराधना , यज्ञ , हवन आदि। इनका उद्देश्य आत्मिक शुद्धि भी है। शब्दनित्यवाद     मीमांसा दर्शन में वेदों की नित्यता को सिद्ध करने के लिए शब्दनित्यवाद का सिद्धान्त दिया गया है। मीमांसा शब्दनित्यवाद का प्रतिपादन करके वेद - वाक्यों के प्रामाण्य का समर्थन करती है। शब्दनित्यवाद से आशय शब्द के नित्य अस्तित्व को स्वीकार करने से है। इस सिद्धान्त के अनुसार , वेद जिन शब्दों से बने हैं , वे शब्द शाश्वत एवं नित्य हैं। ये अनादि एवं अनन्त हैं। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भी स्वाभाविक है। वह परम्परा द्वारा निर्मित न