डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार
डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार |
डी डी उपाध्याय का पुरुषार्थ विचार
उपाध्याय जी के अनुसार, प्राचीन भारतीय संस्कृति में रचित
चतुर्थ पुरुषार्थ, पूँजीवाद और साम्यवाद की पश्चिमी विचारधारा की
तरह एकीकृत एवं असन्तुष्ट व परस्पर विरोधी नहीं है । समग्र मानवतावाद के विषय में
उपाध्याय जी का विचार ही समाज के समग्र एवं सतत् विकास को सुनिश्चित कर सकता है,
जो व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय
और वैश्विक स्तर पर सुख और शान्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। उपाध्याय जी का मानना
है कि पूँजीवादी और समाजवादी दोनों विचारधारा केवल शरीर एवं मन की आवश्यकताओं पर
विचार करती हैं और इसलिए इच्छा और धन के भौतिकवादी उद्देश्यों पर आधारित हैं। उपाध्याय
जी के अनुसार, मानव के शरीर, मन,
बुद्धि एवं आत्मा चार पदानुक्रमिक संगठित गुण हैं, जो धर्म (नैतिक कर्त्तव्यों), अर्थ (धन), काम (इच्छा) और मोक्ष (मुक्ति) के चार सार्वभौमिक उद्देश्यों के अनुरूप
हैं। इनमें से किसी को भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। इनमें धर्म मूल एवं मानव जाति
का आधार है। धर्म वह धागा है, जो मानव जीवन के सर्वोच्च
लक्ष्य 'मोक्ष' के लिए काम एवं अर्थ का
पालन करता है। धर्म आधारभूत पुरुषार्थ है, किन्तु तीन अन्य
पुरुषार्थ एक-दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं। राज्य का आधार भी धर्म को माना गया है।
उपाध्याय जी के अनुसार, धर्म महत्त्वपूर्ण है, परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थ के अभाव में धर्म टिक नहीं पाता।
उपाध्याय जी कहते हैं ‘अर्थ के अभाव के समान ही अर्थ का प्रभाव भी धर्म के लिए
घातक होता है। जब समाज में अर्थ साधन न होकर साध्य बन जाए तथा जीवन की सभी
विभूतियाँ अर्थ से ही प्राप्त हों तथा अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो, तो अर्थ संचय के लिए व्यक्ति अनुचित कार्य करता है। इसी प्रकार अधिक धन
होने से व्यक्ति के विलासी बन जाने की सम्भावना अधिक होती है। उपाध्याय जी ने कहा
है कि हमारे चिन्तन में व्यक्ति के शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा सभी के विकास करने का उद्देश्य रखा गया है। अत: उपाध्याय जी
ने पश्चिमी अवधारणा के विपरीत समग्र मानवतावाद की अवधारणा पर विशेष बल दिया है।
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