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Saturday, May 14, 2022

विवेकानन्द के धार्मिक अनुष्ठान

      स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, धर्मों का बाहरी अनुष्ठान आध्यात्मिक महत्त्व का होता है। धर्मों के आध्यात्मिक सार को स्वीकार करने की आवश्यकता है। हम मानव जाति को ऐसे स्थान पर ले जाना चाहते हैं, जहाँ न तो वेद, न ही बाइबिल और न ही कुरान है। यह वेदों, बाइबिल एवं कुरान के सामंजस्य से किया जा सकता है। मानव जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि धर्म विभिन्न प्रकार के विचारों की अभिव्यक्ति है, जिसकी समष्टि में प्रत्येक मानव अपने पथ का चुनाव कर सकता है, जो उसके लिए सबसे उपयुक्त हो। कई दृष्टिकोण से सत्य को देखा जा सकता है और विभिन्न तरीकों से व्यक्त किया जा सकता है। इस आधारभूत सत्य को स्वीकार करना चाहिए। मनुष्य की निःस्वार्थ सेवा सर्वव्यापी रूप में प्रदर्शित होती है। इसके लिए आत्मनियन्त्रण वांछनीय है। मोक्ष सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है, जो स्वयं उसमें समाहित है।

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विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव

विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव 

विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव 

     अधिकांश दार्शनिकों के अनुसार धर्मपरायण शक्तियों को किसी अलौकिक सत्ता को जो विशेष प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है, उसे 'धार्मिक अनुभव' कहा जाता है । किसी अतीन्द्रिय सत्ता में विश्वास धर्म का अनिवार्य तत्त्व है और प्रत्येक उपासक या धर्मपरायण व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में इस सत्ता का अनिवार्य रूप से अनुभव करता है, जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, जप-तप, पूजा-पाठ आदि धार्मिक कर्मकाण्ड के माध्यम से होती है। अतीन्द्रिय सत्ता से सम्बन्धित उसके इसी अनुभव को धार्मिक अनुभव कहा जाता है।

     अलौकिक सत्ता धार्मिक अनुभव का अनिवार्य तत्त्व है, जो इसे अन्य प्रकार के अनुभवों से पृथक् करता है। धर्मपरायण शक्ति अनिवार्य रूप से किसी अतीन्द्रिय सत्ता को ही अपना आराध्य मानती है। वह अत्यन्त निष्ठापूर्वक इस सत्ता की उपासना करती है और अपने आप को इसी पर पूर्णतः निर्भर मानती है। विवेकानन्द के अनुसार, मानव के भाग्य को दिशा-निर्देश देने वाली शक्तियों में शायद सबसे अधिक प्रभाव धर्म का ही रहता है। धर्म जीवन का एक अनिवार्य पक्ष है। विवेकानन्द के अनुसार, धार्मिकता धर्मबोध एवं धार्मिक चेतना है। यह वह विशेष प्रकार का आन्तरिक अनुभव है, जिसकी प्रत्येक प्रकार की अभिव्यक्ति 'धर्म' का स्वरूप स्पष्ट करती है। धार्मिक अनुभव के विश्लेषण में उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि की झलक मिलती है। इस अनुभव का विवरण पूर्णतया मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है। धर्म की अनिवार्यता को स्वीकारने के अनुरूप के यह कहते हैं कि धार्मिक अनुभव एवं धार्मिक चेतना सार्वभौमिक है, जो प्रत्येक व्यक्ति में है। उनके अनुसार जो अपने को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी धार्मिक अनुभव विद्यमान होता है। धार्मिक अनुभव में मानसिकता के तीनों अंश विद्यमान हैं। ये तीन अंश हैं - ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा क्रियात्मक। ये तीनों प्रत्येक धार्मिक मानसिकता में समान मात्रा में विद्यमान नहीं रहते हैं। जिसमें धर्म के जिस अंश की प्रधानता होती है, उस धर्म को उसी के अनुरूप चित्रित किया जाता है।

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विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )

विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )

विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )

    विवेकानन्द के अनुसार, सार्वभौमिक धर्म मूलतः दो अनिवार्य लक्षणों पर आधृत है। सार्वभौमिक धर्म तभी हो सकता है, जब यह सभी के लिए खुला हो। धर्म को यह देखना चाहिए कि एक शिशु अबोध एवं निर्दोष है, वह किसी धर्म के साथ पैदा नहीं होता, बल्कि जिस धर्म में पैदा होता है उसी धर्म का हो जाता है, बाद में वह अपनी अभिरुचि एवं मनोवृत्ति के अनुसार धर्म को बदल सकता है। जीवन में सामान्यतः हिन्दू माँ-बाप का बच्चा हिन्दू, मुस्लिम का मुस्लिम, ईसाई का ईसाई व सिख धर्म का बच्चा सिख धर्म को स्वीकार करता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे बचपन से ऐसी शिक्षा-दीक्षा और संस्कार दिए जाते हैं। उसका सामाजिक जीवन, रहन-सहन उस धर्म की ओर उन्मुख होता है। धर्मों की सार्वभौमिकता की यह पहचान है कि उसके द्वार प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुले हों। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके द्वार खुलने से ही वह सार्वभौमिक धर्म बन पाता है।

    धर्मों के सार्वभौमिक होने की दूसरी शर्त यह है कि ऐसे सार्वभौमिक धर्म में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह विभिन्न संस्थाओं को सन्तुष्ट एवं तृप्त कर सके। सार्वभौमिक धर्म को विभिन्न धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठना चाहिए तथा सभी धार्मिक संस्थाओं को साथ लेकर चलना चाहिए। धर्म तभी सार्वभौमिक हो सकता है, जब उसमें सभी विभिन्न धर्म संस्थाओं को भी सार या सार्थकता दिखाई दे।

    क्या ऐसा धर्म सम्भव है? इस प्रश्न के उत्तर में विवेकानन्द कहते हैं कि ऐसे सार्वभौमिक धर्म की सम्भावना पर संशय करना या उसकी सम्भावना पर प्रश्न उठाना अकारण है क्योंकि ऐसा सार्वभौमिक धर्म वस्तुतः है। उनके अनुसार हम धर्म की बाध्यता में इतने उलझे हुए हैं कि धर्म सम्बन्धी विवादों तथा अपने धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए इतने खोए हैं कि सार्वभौमिक धर्म से नभिज्ञ हैं। उनके अनुसार सार्वभौमिक धर्म की उपस्थिति की चेतना जगाने के लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। उसके लिए प्रथम कदम यह है कि उन बिन्दुओं पर ध्यान दें जो हमें विवाद से ऊपर उठाते हैं। विवेकानन्द के अनुसार, इसके लिए प्रथमतः हमें यह समझना चाहिए कि विश्व के विभिन्न धर्मों में कोई मौलिक विरोध नहीं है। कोई किसी दूसरे का खण्डन नहीं करता, बल्कि हर धर्म में हर दूसरे धर्म के विचारों की पुष्टि होती है। धर्म का केन्द्र जो सत्य है वह इतना व्यापक है कि एक साथ उसके सभी पक्षों पर विचार भी नहीं किया जा सकता। हर धर्म उसी सत्य के किसी पक्ष या पहलू पर ध्यान देता है तथा भावातिरेक में समझ बैठता है कि 'सत्य' में बस एक वही पक्ष है। धार्मिक विवाद का मूल कारण यही है, विरोध तब होता है जब हम अपनी आंशिक दृष्टि को पूर्ण दृष्टि समझ लेते हैं। अन्धविश्वासों का विरोध करते हुए विवेकानन्द ने कहा है कि "मानव के लिए दो मिलियन ईश्वरों में अन्धविश्वास करने की अपेक्षा तर्क का अनुसरण करके नास्तिक बनना श्रेयस्कर है।" इसी के साथ इन्होंने कहा है कि "खाली पेट वाले के लिए धर्म निरर्थक है।" विवेकानन्द के अनुसार, सत्य को देखने के ढंगों में जो भेद या अन्तर होता है, उसे हम सत्य में भेद करने का आधार नहीं बना सकते। एक ही तत्त्व को दो ढंगों से देखने पर भिन्न-भिन्न चित्र उभरते हैं जो परस्पर विरोधी हो सकते हैं, परन्तु सत्य को कोई भेद नहीं सकता। इस पर विवेकानन्द निष्कर्षतः कहते हैं कि सार्वभौमिक धर्म की सम्भावना पर सोचने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि सार्वभौमिक धर्म तो है ही। वे कहते हैं कि जिस प्रकार विश्वबन्धुत्व के सम्बन्ध में कहा जा सकता है, उसी प्रकार सार्वभौमिक धर्म के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। यह भी वास्तविकता है, विश्वबन्धुत्व एक तात्त्विक तथ्य है। सार्वभौमिक धर्म भी एक वास्तविकता है। सार्वभौमिक धर्म के स्वरूप पर विवेकानन्द कहते हैं कि हर धर्म सार्वभौमिक धर्म है। हम अपनी सुविधा तथा बाह्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उस धर्म की सार्वभौमिकता की उपेक्षा कर उसे साम्प्रदायिक बना देते हैं। सार्वभौमिक धर्म को मानने का अर्थ अलग से किसी धर्म को मानने की आवश्यकता नहीं। हम चाहे किसी भी धर्म को अंगीकार करें। हम चाहे किसी भी धर्म में हों, उसके अनावश्यक बाह्य रूपों पर ध्यान केन्द्रित कर हम बैठे नहीं रहें, बल्कि उसकी आन्तरिकता को समझें। बाह्यता पर आवश्यकता से अधिक बल देने के कारण ही धर्मों में साम्प्रदायिकता का प्रवेश होता है। दूसरी बात, विवेकानन्द के अनुसार हमें धर्म का पालन खुले रूप से करना चाहिए अर्थात् यह समझते हुए कि मेरे लिए यही मार्ग है, परन्तु अन्य मार्ग भी सम्भव हैं। इनके अनुसार विश्व धर्म का मूल मन्त्र 'सहिष्णुता' है। सार्वभौमिक धर्म में यह विशिष्टता हो कि वह हर मन को सहज रूप में स्वीकार्य हो। मनुष्यों में अभिरुचि, मनोवृत्ति, शिक्षा आदि की भिन्नता होती है। परिणामस्वरूप हर बात हर व्यक्ति को रोचक नहीं लग सकती है। अतः सार्वभौमिकता का दावा है वहाँ यह बात तो होनी ही है कि उसमें सभी प्रकार की अभिरुचि के लिए स्थान हो। इसी कारण विवेकानन्द कहते हैं कि सार्वभौमिक धर्म में दर्शन, भावना, कर्म, रहस्यवादिता सभी के लिए स्थान होना चाहिए।

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विवेकानन्द का व्यवहारिक वेदान्त ( Practical Vedanta )

विवेकानन्द का व्यवहारिक वेदान्त ( Practical Vedanta )

 विवेकानन्द का व्यवहारिक वेदान्त ( Practical Vedanta )

    व्यवहारिक वेदान्त स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा लन्दन में दिए गए 4 व्याख्यानों का संकलन है। जिसमें वेदान्त का महिमा मंडन किया गया है। स्वामी विवेकानन्द जी ने वेदान्त को शास्त्रों से निकालकर जनसामान्य तक ले जाने का महान कार्य किया है। स्वामी जी अपने ढंग के वेदन्ती थे। उनके दर्शन में माया पर विशद् चर्चा हुई है। उनके अनुसार माया तथ्यों का विवरण है। वे बार-बार कहते है कि वेदान्त के विचारों का समय के अनुरूप अर्थ निरूपण अनिवार्य है तथा उनका अपना विचार इसी दिशा में एक प्रयास भी है।

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स्वामी विवेकानन्द ( Swami Vivekananda )

स्वामी विवेकानन्द ( Swami Vivekananda ) 

स्वामी विवेकानन्द ( Swami Vivekananda ) 

      स्वामी विवेकानन्द (जन्म: 12 जनवरी 1863 - मृत्यु: 4 जुलाई 1902) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में उन्हें 2 मिनट का समय दिया गया था किन्तु उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण का आरम्भ "मेरे अमेरिकी बहनों एवं भाइयों" के साथ करने के लिये जाना जाता है। उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।

      कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली कायस्थपरिवार में जन्मे विवेकानन्द आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवो मे स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं; इसलिए मानव जाति अथेअथ जो मनुष्य दूसरे जरूरतमन्दो मदद करता है या सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धान्तों का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द को एक देशभक्त सन्यासी के रूप में माना जाता है और उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन

  • "उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता"। 
  • हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं, किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है।
  • एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क, दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।
  • एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ।
  • पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
  • एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।
  • खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।
  • सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।
  • बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।
  • विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।
  • शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।
  • जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।
  • जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।
  • विवेकानंद ने कहा था - चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।
  • हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।

स्वामी विवेकानन्द ( Swami Vivekananda ) कृतियाँ

उनके जीवनकाल में प्रकाशित

Ø  संगीत कल्पतरु (1887, with Vaishnav Charan Basak)

Ø  कर्म योग (1896)

Ø  राज योग (1896 [1899 edition])

Ø  Vedanta Philosophy: An address before the Graduate Philosophical Society (1896)

Ø  Lectures from Colombo to Almora (1897)

Ø  वर्तमान भारत (बांग्ला में; मार्च 1899), उद्बोधन

Ø  My Master (1901), The Baker and Taylor Company, New York

Ø  Vedânta philosophy: lectures on  Jnâna Yoga (1902) Vedânta Society, New York

Ø  ज्ञान योग (1899)

मरणोपरान्त प्रकाशित

Ø  Addresses on Bhakti Yoga

Ø  भक्ति योग

Ø  The East and the West (1909)

Ø  Inspired Talks (1909)

Ø  Narada Bhakti Sutras – translation

Ø  Para Bhakti or Supreme Devotion

Ø  Practical Vedanta

Ø  Speeches and writings of Swami Vivekananda; a comprehensive collection

Ø  Complete Works: a collection of his writings, lectures and discourses in a set of nine volumes (ninth volume will be published soon)

Ø  Seeing beyond the circle (2005)

स्वामी विवेकानन्द का दर्शन 

विवेकानन्द का व्यवहारिक वेदान्त ( Practical Vedanta )

विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )

विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव

विवेकानन्द के धार्मिक अनुष्ठान



विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...