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Showing posts with the label समकालीन एवं राजनीतिक दर्शन : भारतीय

उपनिवेशवाद ( Colonialism )

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उपनिवेशवाद ( Colonialism )  उपनिवेशवाद ( Colonialism ) उपनिवेशवाद एक विस्तारवादी नीति जिसके तहत किसी देश का आर्थिक, समाजिक एवं सांस्कृतिक संरचना पर नियन्त्रण किया जाता है। नियन्त्रण करने वाला देश मातृ देश कहलाता है। भारत में उपनिवेशवाद को तीन चरणों में बांटा जा सकता है – 1.     वाणिज्य चरण (1757-1813 तक)         इस चरण की शुरुआत प्लासी के युद्ध से होती है जिसमें ईस्ट इण्डिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण कब्जा कर लिया था। इस समय कम्पनी का पूरा ध्यान आर्थिक लूट पर ही केन्द्रित रहा इसलिए प्रसिद्ध इतिहासकार के एम पणिक्कर ने इसे डाकू राज्य कहा। इस काल में ब्रिटिश कम्पनी को व्यापारिक एकाधिकार के लिए पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी कंपनियों के साथ कई युद्ध भी लड़ने पड़े। प्रथम चरण में ब्रिटिश कम्पनी के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थे – भारत के व्यापार पर एकाधिकार करना । राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर राजस्व प्राप्त करना। कम से कम मूल्यों पर वस्तुओं को खरीदकर यूरोप में उन्हें अधिक से अधिक मूल्यों पर बेचना। अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियो को हर सम्भव तरीकों से भारत से बाहर निकालना। भारतीय प्रशासन, परम्

शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )

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शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion ) शिक्षा और धर्म ( Eucation and Religion )     प्राचीन भारत में शिक्षा और धर्म को एक दूसरे से भिन्न नहीं समझा जाता था। शिक्षा को ही मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य अर्थात मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना जाता था। आदिगुरु शंकराचार्य के अनुसार, “सः विद्या या विमुक्तये” अर्थात शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाए। भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द भी शिक्षा को धर्म से अलग नहीं समझते थे। उनके अनुसार “मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है”। ऋषि देव दयानंद के अनुसार सीखने की प्रक्रिया गर्भावस्था से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती है। उन्होंने शिक्षा को आन्तरिक शुद्धि के रूप में माना है। स्वामी दयानंद के अनुसार ‘‘ शिक्षा वह है , जिससे मनुष्य-विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त करें और अविद्या आदि दोषों को त्याग कर सदैव आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सके। ’’ भारतीय शिक्षा की विकास विकास यात्रा Ø   राष्ट्रीय शिक्षा नीति , 1968 स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर यह पहली नीति कोठारी आयोग (1964-1966) की सिफारिशों पर आधारित थी। शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का

सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property )

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सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property )  सम्पत्ति का अधिकार ( Right to property )      सम्पत्ति से तात्पर्य ऐसे वस्तु से है जिस पर कोई व्यक्ति या समूह स्वामित्व रखता है तथा उसे रखने, नष्ट करने, बेचने या किसी को उपहार देने का दावा रखता है। उपभोग के आधार पर सम्पत्ति दो प्रकार की होती है – चल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जिसे व्यक्ति अपने उपभोग के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा सकता है, चल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – मुद्रा, आभूषण, सोना, चांदी आदि । अचल सम्पत्ति – वह सम्पत्ति जीसे व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं ले जा सकता, अचल सम्पत्ति कहलाती है। जैसे – भूमि, भवन, उद्यान आदि । संपत्ति का अधिकार ( Right to Property)     संपत्ति के अधिकार को वर्ष 1978 में 44वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक अधिकार से विधिक अधिकार में परिवर्तित कर दिया गया था। 44वें संविधान संशोधन से पहले यह अनुच्छेद-31 के अंतर्गत एक मौलिक अधिकार था , परंतु इस संशोधन के बाद इस अधिकार को अनुच्छेद- 300( A) के अंतर्गत एक विधिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार भले ही संपत्ति का अधिक

विवाह ( Vivah ) का स्वरूप

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विवाह ( Vivah ) का स्वरूप  विवाह ( Vivah ) का स्वरूप      वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, “स्त्री और पुरुष दोनों नदी के दो तटबन्द है और दोनों के बीच विवाह की जीवनधारा प्रवाहित होती है”। मेधतिथि के अनुसार, “विवाह कन्या को स्त्री बनाने के लिए एक निश्चित क्रम से की जाने वाली अनेक विधियों से सम्पन्न होने वाला पाणिग्रहण संस्कार है”। डॉ के एम कपाड़िया ने हिन्दू विवाह के तीन उद्देश्य – धर्म, प्रजा एवं रति कहा है। हिन्दू विवाह के अनेक प्रकार मनु और यज्ञवल्क्य स्मृतियों में मिलता है। मनु महाराज ने विवाह के 8 प्रकार कहे है जिनका वर्णन निम्नलिखित है – ब्रह्म विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता योग्य एवं चरित्रवान युवक को खोजकर धर्मिक संस्कार के द्वारा अपनी कन्या का को वस्तु तथा अलंकारों से सुसज्जित कर उसे वर को दान देता है। यह सभी प्रकार के विवाहों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दैव विवाह – इस विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ की व्यवस्था करता है और इस यज्ञ के लिए योग्य विद्वानों और पुरोहितों को आमंत्रित करता है। जो भी आमंत्रित युवक यज्ञ को भली-भांति संचालित कर लेता है वह कन्या को वर लेता है। आर्ष व

परिवार ( Family )

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परिवार ( Family ) परिवार ( Family )     डॉ डी एन मजूमदार के अनुसार “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक मकान में रहते है, रक्त द्वारा सम्बन्धित है और स्थान, स्वार्थ तथा पारस्परिक कर्तव्य-बोध के आधार पर समान होने की भावना रखते है”। भारत में एकल परिवार की अपेक्षा संयुक्त परिवार का गठन पाया जाता है। कर्वे के अनुसार, “संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते है, जो एक रसोई में पका भोजन करते है जो सामान्य सम्पत्ति के अधिकारी होते है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते है तथा जो परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से सम्बन्धित है”। देसाई के अनुसार, “हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते है जिसमें एकाकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढ़ियों के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जो एक दूसरे से सम्पत्ति, आय और परस्पर अधिकारों तथा कर्तव्यों द्वारा बँधे होते हैं”। श्रीनिवास के अनुसार, “वह गृहस्थ समूह जो प्रारम्भिक परिवार से बड़े होते है और जिनमें सामान्यतः दो या दो से अधिक एकाकी परिवार पाए जाते हैं, संयुक्त या विस्तृत परिवार कहलाते हैं”।   -----------------

सामाजिक न्याय ( Social justice )

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सामाजिक न्याय ( Social justice )  सामाजिक न्याय ( Social justice )      सामाजिक न्याय से तात्पर्य सामाजिक समानता से है। सामाजिक न्याय का सिद्धान्त यह माँग करता है कि सामाजिक जीवन में सभी मनुष्यों की गरिमा को स्वीकार किया जाए। लिंग, वर्ण, जाति, धर्म व स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव न किया जाए साथ में प्रत्येक व्यक्ति को आत्मविकास के सभी अवसर सुलभ कराए जाए। सामाजिक न्याय के अन्तर्गत आर्थिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के न्याय को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 में सामाजिक न्याय के विषय में कहा गया है कि “एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओ को अनुप्राणित करें”। डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘जाति-प्रथा का उन्मूलन’ और ‘शूद्र कौन थे’ में सामाजिक न्याय का समर्थन किया है। --------------

सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )

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सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )  सकारात्मक क्रिया ( sakaaraatmak kriya )        सकारात्मक क्रिया को भारत एवं नेपाल में आरक्षण तथा यूनाइटिड किंगडम में सकारात्मक विभेद तथा साउथ अफ्रीका और कनाडा में रोजगार साम्यता के नाम से जाना जाता है। भारत में सकारात्मक क्रिया अर्थात आरक्षण की शुरुआत 1882 में हण्टर आयोग अर्थात ‘भारतीय शिक्षा आयोग’ के गठन के साथ हुई थी। विलियम हण्टर इस आयोग के सदस्य थे। इस आयोग की मुख्य सिफारिश निम्नलिखित थी – प्राथमिक शिक्षा व्यवहारिक हो। प्राथमिक शिक्षा देशी भाषाओं में हो। शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में शिक्षा विभाग स्थापित हो। धार्मिक शिक्षा को प्रोत्साहन न दिया जाए। बालिकाओं के लिए सरल पाठ्यक्रम व निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो। अनुदान सहायता छात्र-शिक्षक की संख्या व आवश्यकता के अनुपात में दिया जाए। देशी शिक्षा के पाठ्यक्रम में परिवर्तन न करके पूर्ववत चलने दिया जाए।     इसी समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने सभी के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा तथा अग्रेजी सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की माँग की थी। इसके बाद वर्ष 1902 म

राज्य का समाजवाद ( State Socialism )

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राज्य का समाजवाद ( State Socialism )  राज्य का समाजवाद ( State Socialism )        राजकीय समाजवाद का दर्शन सर्वप्रथम फर्डीनेण्ड लैस्ले द्वारा दिया गया। यह विचार कार्ल-मार्क्स के विचारों के विपरीत था। लैस्ले ने राज्य को वर्ग निष्ठा से स्वतन्त्र और न्याय के साधन के रूप में एक इकाई माना है, जो समाजवाद की उपलब्धि के लिए आवश्यक है। भारत में समाजवाद सामाजिक लोकतन्त्र के रूप में सथापित किया गया। अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक ‘स्टेट एण्ड माइनोरिटिस’ (राज्य और अल्पसंख्यक, 1947) में कहा है कि “संसदीय लोकतन्त्र के साथ संवैधानिक राज्य समाजवाद के रूप में भारत के लिए एक राजनीतिक और आर्थिक संरचना को प्रस्तावित किया गया है”। अम्बेडकर का मानना था कि संविधानिक कानूनों के द्वारा तीन उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है – समाजवाद की स्थापना संसदीय लोकतन्त्र की स्वतंत्रता तानाशाही से बचना । राज्य समाजवाद पर अम्बेडकर के विचार राज्य समाजवाद समाज के सभी वर्गों के विकास के लिए वैकल्पिक दृष्टिकोणों में से एक है । यह पूँजीवाद और समाजवाद में अंतर्निहित समस्याओं के समाधान के रूप में कार्य कर सकता है । अम्बेडकर

सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )

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सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy ) सामाजिक लोकतन्त्र ( Social Democracy )     सामाजिक लोकतन्त्र एक राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विचारधारा है। यह विचारधारा एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामाजिक न्याय एवं आर्थिक न्याय का समर्थन करती है। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर जी ने नवंबर 1949 के संविधान सभा के अन्तिम भाषण में सामाजिक लोकतन्त्र को परिभाषित करते हुए कहा था – “सामाजिक लोकतन्त्र एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसमें स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे सामाजिक सिद्धांत मूल सिद्धान्त होंगें”। भीमराव अम्बेडकर जी ने सामाजिक लोकतन्त्र के चार स्तम्भ कहे है – न्यायपालिका कार्यपालिका विधायिका मीडिया    --------------

सर्वोदय ( Sarvodaya )

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सर्वोदय ( Sarvodaya )  सर्वोदय ( Sarvodaya )        सर्वोदय एक सामाजिक आदर्श का संप्रत्यय है, जिसका अर्थ है – “सबका उदय, सबका उत्कर्ष या विकास”। सर्वोदय का विचार हमारी संस्कृति का सनातन अंग है जिसका प्रमाण ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया , सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत’। अर्थात - सभी प्रसन्न रहें , सभी स्वस्थ रहें , सबका भला हो , किसी को भी कोई दुख ना रहे। जैनाचार्य समंतभद्र ने कहा है – ‘सर्वापदा मन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तथैव’ । वर्तमान काल में गाँधी जी को रस्किन की पुस्तक ‘अन्टु दिस लास्ट’ से प्रेरणा मिली और उन्होंने उस पुस्तक का अनुवाद किया । इस अनुवादित पुस्तक का नाम गाँधी जी ने सर्वोदय रखा । रस्किन की पुस्तक की तीन बातें मुख्य है – व्यक्ति का श्रेय समष्टि के श्रेय में ही निहित है । वकील का काम हो चाहे मोची का, दोनों का मूल्य समान है। इस समानता का कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलाने का समान अधिकार है। शारीरिक श्रम करने वाले का जीवन जी सच्चा और सर्वोत्कृष्ट जीवन है।     इस प्रकार गाँधी जी ने एक सामाजिक आ

सत्याग्रह ( Satyagraha )

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सत्याग्रह ( Satyagraha )   सत्याग्रह ( Satyagraha )      गाँधी जी के अनुसार, ‘अपने विरोधियों को दुःखी बनाने के बजाए स्वयं अपने पर दुःख डालकर सत्य की विजय प्राप्त करना ही सत्याग्रह है’। गाँधी जी कहते है कि निर्बल व्यक्ति का प्रतिरोध निष्क्रिय होता है परंतु सत्याग्रह निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं है क्योंकि “निर्बल सत्याग्रह हो ही नहीं सकता”। गाँधी जी का सत्याग्रह अनेक रूपों में सक्रिय रहा जिनका वर्णन इस प्रकार है – असहयोग आन्दोलन – वर्ष 1919-20 में गाँधी जी द्वारा घोषणा की गई कि भारतीय किसी भी रूप में ब्रिटिश सरकार का सहयोग नहीं करेंगे इसी को असहयोग आन्दोलन कहा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन – वर्ष 1930 में ब्रिटिश सरकार द्वारा नमक पर लगे प्रतिबन्ध के विरुद्ध गाँधी जी ने अहिंसा पूर्वक इस कानून का उलंघन किया और दांडी यात्रा की इसी को सविनय अवज्ञा आन्दोलन कहते है। हिजरत – आत्मसम्मान की दृष्टि से स्वयं निवास स्थान छोड़ने को हिजरत कहते है। वर्ष 1928 में बारदोली और वर्ष 1939 में बिठ्ठलगढ़ और लिम्बाड़ी की जनता को गाँधी जी द्वारा यह सुझाव दिया गया था। अनशन – अतमशुद्धि और अत्याचारियों के हृदय परिवर्तन

स्वदेशी ( Swadeshi )

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स्वदेशी (  Swadeshi )  स्वदेशी (  Swadeshi )      स्वदेशी का अर्थ – अपने देश में निर्मित वस्तु उत्पादन के उपभोग से है। भारत में स्वदेशी भाव का उद्भव बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ था। स्वदेशी भाव से उत्पन्न यह आन्दोलन वर्ष 1905 से 1911 तक चला। इस आन्दोलन के प्रमुख विचारक रविन्द्रनाथ ठाकुर, लाल लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, अरविन्द घोष एवं वीर सावरकर थे। इस स्वदेशी आन्दोलन से ही वर्ष 1906 के बाद हिन्दी का स्वभाषा के रूप में मार्ग प्रशस्त हुआ। मदन मोहन मालवीय जी ने स्वदेशी की भावना से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और हिन्दी को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया, साथ ही अभ्युदय, मर्यादा और हिन्दुस्तान नामक समाचार पत्रों का सम्पादन भी किया।      स्वदेशी आन्दोलनों के विषय में महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘भारत का वास्तविक शासन बंगाल विभाजन से उपरान्त शुरू हुआ। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र – उद्योग, शिक्षा, संस्कृति, साहित्य और फैशन में स्वदेशी की भावना का संचार हुआ। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन के किसी भी चरण में इतनी अधिक सांस्कृतिक जागृति देखने को नहीं मिलती जितनी स्वदेशी आन्दोलनों के दौर

आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या

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आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या  आतंकवाद ( terrorism ) की समस्या      वर्ष 2005 में संयुक्त राष्ट्र के पैनल ने आतंकवाद को ‘ लोगों को भयभीत करने अथवा सरकार या किसी अंतर्राष्ट्रीय संगठन को कोई कार्य करने अथवा नहीं करने के लिये बाध्य किये जाने के प्रयोजन से नागरिकों अथवा निहत्थे लोगों को मारने अथवा गंभीर शारीरिक क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से किये गए किसी कार्य के रूप में परिभाषित किया। संयुक्त राज्य रक्षा विभाग ने आतंकवाद को ‘ प्राय: राजनीतिक , धार्मिक अथवा वैचारिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये सरकार अथवा समाज को अवपीड़ित या भयभीत करने हेतु   व्यक्तियों अथवा संपत्ति के विरुद्ध बल अथवा हिंसा का गैर-कानूनी अथवा धमकी भरे प्रयोग ’ के रूप में परिभाषित किया है।     आतंकवादी और विघटनकारी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम , 1987 अर्थात् टाडा भारत में ऐसा पहला विशेष कानून था जिसने आतंकवाद की परिभाषा देने का प्रयास किया था। इसके बाद आतंकवाद निवारण अधिनियम , 2002 ( पोटा) आया। वर्ष 2004 में गैर-कानूनी कार्यकलाप (निवारण) अधिनियम , 1967 को ‘ आतंकवादी गतिविधि ’ की परिभाषा शामिल करने के लिये संशोधित किया गय

पूर्ण क्रान्तिवाद ( Total Revolutionism )

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पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism ) पूर्ण क्रान्तिवाद  ( Total Revolutionism )     पूर्ण क्रांतिवाद का अर्थ है – ‘वह क्रांति जो व्यक्त और समुदाय के समस्त विकास पर बल देती हो पूर्ण क्रांति कहलाती है’। भारत में पूर्ण क्रांतिवाद का उदय ज्योतिबा फुले राव की राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक समानता के साथ सत्यशोधक आन्दोलन के द्वारा होता है। इनके बाद जयप्रकाश नारायण ने 20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में पूर्ण क्रांति की अवधारणा को व्यापक रूप दिया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुसार, ‘सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है’। जयप्रकाश नारायण ने स्वयं कहा था कि मेरी पूर्ण क्रांति सात क्रांतियों का एक संयोजन है। अर्थात मेरा उद्देश्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांकृतिक, बौद्धिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक और सर्वोदय के आदर्शों के अनुरूप समाज में बदलाव लाना है’। -----------

संविधानवाद ( Constitutionalism )

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संविधानवाद ( Constitutionalism )  संविधानवाद ( Constitutionalism )     संविधानवाद एक आधुनिक विचारधारा है जो विधि द्वारा नियंत्रित राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना पर बल देती है। पीटर एच मार्क के अनुसार, ‘संविधानवाद का तात्पर्य सुव्यवस्थित और संगठित राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रण में रखना है’। कार्ल जे फैडरिक के अनुसार, ‘शक्तियों का विभाजन सभ्य सरकार का आधार है, यही संविधानवाद है’। कॉरी और अब्राहम के अनुसार, ‘स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को संविधानवाद कहते है’। जे एस राउसेक के अनुसार, ‘धारणा के रूप में संविधानवाद का अर्थ है कि यह अनिवार्य रूप से सीमित सरकार तथा शासित तथा शासन के ऊपर नियंत्रण की एक व्यवस्था है’। के सी व्हीयर के अनुसार, ‘संवैधानिक शासक का अर्थ किसी शासन के नियमों के अनुसार शासन चलाने से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार इस सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “संविधानवाद सीमित शासन का प्रतीक है”। संविधानवाद की तीन प्रमुख अवधारनाएं है – पाश्चात्य अवधारणा – यह अवधारणा लोकतन्त्र में पूंजीवाद का समर्थन करती है। इसे उदारवादी लोकतंत्रितक अवधारणा भिक कहते है। साम्यवादी अवधारणा