मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त)
भारतीय दर्शन |
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मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त) |
मीमांसा दर्शन में भावना का स्वरूप (शब्द नित्यवाद सिद्धान्त)
भावना
मीमांसकों के अनुसार यज्ञ करने का उद्देश्य पूजा या देवता को सन्तुष्ट करना नहीं, बल्कि अपनी भावना को शुद्ध करना है। वैदिक कर्म इसलिए नहीं करने चाहिए कि वेद ऐसा कहते हैं। कुछ कर्म ऐसे हैं जो हमें नित्य करने चाहिए; जैसे-पूजा, आराधना, यज्ञ, हवन आदि। इनका उद्देश्य आत्मिक शुद्धि भी है।
शब्दनित्यवाद
मीमांसा दर्शन में वेदों की नित्यता को सिद्ध करने के लिए शब्दनित्यवाद
का सिद्धान्त दिया गया है। मीमांसा शब्दनित्यवाद का प्रतिपादन करके वेद-वाक्यों
के प्रामाण्य का समर्थन करती है। शब्दनित्यवाद से आशय शब्द के नित्य अस्तित्व को स्वीकार
करने से है। इस सिद्धान्त के अनुसार, वेद जिन शब्दों
से बने हैं, वे शब्द शाश्वत एवं नित्य हैं। ये अनादि एवं अनन्त हैं। शब्द और
अर्थ का सम्बन्ध भी स्वाभाविक है। वह परम्परा द्वारा निर्मित नहीं है। मीमांसक सभी
शब्दों को नित्य नहीं मानते हैं। वे शब्दों के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए वर्ण एवं
ध्वनि में अन्तर करते हैं। यह अन्तर क्रमश: इस प्रकार है-
- वर्णरूप
शब्द
- ध्वनिरूप
शब्द
वर्णरूप शब्द
वर्ण एक सार्थक ध्वनि है। वर्ण नित्य है। वह निरवयव और सर्वगत है।
किसी वर्ण का अनेक बार या अनेक प्रकार से उच्चारण करने से यह सिद्ध नहीं होता कि अनेक
वर्ण विशेष हैं और उनमें एक वर्ण सामान्य व्याप्त होता है। इस प्रकार वर्ण के दिखाई
देने वाले अनेक रूप आकस्मिक मात्र हैं, परन्तु मूल वर्ण
सदैव नित्य होते हैं। पुन: किसी वर्ण का
अनेक बार उच्चारण होने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अनेक
उच्चारणों की पृष्ठभूमि में वही एक वर्ण होता है। जैसे-प्रायः
हम कहते हैं कि क वर्ण का उच्चारण दस बार हुआ। हम यह नहीं कहते कि दस 'क' वर्गों
का उच्चारण हुआ। ध्वनि नित्यवर्ण की अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। अत: उससे
भिन्न है। वर्णरूप शब्द व्यापक है और ये आत्मा की तरह नित्य भी है।
ध्वनिरूप शब्द
वर्ण के विपरीत ध्वनि अनित्य होती है, क्योंकि
उसका केवल उसी स्थान पर अस्तित्व होता है, जहाँ वह सुनाई
देती है, शब्द दो या अधिक वर्णों का समुदाय मात्र है, अवयवी
नहीं। शब्द का अर्थ भी नित्य होता है, क्योंकि वह भी
सामान्य होता है। चूंकि शब्द और उसका अर्थ नित्य एवं स्वाभाविक है सांकेतिक नहीं, इसलिए
वैदिक वाक्यों से प्राप्त ज्ञान स्वतः प्रमाणित है। उसमें कोई त्रुटि की गुंजाइश नहीं
है।
जैमिनी के अनुसार वेद में आने वाले शब्दों में जो विशिष्ट क्रम है, वह अन्य
रचनाओं में नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्य रचनाओं में शब्दों का क्रम उनके लेखकों
द्वारा निर्धारित है, परन्तु अकर्तृत्त्व के कारण वेद में शब्दों का क्रम स्वनिर्धारित
है। वेद की नित्यता का तात्पर्य उसके पाठ के स्थायित्व से है। वेद अनादिकाल से गुरु-शिष्य
परम्परा से अखण्ड रूप से सुरक्षित चला आ रहा है। इस प्रकार वेद अपौरुषेय, नित्य
एवं स्वत: प्रमाणित है। वे यथार्थ ज्ञान का साधन हैं। शब्द को लेकर न्याय एवं
मीमांसा में पर्याप्त अन्तर है। मीमांसक मानते हैं कि शब्द शाश्वत है, जबकि
न्याय के अनुसार मनुष्य के शब्द उच्चारण के प्रयत्न से ही शब्द की उत्पत्ति होती है।
यह सिद्धान्त स्फोटवाद कहलाता है।
वेदान्त दार्शनिक शंकराचार्य का मत है कि वेदों के अर्थ तो नित्य
हैं,
परन्तु
वैदिक मन्त्र नित्य नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर
प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में फिर से उनका उच्चारण करता है। ईश्वर, जिसे
नित्य रूप से बुद्धि स्वातन्त्र्य प्राप्त है और संकल्प शक्ति भी उसमें स्वतन्त्र रूप
से है, इन शब्दों को स्मरण रखता है तथा प्रत्येक सृष्टि युग में इन्हें
व्यक्त करता है।
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