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Wednesday, June 8, 2022

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

 उपनिवेशवाद ( Colonialism )

उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी नीति जिसके तहत किसी देश का आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियन्त्रण किया जाता है। नियन्त्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है। भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है –

1.    वाणिज्य चरण (1757-1813 तक)

        इस चरण की शुरुआत प्लासी के युद्ध से होती है जिसमें ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण कब्जा कर लिया था। इस समय कम्पनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केन्द्रित रहा इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार के एम पणिक्कर ने इसे डाकू राज्य कहा। इस काल में ब्रिटिश कम्पनी को व्यापारिक एकाधिकार के लिए पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ कई युद्ध भी लड़ने पड़े। प्रथम चरण में ब्रिटिश कम्पनी के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना ।
  • राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना।
  • कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना।
  • अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियो को हर सम्भव तरीकों से भारत से बाहर निकालना।
  • भारतीय प्रशासन, परम्परागत न्यायिक कानूनों, यातायात संचार तथा औद्योगिक व्यवस्था में परिवर्तन किए बिना ही पूंजी को इकट्ठा करना।

2.   उद्योग मुक्त व्यापाररिक चरण (1813-1858 तक)

         1813 के बाद भारत के व्यापार से ब्रिटिश कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो गया। इसके बाद औद्योगिक पूंजीवाद का प्रारम्भ हुआ। इस समय इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति को ध्यान में रखकर नई नीतियाँ बनाई जाने लगी और भारत को कच्चे माल उत्पादन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। 1813 का चार्टर एक्ट पारित कर भारत के प्रति ब्रिटेन ने मुक्त व्यापार की नीति को अपनाना शुरू किया। चाय और चीनी को छोड़कर सभी व्यापार से अपना अधिकार समाप्त कर प्रत्येक ब्रिटिश व्यापारी के लिए भारत का दरवाजा खोल दिया। परिणाम स्वरूप भारत कच्चे माल का निर्यातक और तैयार माल का आयातक बनकर रह गया। जिससे भारत के वस्त्र उद्योग के साथ साथ अन्य सभी उद्योग समाप्त हो गए। इसी काल में भारत में रेल का विकास हुआ।

3.   वित्तीय पूंजीवाद का चरण (1860 के बाद) 

        1857 के विद्रोह के बाद इंग्लैंड के बाहर अन्य यूरोपीय देशों में बढ़ते औद्योगीकरण की स्पर्धा से भारत में उपनिवेशवाद का तीसरा चरण प्रारम्भ हुआ जिसे वित्तीय पूंजीवाद की संज्ञा दी गई। वित्तीय पूंजीवाद ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ओर खोखला कर दिया। परिणामस्वरूप भारतीयों को सार्वजनिक ऋण पर ब्याज की अदायगी करनी पड़ती थी जिससे पूंजी निर्माण में निवेश की प्रक्रिया कमजोर होती चली गई।

     भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का भीमराव अम्बेडकर ने गहनता से विश्लेषण किया और आलोचना करते हुए कहा कि –

  • औपनिवेशक शासकों ने भेदभावपूर्ण नीति का पालन किया।
  • भारतीय संसाधनों का फायदा उठाया।
  • कर के द्वारा भारतीय किसानों पर अधिक बोझ डाला।
  • वित्तीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में असफल रहा।
  • मौद्रिक व्यवस्था में असंतुलन पैदा किया।
  • भारत सरकार ने इंग्लैंड के लिए अयोग्य तरीके से अधिक भुगतान किया।

इस प्रकार भारत को एक अविकसित देश बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि इसके संसाधनों का इस्तेमाल स्वयं के आर्थिक विकास के लिए इंग्लैंड द्वारा किया गया था।

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Tuesday, June 7, 2022

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

    प्राचीन भारत में शिक्षा और धर्म को एक दूसरे से भिन्न नहीं समझा जाता था। शिक्षा को ही मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना जाता था। आदिगुरु शंकराचार्य के अनुसार, “सः विद्या या विमुक्तये” अर्थात शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाए। भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द भी शिक्षा को धर्म से अलग नहीं समझते थे। उनके अनुसार “मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है”। ऋषि देव दयानंद के अनुसार सीखने की प्रक्रिया गर्भावस्था से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती है। उन्होंने शिक्षा को आन्तरिक शुद्धि के रूप में माना है। स्वामी दयानंद के अनुसार ‘‘शिक्षा वह है, जिससे मनुष्य-विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त करें और अविद्या आदि दोषों को त्याग कर सदैव आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सके।’’

भारतीय शिक्षा की विकास विकास यात्रा

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968

  • स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर यह पहली नीति कोठारी आयोग (1964-1966) की सिफारिशों पर आधारित थी।
  • शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित किया गया।
  • 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य और शिक्षकों का बेहतर प्रशिक्षण और योग्यता पर फोकस।
  • नीति ने प्राचीन संस्कृत भाषा के शिक्षण को भी प्रोत्साहित किया, जिसे भारत की संस्कृति और विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा माना जाता था।
  • शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का 6 प्रतिशत व्यय करने का लक्ष्य रखा।
  • माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्रलागू करने का आह्वान किया गया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986

  • इस नीति का उद्देश्य असमानताओं को दूर करने विशेष रूप से भारतीय महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जाति समुदायों के लिये शैक्षिक अवसर की बराबरी करने पर विशेष ज़ोर देना था।
  • इस नीति ने प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिये "ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड" लॉन्च किया।
  • इस नीति ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ ओपन यूनिवर्सिटीप्रणाली का विस्तार किया।
  • ग्रामीण भारत में जमीनी स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित "ग्रामीण विश्वविद्यालय" मॉडल के निर्माण के लिये नीति का आह्वान किया गया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संशोधन, 1992

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में संशोधन का उद्देश्य देश में व्यावसायिक और तकनीकी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये अखिल भारतीय आधार पर एक आम प्रवेश परीक्षा आयोजित करना था।
  • इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त प्रवेश परीक्षा (Joint Entrance Examination-JEE) और अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (All India Engineering Entrance Examination-AIEEE) तथा राज्य स्तर के संस्थानों के लिये राज्य स्तरीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (SLEEE) निर्धारित की।
  • इसने प्रवेश परीक्षाओं की बहुलता के कारण छात्रों और उनके अभिभावकों पर शारीरिक, मानसिक और वित्तीय बोझ को कम करने की समस्याओं को हल किया।

Ø  राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में शिक्षा की पहुँच, समता, गुणवत्ता, वहनीयता और उत्तरदायित्व जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान दिया गया है। नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 6% हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ (Ministry of Human Resource Development- MHRD) का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय’ (Education Ministry) करने को भी मंज़ूरी दी गई है।

 प्रमुख बिंदु

Ø  प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित प्रावधान

  • 3 वर्ष से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम का दो समूहों में विभाजन-
  • 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये आँगनवाड़ी/बालवाटिका/प्री-स्कूल (Pre-School) के माध्यम से मुफ्त, सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • 6 वर्ष से 8 वर्ष तक के बच्चों को प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 और 2 में शिक्षा प्रदान की जाएगी।
  • प्रारंभिक शिक्षा को बहुस्तरीय खेल और गतिविधि आधारित बनाने को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • NEP में MHRD द्वारा बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational Literacy and Numeracy) की स्थापना की मांग की गई है।
  • राज्य सरकारों द्वारा वर्ष 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा-3 तक के सभी बच्चों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त करने हेतु इस मिशन के क्रियान्वयन की योजना तैयार की जाएगी।

Ø  भाषायी विविधता को संरक्षण

  • NEP-2020 में कक्षा-5 तक की शिक्षा में मातृभाषा/ स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है, साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
  • स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परंतु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी।

Ø  पाठ्यक्रम और मूल्यांकन संबंधी सुधार

  • इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा।
  • कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप (Internship) की व्यवस्था भी दी जाएगी।
  • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and Training- NCERT) द्वारा स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ (National Curricular Framework for School Education) तैयार की जाएगी।
  • छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किये जाएंगे। इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिये मानक-निर्धारक निकाय के रूप में परख’ (PARAKH) नामक एक नए राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ (Artificial Intelligence- AI) आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग।

Ø  शिक्षण व्यवस्था से संबंधित सुधार

  • शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर लिये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद वर्ष 2022 तक शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education-NCFTE) का विकास किया जाएगा।
  • वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया जाएगा।

Ø  उच्च शिक्षा से संबंधित प्रावधान

  • NEP-2020 के तहत उच्च शिक्षण संस्थानों में सकल नामांकन अनुपात’ (Gross Enrolment Ratio) को 26.3% (वर्ष 2018) से बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य रखा गया है, इसके साथ ही देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ा जाएगा।
  • NEP-2020 के तहत स्नातक पाठ्यक्रम में मल्टीपल एंट्री एंड एक्ज़िट व्यवस्था को अपनाया गया है, इसके तहत 3 या 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान
  • किया जाएगा (1 वर्ष के बाद प्रमाणपत्र, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक)।
  • विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से प्राप्त अंकों या क्रेडिट को डिजिटल रूप से सुरक्षित रखने के लिये एक एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic Bank of Credit) दिया जाएगा, जिससे अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें डिग्री प्रदान की जा सके।
  • नई शिक्षा नीति के तहत एम.फिल. (M.Phil) कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया।

Ø  भारत उच्च शिक्षा आयोग

  • चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर पूरे उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिये एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (Higher Education Commission of India -HECI) का गठन किया जाएगा।
  • HECI के कार्यों के प्रभावी और प्रदर्शितापूर्ण निष्पादन के लिये चार संस्थानों/निकायों का निर्धारण किया गया है-

    1. विनियमन हेतु- राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (National Higher Education Regulatory Council- NHERC)
    2. मानक निर्धारण- सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council- GEC)
    3. वित पोषण- उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council-HEGC)
    4. प्रत्यायन- राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (National Accreditation Council- NAC)

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Sunday, June 5, 2022

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property )

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property ) 

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property ) 

    सम्पत्ति से तात्पर्य ऐसे वस्तु से है जिस पर कोई व्यक्ति या समूह स्वामित्व रखता है तथा उसे रखने, नष्ट करने, बेचने या किसी को उपहार देने का दावा रखता है। उपभोग के आधार पर सम्पत्ति दो प्रकार की होती है –

  1. चल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जिसे व्यक्ति अपने उपभोग के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकता है, चल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – मुद्रा, आभूषण, सोना, चांदी आदि ।
  2. अचल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जीसे व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जा सकता, अचल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – भूमि, भवन, उद्यान आदि ।

संपत्ति का अधिकार (Right to Property)

    संपत्ति के अधिकार को वर्ष 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार से विधिक अधिकार में परिवर्तित कर दिया गया था। 44वें संविधान संशोधन से पहले यह अनुच्छेद-31 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार था, परंतु इस संशोधन के बाद इस अधिकार को अनुच्छेद- 300(A) के अंतर्गत एक विधिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार भले ही संपत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं रहा इसके बावजूद भी राज्य किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से उचित प्रक्रिया और विधि के अधिकार का पालन करके ही वंचित कर सकता है।

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विवाह ( Vivah ) का स्वरूप

विवाह ( Vivah ) का स्वरूप 

विवाह ( Vivah ) का स्वरूप 

    वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, “स्त्री और पुरुष दोनों नदी के दो तटबन्द है और दोनों के बीच विवाह की जीवनधारा प्रवाहित होती है”। मेधतिथि के अनुसार, “विवाह कन्या को स्त्री बनाने के लिए एक निश्चित क्रम से की जाने वाली अनेक विधियों से सम्पन्न होने वाला पाणिग्रहण संस्कार है”। डॉ के एम कपाड़िया ने हिन्दू विवाह के तीन उद्देश्य – धर्म, प्रजा एवं रति कहा है। हिन्दू विवाह के अनेक प्रकार मनु और यज्ञवल्क्य स्मृतियों में मिलता है। मनु महाराज ने विवाह के 8 प्रकार कहे है जिनका वर्णन निम्नलिखित है –

  1. ब्रह्म विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता योग्य एवं चरित्रवान युवक को खोजकर धर्मिक संस्कार के द्वारा अपनी कन्या का को वस्तु तथा अलंकारों से सुसज्जित कर उसे वर को दान देता है। यह सभी प्रकार के विवाहों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
  2. दैव विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करता है और इस यज्ञ के लिए योग्य विद्वानों और पुरोहितों को आमंत्रित करता है। जो भी आमंत्रित युवक यज्ञ को भली-भांति संचालित कर लेता है वह कन्या को वर लेता है।
  3. आर्ष विवाह – इस विवाह में कन्या के पिता द्वारा वर से एक गाय, बैल लेकर कन्या का विवाह उस वर से कर देता है। इस विवाह का प्रचालन ऋषियों में था।
  4. प्रजापत्य विवाह – इस विवाह में कन्या एवं वर को यज्ञशाला में बैठाकर संस्कार किया जाता है। इस विवाह में पुरुष संतान उत्पन्न करने को प्राथमिकता दी जाती है।
  5. असुर विवाह – यह एक प्रकार का क्रय विवाह है।
  6. गन्धर्व विवाह – यह एक प्रेम विवाह है।
  7. राक्षस विवाह – कन्या का अपहरण कर विवाह करना राक्षस विवाह होता है।
  8. पैशाच विवाह – किसी कन्या को बलात या बेसुध अवस्था में दूषित कर विवाह करना पैशाच विवाह कहलाता है।

भारत में विवाह सम्बन्धी अधिनियम

  • हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में हिन्दुओं में विवाह की आवश्यक शर्तें निर्धारित की गई हैं, जो इस प्रकार हैं -
    1. विवाह के समय किसी पक्ष की भाँति पति- पत्नी जीवित नहीं होना चाहिए।
    2. विवाह की आयु में वर्ष 1976 में संशोधन कर वर की आयु 21 वर्ष और कन्या की आयु 18 वर्ष कर दी गई। इसको वर्ष 1978 में लागू किया गया।
    3. दोनों पक्षों में से कोई भी विवाह के समय विकृत/पागल न हो ।
    4. वर ने 18 वर्ष तथा वधू ने 15 वर्ष की आयु विवाह के समय पूरी कर ली हो।
    5. दोनों पक्ष एक-दूसरे से सपिण्ड नहीं होने चाहिए।
    6. दोनों पक्ष निषेधात्मक पक्ष की श्रेणी में न आते हों जब तक कि कोई प्रथा, जिसके द्वारा वे नियन्त्रित होते हैं और इस प्रकार का विवाह करने की आज्ञा न देती हो।
    7. यदि वधू ने 15 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं की है, तब यदि उसके कोई अभिभावक हो, की अनुमति विवाह के लिए प्राप्त करना जरूरी है।
    8. एक विवाह प्रथा को मान्यता।
    9. स्त्री-पुरुष को समान रूप से विवाह-विच्छेद का अधिकार।
  • मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1937 में स्त्रियों को सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार दिए गए। 1939 के अधिनियम में तलाक का अधिकार मिला।
  • बाल-विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 यह अधिनियम वर्ष 1929 में लागू हुआ, जिसे शारदा एक्ट भी कहते हैं। इसमें लड़की की उम्र 14 वर्ष तथा लड़के की 18 वर्ष निर्धारित की गई थी, जिसे बाद में संशोधन कर लड़की की उम्र 15 वर्ष कर दी गई।
  • विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 के अन्तर्गत सभी जातियों की विधवाओं को पुनः विवाह करने का अधिकार मिला।
  • विशेष हिन्दू विवाह अधिनियम (1872, 1923, 1954) वर्ष 1954 में पारित विशेष विवाह अधिनियम के द्वारा पहले के दोनों कानूनों को समाप्त कर दिया गया और इसी में अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता प्रदान की गई।

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परिवार ( Family )

परिवार ( Family )

परिवार ( Family )

    डॉ डी एन मजूमदार के अनुसार “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक मकान में रहते है, रक्त द्वारा सम्बन्धित है और स्थान, स्वार्थ तथा पारस्परिक कर्तव्य-बोध के आधार पर समान होने की भावना रखते है”। भारत में एकल परिवार की अपेक्षा संयुक्त परिवार का गठन पाया जाता है। कर्वे के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते है, जो एक रसोई में पका भोजन करते है जो सामान्य सम्पत्ति के अधिकारी होते है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते है तथा जो परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से सम्बन्धित है”। देसाई के अनुसार, “हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते है जिसमें एकाकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढ़ियों के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जो एक दूसरे से सम्पत्ति, आय और परस्पर अधिकारों तथा कर्तव्यों द्वारा बँधे होते हैं”। श्रीनिवास के अनुसार, “वह गृहस्थ समूह जो प्रारम्भिक परिवार से बड़े होते है और जिनमें सामान्यतः दो या दो से अधिक एकाकी परिवार पाए जाते हैं, संयुक्त या विस्तृत परिवार कहलाते हैं”। 

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सामाजिक न्याय ( Social justice )

सामाजिक न्याय ( Social justice ) 

सामाजिक न्याय ( Social justice ) 

    सामाजिक न्याय से तात्पर्य सामाजिक समानता से है। सामाजिक न्याय का सिद्धान्त यह माँग करता है कि सामाजिक जीवन में सभी मनुष्यों की गरिमा को स्वीकार किया जाए। लिंग, वर्ण, जाति, धर्म व स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाए साथ में प्रत्येक व्यक्ति को आत्मविकास के सभी अवसर सुलभ कराए जाए। सामाजिक न्याय के अन्तर्गत आर्थिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के न्याय को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में सामाजिक न्याय के विषय में कहा गया है कि “एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओ को अनुप्राणित करें”। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘जाति-प्रथा का उन्मूलन’ और ‘शूद्र कौन थे’ में सामाजिक न्याय का समर्थन किया है।

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सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )

सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya ) 

सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )  

    सकारात्मक क्रिया को भारत एवं नेपाल में आरक्षण तथा यूनाइटिड किंगडम में सकारात्मक विभेद तथा साउथ अफ्रीका और कनाडा में रोजगार साम्यता के नाम से जाना जाता है। भारत में सकारात्मक क्रिया अर्थात आरक्षण की शुरुआत 1882 में हण्टर आयोग अर्थात ‘भारतीय शिक्षा आयोग’ के गठन के साथ हुई थी। विलियम हण्टर इस आयोग के सदस्य थे। इस आयोग की मुख्य सिफारिश निम्नलिखित थी –

  • प्राथमिक शिक्षा व्यवहारिक हो।
  • प्राथमिक शिक्षा देशी भाषाओं में हो।
  • शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में शिक्षा विभाग स्थापित हो।
  • धार्मिक शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाए।
  • बालिकाओं के लिए सरल पाठ्यक्रम व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो।
  • अनुदान सहायता छात्र-शिक्षक की संख्या व आवश्यकता के अनुपात में दिया जाए।
  • देशी शिक्षा के पाठ्यक्रम में परिवर्तन न करके पूर्ववत चलने दिया जाए।

    इसी समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने सभी के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा तथा अग्रेजी सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की माँग की थी। इसके बाद वर्ष 1902 में महाराष्ट्र की सामन्ती रियासत कोल्हापूर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण की शरुआत की गई यह अधिसूचना भारत में दलित व पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण देने वाला पहला सरकारी आदेश था। इसके बाद भीमराव अम्बेडकर जी ने दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग की और वर्ष 1935 में भारत सरकार अधिनियम में आरक्षण का प्रावधान किया गया। बाद में 26 जनवरी 1950 में आरक्षण अधिनियम में विशेष धराएं जोड़ी गई जिसके आधार पर सामाजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति एवं जनजाति की उन्नति के लिए आरक्षण लागू किया गया। इसके साथ 10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए अलग से निर्वाचित क्षेत्र निर्धारित किए गए। इसी अधिनियम में अन्य पिछड़ा वर्ग एवं महिलाओं को भी आरक्षण प्रदान किया गया। वर्ष 2019 में भारत सरकार ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्गों के लोगों के लिए 10% आरक्षण लागू किया।

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Friday, June 3, 2022

राज्य का समाजवाद ( State Socialism )

राज्य का समाजवाद ( State Socialism ) 

राज्य का समाजवाद ( State Socialism )  

    राजकीय समाजवाद का दर्शन सर्वप्रथम फर्डीनेण्ड लैस्ले द्वारा दिया गया। यह विचार कार्ल-मार्क्स के विचारों के विपरीत था। लैस्ले ने राज्य को वर्ग निष्ठा से स्वतन्त्र और न्याय के साधन के रूप में एक इकाई माना है, जो समाजवाद की उपलब्धि के लिए आवश्यक है। भारत में समाजवाद सामाजिक लोकतन्त्र के रूप में सथापित किया गया। अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘स्टेट एण्ड माइनोरिटिस’ (राज्य और अल्पसंख्यक, 1947) में कहा है कि “संसदीय लोकतन्त्र के साथ संवैधानिक राज्य समाजवाद के रूप में भारत के लिए एक राजनीतिक और आर्थिक संरचना को प्रस्तावित किया गया है”। अम्बेडकर का मानना था कि संविधानिक कानूनों के द्वारा तीन उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है –

  1. समाजवाद की स्थापना
  2. संसदीय लोकतन्त्र की स्वतंत्रता
  3. तानाशाही से बचना ।

राज्य समाजवाद पर अम्बेडकर के विचार

  • राज्य समाजवाद समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए वैकल्पिक दृष्टिकोणों में से एक है ।
  • यह पूँजीवाद और समाजवाद में अंतर्निहित समस्याओं के समाधान के रूप में कार्य कर सकता है । अम्बेडकर को दृढ़ता से यह विश्वास था कि आर्थिक विकास के लिए राज्य की भागीदारी आवश्यक है । उनका मानना था कि राज्य को विकास में एक सक्रिय भूमिका निभाना चाहिए, ताकि कमजोर और गरीब को लाभान्वित किया जा सके।
  • राज्य समाजवाद समुदायों को बेहतर अवसर प्रदान करता है और जनता के शोषण और क्षेत्रीय असमानताओं को प्रतिबंधित करता है। अम्बेडकर का मानना था कि जनता के शोषण तथा दमन का मुख्य कारण स्रोतों का असमान वितरण और विभाजन था। जितने लंबे समय तक शोषण प्रणाली में मौजूद है, विकास असंभव है और एक सपना होगा । केवल राज्य ही इस शोषण को कम कर सकता है।
  • अम्बेडकर का मानना था कि यह राज्य का एक दायित्व है कि वह लोगों के आर्थिक जीवन के तर्ज पर योजना बनाये, जो निजी उद्यमों के लिए हर अवसर बंद किये बिना उत्पादकता के उच्चतम बिंदु के लिए नेतृत्व करे और संपत्ति का समान वितरण भी प्रदान करें ।
इस प्रकार अम्बेडकर ने एक ऐसी आर्थिक नीति ढाँचे का सुझाव दिया जिसका उद्देश्य समाज के कमजोर वर्गों को आर्थिक शोषण के विरूद्ध सुरक्षा प्रदान कराना हो। यह योजना उनके संविधान सभा के ज्ञापन में खंड -4 , लेख -2 में सविस्तार है, जो निम्नलिखित रूप में रेखांकित किया गया है-
  • कृषि राज्य का उद्योग बने ।
  • प्रमुख उद्योगों का स्वामित्व और संचालन राज्य द्वारा हो।
  • जीवन बीमा योजना सभी व्यस्क नागरिक के लिए अनिवार्य हो।
  • राज्य को कृषि भूमि, जो मालिकों, किरायेदारों या बंधक के रूप में निजी व्यक्तियों द्वारा आयोजित है, में संविदा अधिकार प्राप्त हो । प्रमुख और बुनियादी उद्योगों और बीमा क्षेत्र और ऋण पत्र जारी करके मालिकों को क्षतिपूर्ति प्रदान करें।
  • प्राप्त कृषि भूमि को मानक आकार के खेतों में विभाजित किया गया और जाति या धर्म के भेदभाव के बिना, गाँवों के निवासियों को किरायेदार के रूप में बचाव रास्ता दिया गया।

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सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

    सामाजिक लोकतन्त्र एक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधारा है। यह विचारधारा एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय एवं आर्थिक न्याय का समर्थन करती है। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ने नवंबर 1949 के संविधान सभा के अन्तिम भाषण में सामाजिक लोकतन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था – “सामाजिक लोकतन्त्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे सामाजिक सिद्धांत मूल सिद्धान्त होंगें”। भीमराव अम्बेडकर जी ने सामाजिक लोकतन्त्र के चार स्तम्भ कहे है –

  1. न्यायपालिका
  2. कार्यपालिका
  3. विधायिका
  4. मीडिया   

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सर्वोदय ( Sarvodaya )

सर्वोदय ( Sarvodaya ) 

सर्वोदय ( Sarvodaya )  

    सर्वोदय एक सामाजिक आदर्श का संप्रत्यय है, जिसका अर्थ है – “सबका उदय, सबका उत्कर्ष या विकास”। सर्वोदय का विचार हमारी संस्कृति का सनातन अंग है जिसका प्रमाण ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत’। अर्थात - सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। जैनाचार्य समंतभद्र ने कहा है – ‘सर्वापदा मन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तथैव’ । वर्तमान काल में गाँधी जी को रस्किन की पुस्तक ‘अन्टु दिस लास्ट’ से प्रेरणा मिली और उन्होंने उस पुस्तक का अनुवाद किया । इस अनुवादित पुस्तक का नाम गाँधी जी ने सर्वोदय रखा । रस्किन की पुस्तक की तीन बातें मुख्य है –

  1. व्यक्ति का श्रेय समष्टि के श्रेय में ही निहित है ।
  2. वकील का काम हो चाहे मोची का, दोनों का मूल्य समान है। इस समानता का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलाने का समान अधिकार है।
  3. शारीरिक श्रम करने वाले का जीवन जी सच्चा और सर्वोत्कृष्ट जीवन है।

    इस प्रकार गाँधी जी ने एक सामाजिक आदर्श का विचार प्रस्तुत किया जिसे सर्वोदय कहा गया ।  गाँधी जी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी तथा सहकर्मी विनोबा भावे ने इस विचार को विस्तारित किया और अपने अनेक कार्यकर्मों के द्वारा सर्वोदय की विचार का एक मूर्त रूप प्रस्तुत किया।

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सत्याग्रह ( Satyagraha )

सत्याग्रह ( Satyagraha ) 

 सत्याग्रह ( Satyagraha ) 

    गाँधी जी के अनुसार, ‘अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बजाए स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय प्राप्त करना ही सत्याग्रह है’। गाँधी जी कहते है कि निर्बल व्यक्ति का प्रतिरोध निष्क्रिय होता है परंतु सत्याग्रह निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं है क्योंकि “निर्बल सत्याग्रह हो ही नहीं सकता”। गाँधी जी का सत्याग्रह अनेक रूपों में सक्रिय रहा जिनका वर्णन इस प्रकार है –

  1. असहयोग आन्दोलन – वर्ष 1919-20 में गाँधी जी द्वारा घोषणा की गई कि भारतीय किसी भी रूप में ब्रिटिश सरकार का सहयोग नहीं करेंगे इसी को असहयोग आन्दोलन कहा गया।
  2. सविनय अवज्ञा आन्दोलन – वर्ष 1930 में ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगे प्रतिबन्ध के विरुद्ध गाँधी जी ने अहिंसा पूर्वक इस कानून का उलंघन किया और दांडी यात्रा की इसी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन कहते है।
  3. हिजरत – आत्मसम्मान की दृष्टि से स्वयं निवास स्थान छोड़ने को हिजरत कहते है। वर्ष 1928 में बारदोली और वर्ष 1939 में बिठ्ठलगढ़ और लिम्बाड़ी की जनता को गाँधी जी द्वारा यह सुझाव दिया गया था।
  4. अनशन – अतमशुद्धि और अत्याचारियों के हृदय परिवर्तन के लिए अहिंसा पूर्वक स्वेच्छा से आध्यात्मिक बल से सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किया गया अन त्याग अनशन कहलाता है। गाँधी जी के अनुसार इसे उग्र अस्त्र मानते थे और कहते थे कि इस अस्त्र का प्रयोग हर किसी व्यक्ति द्वारा नहीं बल्कि आध्यात्मिक बल से सम्पन्न व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए क्योंकि इसके सफल प्रयोग के लिए मानसिक शुद्धता, अनुशासन और नैतिक मूल्यों में आस्था की अत्यधिक आवश्यकता होती है।

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Thursday, June 2, 2022

स्वदेशी ( Swadeshi )

स्वदेशी (  Swadeshi ) 

स्वदेशी (  Swadeshi ) 

    स्वदेशी का अर्थ – अपने देश में निर्मित वस्तु उत्पादन के उपभोग से है। भारत में स्वदेशी भाव का उद्भव बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ था। स्वदेशी भाव से उत्पन्न यह आन्दोलन वर्ष 1905 से 1911 तक चला। इस आन्दोलन के प्रमुख विचारक रविन्द्रनाथ ठाकुर, लाल लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष एवं वीर सावरकर थे। इस स्वदेशी आन्दोलन से ही वर्ष 1906 के बाद हिन्दी का स्वभाषा के रूप में मार्ग प्रशस्त हुआ। मदन मोहन मालवीय जी ने स्वदेशी की भावना से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और हिन्दी को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया, साथ ही अभ्युदय, मर्यादा और हिन्दुस्तान नामक समाचार पत्रों का सम्पादन भी किया।

     स्वदेशी आन्दोलनों के विषय में महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘भारत का वास्तविक शासन बंगाल विभाजन से उपरान्त शुरू हुआ। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और फैशन में स्वदेशी की भावना का संचार हुआ। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के किसी भी चरण में इतनी अधिक सांस्कृतिक जागृति देखने को नहीं मिलती जितनी स्वदेशी आन्दोलनों के दौरान मिलती है’। गाँधी जी कहते है –“स्वदेशी की भावना का अर्थ हमारी वह भावना है जो हमें दूर को छोड़कर समीपवर्ती परिवेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। महात्मा गाँधी ने इसी स्वदेशी भावना को ‘स्वराज’ कहा था।    

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आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या 

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या 

    वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने आतंकवाद को लोगों को भयभीत करने अथवा सरकार या किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कोई कार्य करने अथवा नहीं करने के लिये बाध्य किये जाने के प्रयोजन से नागरिकों अथवा निहत्थे लोगों को मारने अथवा गंभीर शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए किसी कार्य के रूप में परिभाषित किया। संयुक्त राज्य रक्षा विभाग ने आतंकवाद को प्राय: राजनीतिक, धार्मिक अथवा वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सरकार अथवा समाज को अवपीड़ित या भयभीत करने हेतु  व्यक्तियों अथवा संपत्ति के विरुद्ध बल अथवा हिंसा का गैर-कानूनी अथवा धमकी भरे प्रयोगके रूप में परिभाषित किया है।

    आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987 अर्थात् टाडा भारत में ऐसा पहला विशेष कानून था जिसने आतंकवाद की परिभाषा देने का प्रयास किया था। इसके बाद आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 (पोटा) आया। वर्ष 2004 में गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 को आतंकवादी गतिविधिकी परिभाषा शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।

आतंकवाद की घटनाएं

  • अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर आतंकी हमला – 9/नवंबर/2001
  • भारतीय संसद पर हमला – 13/दिसंबर/2001
  • भारत में मुम्बई के ताज होटल पर हमला – 26/नवंबर/2008
  • पठानकोट सेना पर आतंकी हमला – 2/जनवरी/2016
  • पुलवामा में सेना पर आतंकी हमला – 14/फरवरी 2019

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पूर्ण क्रान्तिवाद ( Total Revolutionism )

पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism )

पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism )

    पूर्ण क्रांतिवाद का अर्थ है – ‘वह क्रांति जो व्यक्त और समुदाय के समस्त विकास पर बल देती हो पूर्ण क्रांति कहलाती है’। भारत में पूर्ण क्रांतिवाद का उदय ज्योतिबा फुले राव की राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समानता के साथ सत्यशोधक आन्दोलन के द्वारा होता है। इनके बाद जयप्रकाश नारायण ने 20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में पूर्ण क्रांति की अवधारणा को व्यापक रूप दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुसार, ‘सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है’। जयप्रकाश नारायण ने स्वयं कहा था कि मेरी पूर्ण क्रांति सात क्रांतियों का एक संयोजन है। अर्थात मेरा उद्देश्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांकृतिक, बौद्धिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और सर्वोदय के आदर्शों के अनुरूप समाज में बदलाव लाना है’।

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संविधानवाद ( Constitutionalism )

संविधानवाद ( Constitutionalism ) 

संविधानवाद ( Constitutionalism ) 

   संविधानवाद एक आधुनिक विचारधारा है जो विधि द्वारा नियंत्रित राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना पर बल देती है। पीटर एच मार्क के अनुसार, ‘संविधानवाद का तात्पर्य सुव्यवस्थित और संगठित राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रण में रखना है’। कार्ल जे फैडरिक के अनुसार, ‘शक्तियों का विभाजन सभ्य सरकार का आधार है, यही संविधानवाद है’। कॉरी और अब्राहम के अनुसार, ‘स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहते है’। जे एस राउसेक के अनुसार, ‘धारणा के रूप में संविधानवाद का अर्थ है कि यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासित तथा शासन के ऊपर नियंत्रण की एक व्यवस्था है’। के सी व्हीयर के अनुसार, ‘संवैधानिक शासक का अर्थ किसी शासन के नियमों के अनुसार शासन चलाने से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार इस सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “संविधानवाद सीमित शासन का प्रतीक है”।

संविधानवाद की तीन प्रमुख अवधारनाएं है –

  1. पाश्चात्य अवधारणा – यह अवधारणा लोकतन्त्र में पूंजीवाद का समर्थन करती है। इसे उदारवादी लोकतंत्रितक अवधारणा भिक कहते है।
  2. साम्यवादी अवधारणा – यह लोकतन्त्र में समाजवाद का समर्थन करती है। इसे मार्क्सवादी अवधारणा भी कहते है।
  3. विकसित लोकतान्त्रिक अवधारणा – यह अवधारणा उन राज्यों में विकसित हुई जो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वतंत्र हुए। इस अवधारणा की ‘तृतीय विश्व’ के नाम से भी जानी जाती है।
  • संविधानवाद के प्रमुख तत्व - संविधानवाद के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित है -
  • संविधानवाद व्यक्ति स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
  • सविधानवाद राजनीतिक सत्ता पर अंकुश की स्थापना करता है।
  • संविधानवाद शक्ति के विकेन्द्रीकरण और संतुलन को स्थापित करता है।
  • संविधानवाद साधनों के प्रयोग से परिवर्तन की मान्यता की स्थापना करता है।
  • संविधानवाद समस्त शासन में विश्वास रखता है।
  • संविधानवाद का उत्तरदायी सरकार में विश्वास रखता है।
  • संविधानवाद की विशेषताएं
  • संविधानवाद एक मूल्य सम्बद्ध अवधारणा है।
  • संविधानवाद संस्कृतबद्ध अवधारणा है।
  • संविधानवाद एक गतिशील अवधारणा है।
  • संविधानवाद साध्य मूलक अवधारणा है।
  • संविधानवाद एक सहभागी अवधारणा है।
  • संविधानवाद संविधान सम्मत अवधारणा है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...