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Showing posts with the label समकालीन भारतीय दर्शन

स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati )

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स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati )  स्वामी दयानन्द सरस्वती ( Dayananda Saraswati )      महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) आधुनिक भारत के महान चिन्तक , समाज-सुधारक , तथा आर्य समाज के संस्थापक थे। उनके बचपन का नाम ' मूलशंकर ' था। उन्होंने वेदों के प्रचार और आर्यावर्त को स्वंत्रता दिलाने के लिए 10 अप्रैल 1875 ई. को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक चिन्तक थे। उन्होंने वेदों की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। ' वेदों की ओर लौटो ' यह उनका प्रमुख नारा था।     स्वामी दयानन्द ने वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें ' ऋषि ' कहा जाता है क्योंकि ' ऋषयो मन्त्र दृष्टारः ' ( वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है)। उन्होने कर्म सिद्धान्त , पुनर्जन्म , ब्रह्मचर्य तथा सन्यास को अपने दर्शन के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले 1863 में ' स्वराज्य ' का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। प्रथम जनगणना के समय स्वामी जी ने आगरा से देश के सभी आर्यसमाजो को यह निर्देश भिजवाया कि ' सब सदस्य अपना धर्म '

सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )

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सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )  सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )      उड़ीसा के एक प्रतिभाशाली काँधा आदिवासी कवि और समाज सुधारक सन्त कवि भीमा भोई जी के जीवन के संबंध में ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम उपलब्ध है । इनका जीवन कष्ट और निर्धनता में बीता और अपने जीवन में इन्होंने बहुत अपमान और शारीरिक यातना सही । महिमा धर्म के प्रवर्तक महिमा गोसाई से इनकी मुलाकात हुई और इन्होंने इस धर्म की दीक्षा ली । यह मुलाकात कुछ वैसी ही कही जा सकती है , जिस तरह रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्रनाथ दत्त ( विवेकानंद ) की हुई थी । भीमा भोई स्कूल जाने का अवसर न पाकर अशिक्षित थे , पर उनमें एक स्वतःस्फूर्त विवेक था । दयानंद सरस्वती की ही तरह मूर्ति पूजा के विरोधी , पर वेद को भी नहीं मानते थे । ये जातिवाद के प्रचंड विरोधी थे । इनकी दृष्टि में परम ब्रह्म एक है , वह अलख , निरंजन और निराकार है । इनके अनुसार, शून्य से ओम , ओम से शब्द , रूप , प्रकाश , जल और दुनिया की उत्पत्ति हुई है । इन्होंने बोलनगीर जिले के खलियापालि में एक आश्रम की स्थापना की और बौद्ध शून्यवाद और हिंदू धर्म की ब्रह्म की अवधारणा के बीच सामंजस्य स्थापित किया ।

मौलाना आजाद का मानवतावाद

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मौलाना आजाद का मानवतावाद        मौलाना आजाद का मानवतावाद            मौलाना आजाद का विचार मानवतावाद इस्लाम से प्रेतित था उन्होंने कहा था कि “इस्लाम का आव्हान मानवतावाद है”। उनके अनुसार, सारी मानव जाति को खुदा ने बनाया है और मानव की भलाई के लिए विभिन्न कालों में पृथ्वी के हर कोने में अनेक पैगम्बरों को भेजा है । इसलिए मानवता किसी भी धार्मिक विभाजन से परे है । -------------

मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad )

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मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad )  मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad )      मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन (11 नवंबर , 1888 - 22 फरवरी , 1958) एक प्रसिद्ध भारतीय मुस्लिम विद्वान थे। वे कवि , लेखक , पत्रकार और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत की आजादी के बाद वे एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पद पर रहे। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतो का समर्थन करते थे। खिलाफत आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के प्रेसीडेंट बने। वे 1940 और 1945 के बीच कांग्रेस के प्रेसीडेंट रहे। आजादी के बाद वे भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के रामपुर जिले से 1952 में सांसद चुने गए और वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को विकसित करने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की - Ø   संगीत नाटक अकादमी (1953) Ø   साहित्य अकादमी (1954) Ø   ललितकला अकादमी (1954) मौलाना आजाद ( Abul Kalam Azad ) के दार्शनिक विचार  मौलाना आजाद का मानवतावाद -----------------

एम एन राय का भौतिकवाद

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एम एन राय का भौतिकवाद  एम एन राय का भौतिकवाद      मानवेन्द्र नाथ राय पूर्णतः भौतिकवादी तथा निरीश्वरवादी दार्शनिक थे । उनका मत था कि सम्पूर्ण जगत की व्याख्या भौतिकवाद के आधार पर की जा सकती है । इसके लिए ईश्वर जैसी कोई शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । प्राकृतिक घटनाओं के समुचित प्रेक्षण तथा सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा ही अनेक वास्तविक स्वरूप और कारणों को समझा जा सकता है । विश्व का मूल तत्त्व भौतिक द्रव्य अथवा पुद्गल है और सभी वस्तुएँ इसी पुद्गल के अन्तर्गत रूपान्तरित हैं , जो निश्चित प्राकृतिक नियमों के द्वारा नियन्त्रित होते हैं । जगत के मूल आधार इस पुद्गल के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की अन्तिम सत्ता नहीं हैं । राय मानवीय प्रत्यक्ष को ही सम्पूर्ण ज्ञान का मूल आधार मानते हैं । इस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि “ मनुष्य द्वारा जिस वस्तु का प्रत्यक्ष सम्भव है , वास्तव में , उसी का अस्तित्व है और मानव के लिए जिस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है , उसका अस्तित्व भी नहीं है ।" राय के अनुसार , सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भौतिक परमाणुओं के संघात का परिणाम है , जिसका कोई रचयि

एम एन राय का उग्र मानवतावाद

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एम एन राय का उग्र मानवतावाद एम एन राय का उग्र मानवतावाद     एम एन राय के दर्शन में उग्र मानवतावाद का विशेष महत्व है । इन्होंने अपनी ‘द प्रॉबलम ऑफ फ्रीडम’, ‘साइंटिफिक पॉलिटिक्स’, ‘रिजन’ और ‘रोमेन्टिसीज्म एंड रिवाल्यूशन’ में मानवतावाद सम्बन्धी विचारों को व्यक्त किया है ।     इनके उग्र मानवतावाद को ‘वैज्ञानिक मानवतावाद’, ‘नव मानवतावाद’, ‘आमूल परिवर्तनवादी मानवतावाद’ एवं ‘पूर्ण मानवतावाद’ भी कहते है । राय के अनुसार , " मानवतावाद स्वतन्त्रता के प्रयोग की अनन्त सम्भावनाओं में आस्था रखते हुए उसे किसी ऐसी विचारधारा के साथ नहीं बाँधना चाहता , जो किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य की सिद्धि को ही उसके जीवन का ध्येय मानती है । ” राय ने मानव विकास के सिद्धान्तों में विश्वास करते हुए यह तर्क दिया है कि स्वयं मनुष्य का अस्तित्व भौतिक सृष्टि के विकास का परिणाम है । भौतिक सृष्टि स्वयं में निश्चित नियमों से बँधी हुई है , इसलिए इसमें सुसंगति पाई जाती है । मानव के अस्तित्व में यह सुसंगति तर्कशक्ति के रूप में सार्थक होती है । मनुष्य का विवेक भौतिक जगत में व्याप्त सुसंगति की ही प्रतिध्वनि है । यह मनुष्य के

मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy )

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मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy ) मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy )     मानवेन्द्रनाथ राय (1886 – 1954) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी तथा विश्वप्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धान्तकार थे। उनका मूल नाम ' नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य ' था। वे मेक्सिको और भारत दोनों के ही कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी सम्मिलित थे।     मानवेन्द्रनाथ का जन्म कोलकाता के निकट एक गाँव में हुआ था।। राय के जीवनी लेखक ‘ मुंशी और दीक्षित ’ के अनुसार , ‘‘ राय का जीवन स्वामी विवेकानन्द , स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानन्द से प्रभावित रहा। इन सन्तों और सुधारकों के अतिरिक्त उनके जीवन पर विपिन चन्द्र पाल और विनायक दामोदर सावरकर का अमिट प्रभाव पड़ा। मानवेन्द्र नाथ राय ( M. N. Roy ) की  कृतियाँ     इन्होंने मार्क्सवादी राजनीति विषयक लगभग 80 पुस्तकों को लिखा है जिनमें ' रीजन , रोमांटिसिज्म ऐंड रिवॉल्यूशन , हिस्ट्री ऑव वेस्टर्न मैटोरियलिज्म , रशन रिवॉल्यूशन , रिवाल्यूशन ऐंड काउंटर रिवाल्यूशन इन चाइना ' तथा ' रैडिकल ह्यूमैनिज

ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध

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ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध  ज्योतिबा फुले का जाति व्यवस्था बोध      ज्योतिबा फुले जातीय व्यवस्था के बुनियादी समाज में परिवर्तन करना चाहते थे । इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र में “सत्यशोधक समाज” की स्थापना की । ज्योतिबा फुले ने अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में जाति व्यवस्था की व्याख्या की और कहा कि “हमे भारतीय समाज के शूद्र-अतिशूद्र लोगों की ऐतिहासिक गुलामी का अन्त करना होगा और इसके लिए सभी न्यायप्रिय लोगों को विरोध करना पड़ेगा”। ------------

ज्योतिबा फुले ( Jyotirao Phule )

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ज्योतिबा फुले ( Jyotirao Phule ) ज्योतिबा फुले ( Jyotirao Phule )     महात्मा जोतिराव गोविंदराव फुले (11 अप्रैल 1827 – 28 नवम्बर 1890) एक भारतीय समाजसुधारक , समाज प्रबोधक , विचारक , समाजसेवी , लेखक , दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे। इन्हें महात्मा फुले एवं '' जोतिबा फुले” के नाम से भी जाना जाता है । सितम्बर 1873 में इन्होने महाराष्ट्र में सत्य शोधक समाज नामक संस्था का गठन किया । महिलाओं व पिछडे और अछूतो के उत्थान के लिय इन्होंने अनेक कार्य किए । समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के ये प्रबल समथर्क थे । वे भारतीय समाज में प्रचलित जाति पर आधारित विभाजन और भेदभाव के विरुद्ध थे । 1883 में स्त्रियों को शिक्षा प्रदान कराने के महान कार्य के लिए उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकार द्वारा "स्त्री शिक्षण के आद्यजनक" की उपाधि दी । ज्योतिबा फुले ( Jyotirao Phule ) की  प्रमुख कृति ·          तृतीय रत्न ·          छत्रपति शिवाजी ·          राजा का मोसला का पखड़ा ·          किसान का कोड़ा ·          अछूतो की कैफियत ज्योतिबा फुले ( Jyotirao Phule ) के दार्शनिक

तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल विचार

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तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल विचार  तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल विचार      उनके द्वारा संगम साहित्य में तिरुक्कुरल या ' कुराल ' (Tirukkural or ‘Kural') की रचना की गई थी । तिरुक्कुरल की तुलना विश्व के प्रमुख धर्मों की महान पुस्तकों से की गई है। तिरुक्कुरल में 10 कविताएँ व 133 खंड शामिल हैं , जिनमें से प्रत्येक को तीन पुस्तकों में विभाजित किया गया है- 1.     अराम- Aram ( सदगुण- Virtue) । 2.    पोरुल- Porul ( सरकार और समाज)। 3.    कामम- Kamam ( प्रेम)। इसके पहले खण्ड अराम में विवेक और सम्मान के साथ अच्छे नैतिक व्यवहार को बताया गया है । दूसरे खण्ड पोरुल में सांसारिक मामलों की उचित एवं विस्तृत चर्चा की गई है तथा तीसरे खण्ड कामम में पुरुष और महिला के प्रेम सम्बन्धों पर विचार किया गया है । -----------

तिरुवल्लुवर ( Thiruvalluvar )

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तिरुवल्लुवर ( Thiruvalluvar ) तिरुवल्लुवर ( Thiruvalluvar )     तमिल कवि और दार्शनिक तिरुवल्लुवर की जयंती ‘ तिरुवल्लुवर दिवस ’ (Thiruvalluvar Day ) को आमतौर पर तमिलनाडु में 15 या 16 जनवरी को मनाया जाता है और यह पोंगल समारोह का एक हिस्सा है। तिरुवल्लुवर जिन्हें वल्लुवर भी कहा जाता है , एक तमिल कवि-संत थे। धार्मिक पहचान के कारण उनकी कालावधि के संबंध में विरोधाभास है सामान्यतः उन्हें तीसरी-चौथी या आठवीं-नौवीं शताब्दी का माना जाता है। सामान्यतः उन्हें जैन धर्म से संबंधित माना जाता है । हालाँकि हिंदुओं का दावा है कि तिरुवल्लुवर हिंदू धर्म से संबंधित थे । द्रविड़ समूहों ( Dravidian Groups) ने उन्हें एक संत माना क्योंकि वे जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते थे । तिरुवल्लुवर ( Thiruvalluvar ) का दार्शनिक विचार  तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल विचार

नारायण गुरु ( Narayana Guru )

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नारायण गुरु ( Narayana Guru ) नारायण गुरु ( Narayana Guru )    नारायण गुरु भारत के महान संत एवं समाजसुधारक थे। कन्याकुमारी जिले में मारुतवन पर्वतों की एक गुफा में उन्होंने तपस्या की थी। गौतम बुद्ध को गया में पीपल के पेड़ के नीचे बोधि की प्राप्ति हुई थी। नारायण गुरु को उस परम की प्राप्ति गुफा में हुई। नारायण गुरु ( Narayana Guru ) के दार्शनिक विचार  नारायण गुरु का आध्यात्मिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता का विचार नारायण गुरु का एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर विचार

डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार

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डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार  डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार      उपाध्याय जी के अनुसार, प्राचीन भारतीय संस्कृति में रचित चतुर्थ पुरुषार्थ , पूँजीवाद और साम्यवाद की पश्चिमी विचारधारा की तरह एकीकृत एवं असन्तुष्ट व परस्पर विरोधी नहीं है । समग्र मानवतावाद के विषय में उपाध्याय जी का विचार ही समाज के समग्र एवं सतत् विकास को सुनिश्चित कर सकता है , जो व्यक्तिगत , सामाजिक , राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सुख और शान्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। उपाध्याय जी का मानना है कि पूँजीवादी और समाजवादी दोनों विचारधारा केवल शरीर एवं मन की आवश्यकताओं पर विचार करती हैं और इसलिए इच्छा और धन के भौतिकवादी उद्देश्यों पर आधारित हैं। उपाध्याय जी के अनुसार , मानव के शरीर , मन , बुद्धि एवं आत्मा चार पदानुक्रमिक संगठित गुण हैं , जो धर्म (नैतिक कर्त्तव्यों) , अर्थ (धन) , काम (इच्छा) और मोक्ष (मुक्ति) के चार सार्वभौमिक उद्देश्यों के अनुरूप हैं। इनमें से किसी को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इनमें धर्म मूल एवं मानव जाति का आधार है। धर्म वह धागा है , जो मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य ' मोक्ष ' के लिए काम ए

डी डी उपाध्याय का अद्वैत वेदान्त विचार

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डी डी उपाध्याय का अद्वैत वेदान्त विचार  डी डी उपाध्याय का अद्वैत वेदान्त विचार      उपाध्याय जी का मत था कि समग्र मानवतावाद ने आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा विकसित अद्वैत परम्परा का पालन किया है । गैर-द्वैतवाद ब्रह्माण्ड में प्रत्येक वस्तु एकीकृत के सिद्धान्त का प्रतिनिधित्व करती है , जिसका एक मुख्य भाग मानव जाति भी है । समग्र मानवतावाद गाँधी के भावी भारत के दृष्टिकोण का स्पष्ट उदाहरण है । उपाध्याय एवं गाँधीजी दोनों समाजवाद और पूँजीवाद के भौतिकवाद को समान रूप से अस्वीकार करते हैं । दोनों एकांकी वर्ग-धर्म आधारित समुदाय के पक्ष में आधुनिक समाज के व्यक्तिवाद को अस्वीकार करते हैं तथा दोनों ही राजनीति में धार्मिक , नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के उल्लंघन का विरोध करते हैं । दोनों ही हिन्दू मूल्यों को संरक्षित करने वाले सांस्कृतिक एवं आधुनिकीकरण की प्रमाणित विधि चाहते हैं । समग्र मानवतावाद में राजनीति और स्वदेशी , इन दो विषयों के आस-पास दर्शन आयोजित है । -------------

डी डी उपाध्याय का समग्र मानववाद विचार

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डी डी उपाध्याय का समग्र मानववाद विचार  डी डी उपाध्याय का समग्र मानववाद विचार      उपाध्याय जी ने मानवता के समग्र विकास पर चिन्तन को ' अन्त्योदय ' के नाम से भी जाना जाता है । वे मानते थे कि जब तक निर्धनों तथा पिछड़े लोगों का आर्थिक विकास नहीं किया जाएगा , उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की जाएगी , तब तक देश का समग्र विकास सम्भव नहीं है । अन्त्योदय एक विचार नहीं , एक पद्धति है , जिसका क्रियान्वयन होना आवश्यक है । उपाध्याय के अनुसार , " प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है । हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगे , जब तक हम हर एक को आभास न करा दें , कि पाश्चात्य सिद्धान्त स्वयं में एकांगी विकास को समेटे हुए थे , फिर चाहे वह समाजवाद हो , पूँजीवाद , साम्यवाद , उदारवाद हो अथवा व्यक्तिवाद । ” इन सबका एक ही लक्ष्य उभरकर सामने आया वह है एकांगी विकास । देश का समग्र विकास करने के लिए एक नवीन सिद्धान्त , दर्शन अथवा विकास की आवश्यकता थी , जिसे उपाध्याय के समग्र मानवतावाद ने पूर्ण किया ।     उनका मानना था कि पश्चिमी संस्कृति के उन्हीं तत्त्वों को अपनाओ जो विकास में सहायक हैं , परन्त

दीन दयाल उपाध्याय ( Deendayal Upadhyaya

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दीन दयाल उपाध्याय ( Deendayal Upadhyaya  दीन दयाल उपाध्याय ( Deendayal Upadhyaya )      पण्डित दीनदयाल उपाध्याय (जन्म: 25 सितम्बर 1916 – 11 फरवरी 1968) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद नामक विचारधारा दी। वे एक समावेशित विचारधारा के समर्थक थे जो एक मजबूत और सशक्त भारत चाहते थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में कई लेख लिखे , जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।     दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्व-दृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी। उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है।    संस्कृतिनि

अम्बेडकर का नवबुद्धवाद

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अम्बेडकर का नवबुद्धवाद  अम्बेडकर का नवबुद्धवाद      डॉ० भीमराव अम्बेडकर को नव बौद्ध दर्शन का जनक माना जाता है। 14 अक्टूबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपूर में भुक्षु चंद्रमणि द्वारा इन्होंने बुद्ध धम्म की दीक्षा ली। उन्होंने बुद्ध धम्म को अपनाने के बारें में कहा था – “बुद्ध का धम्म ही केवल एक ऐसा धर्म है जिसे विज्ञान द्वारा जागृत समाज ग्रहण कर सकता है और जिसके बिना वह नष्ट हो जाएगा । आधुनिक संसार को भी खुद को बचाने के लिए बुद्धधम्म को अपनाना होगा । अम्बेडकर बुद्ध धम्म के विषय में कहते है “मैं बुद्ध धर्म को इसलिए पसंद करता हूँ क्योंकि यह एक साथ तीन सिद्धान्त देता है जो दूसरा कोई धर्म नहीं देता । दूसरे सभी धर्म ईश्वर, आत्मा और मृत्यु के बाद का जीवन में उलझे हुए हैं । बुद्ध धर्म अंधविश्वास और अलौकिकता के मुकाबले में प्रज्ञा (ज्ञान) सिखाता है । यह करुणा (प्रेम) सिखाता है। यह समता (समानता) की शिक्षा देता है । बुद्ध धर्म के ये तीन सिद्धान्त मुझे अकृषित करते हैं। दुनिया को भी ये तीनों सिद्धान्त पसंद आने चाहिए । न तो ईश्वर और न आत्मा संसार को बचा सकते है” । -----------

अम्बेडकर का हिन्दुवाद दर्शन

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अम्बेडकर का हिन्दुवाद दर्शन  अम्बेडकर का हिन्दुवाद दर्शन  हिन्दू धर्म संस्था के बारे में डॉ. अम्बेडकर ने अपना दृष्टिकोण निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया है – “जो धर्म इंसानों में मानवीय बर्ताव को वर्जित करता है वह धर्म , धर्म नहीं है , बल्कि एक दण्ड है , एक सजा है” । जिन कारणों से डॉ. अंबेडकर ने हिन्दूवाद का त्याग किया , उनकी व्याख्या , उन्होंने इस प्रकार की है – 1.     अज्ञान को प्रोत्साहन - हिन्दूवाद अज्ञान का उत्पादक , पालक और प्रचारक है । गीता का यह आदेश कि ' अज्ञानी को अज्ञानी ही रहने दो , किसी प्रकार के बौद्धिक विकास की गुंजाइश नहीं छोड़ता । 2.    नैतिकता का अभाव - नैतिकता हिन्दूवाद की बुनियाद नहीं । जैसे - रेल के किसी डिब्बे को कभी गाड़ी से जोड़ दिया जाता है तो कभी अलग कर लिया जाता है, ऐसे ही हिन्दूवाद में नैतिकता का स्थान है । 3.    असमता - जातिभेद , छुआछात , भेदभाव और क्रमवार ना-बराबरी हिन्दूवाद के अभिन्न अंग हैं क्योंकि उनको हिन्दू धर्म शास्त्रों का समर्थन प्राप्त है , इनको मिटाने का मतलब है हिन्दूवाद को मिटाना । हिन्दू यह करने के लिए न कभी पहले तैयार थे , न इस