विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )
विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion ) |
विवेकानन्द का सार्वभौम धर्म ( Universal Religion )
विवेकानन्द के अनुसार, सार्वभौमिक धर्म मूलतः दो
अनिवार्य लक्षणों पर आधृत है। सार्वभौमिक धर्म तभी हो सकता है, जब यह सभी के लिए खुला हो। धर्म को यह देखना चाहिए कि एक शिशु अबोध एवं
निर्दोष है, वह किसी धर्म के साथ पैदा नहीं होता, बल्कि जिस धर्म में पैदा होता है उसी धर्म का हो जाता है, बाद में वह अपनी अभिरुचि एवं मनोवृत्ति के अनुसार धर्म को बदल सकता है।
जीवन में सामान्यतः हिन्दू माँ-बाप का बच्चा हिन्दू, मुस्लिम
का मुस्लिम, ईसाई का ईसाई व सिख धर्म का बच्चा सिख धर्म को
स्वीकार करता है। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे बचपन से ऐसी शिक्षा-दीक्षा और
संस्कार दिए जाते हैं। उसका सामाजिक जीवन, रहन-सहन उस धर्म
की ओर उन्मुख होता है। धर्मों की सार्वभौमिकता की यह पहचान है कि उसके द्वार
प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुले हों। प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसके द्वार खुलने से ही
वह सार्वभौमिक धर्म बन पाता है।
धर्मों के सार्वभौमिक होने की दूसरी शर्त यह है कि ऐसे
सार्वभौमिक धर्म में यह शक्ति होनी चाहिए कि वह विभिन्न संस्थाओं को सन्तुष्ट एवं
तृप्त कर सके। सार्वभौमिक धर्म को विभिन्न धार्मिक मतभेदों से ऊपर उठना चाहिए तथा
सभी धार्मिक संस्थाओं को साथ लेकर चलना चाहिए। धर्म तभी सार्वभौमिक हो सकता है, जब
उसमें सभी विभिन्न धर्म संस्थाओं को भी सार या सार्थकता दिखाई दे।
क्या ऐसा धर्म सम्भव है? इस प्रश्न के उत्तर में
विवेकानन्द कहते हैं कि ऐसे सार्वभौमिक धर्म की सम्भावना पर संशय करना या उसकी सम्भावना
पर प्रश्न उठाना अकारण है क्योंकि ऐसा सार्वभौमिक धर्म वस्तुतः है। उनके अनुसार हम
धर्म की बाध्यता में इतने उलझे हुए हैं कि धर्म सम्बन्धी विवादों तथा अपने धर्म की
श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए इतने खोए हैं कि सार्वभौमिक धर्म से नभिज्ञ हैं।
उनके अनुसार सार्वभौमिक धर्म की उपस्थिति की चेतना जगाने के लिए हमें अपनी मानसिकता
बदलनी होगी। उसके लिए प्रथम कदम यह है कि उन बिन्दुओं पर ध्यान दें जो हमें विवाद
से ऊपर उठाते हैं। विवेकानन्द के अनुसार, इसके लिए प्रथमतः
हमें यह समझना चाहिए कि विश्व के विभिन्न धर्मों में कोई मौलिक विरोध नहीं है। कोई
किसी दूसरे का खण्डन नहीं करता, बल्कि हर धर्म में हर दूसरे
धर्म के विचारों की पुष्टि होती है। धर्म का केन्द्र जो सत्य है वह इतना व्यापक है
कि एक साथ उसके सभी पक्षों पर विचार भी नहीं किया जा सकता। हर धर्म उसी सत्य के
किसी पक्ष या पहलू पर ध्यान देता है तथा भावातिरेक में समझ बैठता है कि 'सत्य' में बस एक वही पक्ष है। धार्मिक विवाद का मूल
कारण यही है, विरोध तब होता है जब हम अपनी आंशिक दृष्टि को पूर्ण
दृष्टि समझ लेते हैं। अन्धविश्वासों का विरोध करते हुए विवेकानन्द ने कहा है कि
"मानव के लिए दो मिलियन ईश्वरों में अन्धविश्वास करने की
अपेक्षा तर्क का अनुसरण करके नास्तिक बनना श्रेयस्कर है।" इसी के साथ
इन्होंने कहा है कि "खाली पेट वाले के लिए धर्म निरर्थक
है।" विवेकानन्द के अनुसार, सत्य को देखने के ढंगों में
जो भेद या अन्तर होता है, उसे हम सत्य में भेद करने का आधार
नहीं बना सकते। एक ही तत्त्व को दो ढंगों से देखने पर भिन्न-भिन्न चित्र उभरते हैं
जो परस्पर विरोधी हो सकते हैं, परन्तु सत्य को कोई भेद नहीं
सकता। इस पर विवेकानन्द निष्कर्षतः कहते हैं कि सार्वभौमिक धर्म की सम्भावना पर
सोचने की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि सार्वभौमिक धर्म तो है ही। वे कहते हैं कि जिस
प्रकार विश्वबन्धुत्व के सम्बन्ध में कहा जा सकता है, उसी
प्रकार सार्वभौमिक धर्म के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है। यह भी वास्तविकता है,
विश्वबन्धुत्व एक तात्त्विक तथ्य है। सार्वभौमिक धर्म भी एक
वास्तविकता है। सार्वभौमिक धर्म के स्वरूप पर विवेकानन्द कहते हैं कि हर धर्म
सार्वभौमिक धर्म है। हम अपनी सुविधा तथा बाह्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उस
धर्म की सार्वभौमिकता की उपेक्षा कर उसे साम्प्रदायिक बना देते हैं। सार्वभौमिक
धर्म को मानने का अर्थ अलग से किसी धर्म को मानने की आवश्यकता नहीं। हम चाहे किसी
भी धर्म को अंगीकार करें। हम चाहे किसी भी धर्म में हों, उसके
अनावश्यक बाह्य रूपों पर ध्यान केन्द्रित कर हम बैठे नहीं रहें, बल्कि उसकी आन्तरिकता को समझें। बाह्यता पर आवश्यकता से अधिक बल देने के
कारण ही धर्मों में साम्प्रदायिकता का प्रवेश होता है। दूसरी बात, विवेकानन्द के अनुसार हमें धर्म का पालन खुले रूप से करना चाहिए अर्थात्
यह समझते हुए कि मेरे लिए यही मार्ग है, परन्तु अन्य मार्ग
भी सम्भव हैं। इनके अनुसार विश्व धर्म का मूल मन्त्र 'सहिष्णुता'
है। सार्वभौमिक धर्म में यह विशिष्टता हो कि वह हर मन को सहज रूप
में स्वीकार्य हो। मनुष्यों में अभिरुचि, मनोवृत्ति, शिक्षा आदि की भिन्नता होती है। परिणामस्वरूप हर बात हर व्यक्ति को रोचक
नहीं लग सकती है। अतः सार्वभौमिकता का दावा है वहाँ यह बात तो होनी ही है कि उसमें
सभी प्रकार की अभिरुचि के लिए स्थान हो। इसी कारण विवेकानन्द कहते हैं कि
सार्वभौमिक धर्म में दर्शन, भावना, कर्म,
रहस्यवादिता सभी के लिए स्थान होना चाहिए।
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