भारतीय दर्शन |
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चार्वाक दर्शन में प्रमाण विचार Pramana Mimamsa in Charvak Philosophy |
चार्वाक दर्शन में प्रमाण विचार Pramana Mimamsa in Charvak Philosophy
यह दर्शन प्रत्यक्ष को एकमात्र प्रमाण मानता है, इसके अतिरिक्त सभी का खण्डन करता है। यह पाँच तत्त्वों
(पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एवं आकाश) में केवल चार तत्त्वों (आकाश तत्त्व को छोड़कर) को ही मानता है।
प्रत्यक्षमात्र प्रमाण
चार्वाक का सम्पूर्ण दर्शन उसके प्रमाण विचार पर आधारित है। चार्वाक ने यथार्थ ज्ञान के एकमात्र प्रमाण के रूप में प्रत्यक्ष को स्वीकार किया है।चार्वाक की मान्यता है कि एकमात्र प्रत्यक्ष के द्वारा ही हमें अभ्रान्त एवं निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त होता है। चार्वाक का यह विचार अन्य दार्शनिक विचारों से भिन्न है, क्योंकि अन्य दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष के अतिरिक्त कम-से-कम अनुमान को तो अवश्य ही प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है।
चार्वाक के अनुसार, प्रत्यक्ष के द्वारा हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है, चूँकि वह अभ्रान्त एवं निश्चयात्मक होता है, अत: प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए कहा गया है कि प्रत्यक्षे किम् प्रमाणम्।
चार्वाक ने प्रत्यक्ष ज्ञान को एकमात्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करने के अतिरिक्त अन्य सभी प्रमाणों-उपमान, अनुमान शब्द प्रमाण आदि का खण्डन किया है। चार्वाक का यह खण्डन प्रत्यक्ष प्रमाण की महत्ता में वृद्धि करता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार, केवल इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही प्रामाणिकता की कोटि में आता है। इन्द्रियों एवं वस्तु के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान प्रामाणिक होता है, जिसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ती। इस समस्त दृश्यमान जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा ही होता है। अत: चार्वाक इन्द्रिय ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान मानता है। प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। पाँच ज्ञानेन्द्रियों-आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा से क्रमश: दृश्य, गन्ध, श्रवण, स्वाद व स्पर्श का ज्ञान होता है। यही प्रत्यक्ष ज्ञान है जो सन्देह रहित व निश्चित है।
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