भारतीय दर्शन का स्वरूप एवं परिचय (Nature and Introduction of Indian Philosophy)

भारतीय दर्शन का स्वरूप एवं परिचय (Nature and Introduction of Indian Philosophy)

भारतीय दर्शन का स्वरूप एवं परिचय 
(Nature and Introduction of Indian Philosophy)  

भारतीय दर्शन की पृष्ठभूमि एवं साहित्य 

    भारतीय दर्शन का सार तत्त्व साक्षात्कार है जिससे मनुष्य समस्त दु:खों से निवृत्त हो जाता है। सांख्यकारिका में वर्णित है कि,
“दु:ख त्रयाभिधाता जिज्ञासा तदपद्यात”
अर्थात् आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दु:खों से निवृत्ति के लिए दार्शनिक जिज्ञासा करनी चाहिए। 
यह जिज्ञासा जीव के मोक्ष का आधार है। भारतीय दर्शन जीव उस विवेक ज्ञान को प्राप्त करता है जिसको जान लेने से कुछ भी अज्ञात शेष नहीं रहता। भारतीय दर्शन एक ऐसी दिव्यदृष्टि प्रदान करता है जिससे आत्मदर्शन व तत्त्वदर्शन सम्भव हो जाता है।
    भारतीय दर्शन का प्रारम्भ प्रतिपक्ष के रूप में चार्वाक दर्शन से होता है ओर विस्तार होता हुआ अन्त में मुक्ति के मार्ग अर्थात योगदर्शन पर समाप्त हो जाता है। भारतीय दार्शनिक विचारों का मूल यद्यपि वेद है परन्तु इसका एक सुव्यवस्थित तथा क्रमबद्ध रूप सर्वप्रथम सूत्र ग्रंथों में मिलता है। सूत्र शब्द का अर्थ सूत है अर्थात “स्मृति सहायक उक्ति” है। भारतीय दर्शनों का विभाजन दो प्रकारों से किया जाता है-
  1. आस्तिक और नास्तिक आधार पर
  2. ईश्वरवादी और अनिश्वरवादी आधार पर
आस्तिक और नास्तिक आधार पर भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण

नास्तिक दर्शन

  1. चार्वाक
  2. जैन
  3. बौद्ध

आस्तिक दर्शन

  1. न्याय
  2. वैशेषिक
  3. सांख्य
  4. योग
  5. मीमांसा
  6. वेदान्त

ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी आधार पर भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण

अनीश्वरवादी दर्शन

  1. चार्वाक
  2. जैन
  3. बौद्ध
  4. सांख्य
  5. मीमांसा

ईश्वरवादी दर्शन

  1. न्याय
  2. वैशेषिक
  3. योग
  4. वेदान्त

चार्वाक दर्शन की भूमि

    चार्वाक दर्शन को नास्तिक दर्शन माना गया है, क्योंकि वह न तो वेदों को मानता है, न ही परलोक को और न ही ईश्वर में विश्वास करता है। चार्वाक दर्शन का संस्थापक 'आचार्य बृहस्पति' को माना जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार बृहस्पति के शिष्य चार्वाक के द्वारा यह मत प्रचारित हुआ जिसके कारण इसे चार्वाक दर्शन के नाम से पुकारा जाता है। कुछ अन्य विद्वानों इस मत से संहमत नहीं है उनके अनुसार, चार्वाक नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इसके मानने वालों के वचन बड़े ही मीठे होते थे। चार्वाक दर्शन का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता, केवल कुछ गिने-चुने बार्हस्पत्य सूत्र ही इस दर्शन के सर्वस्व है। इस दर्शन का सबसे प्राचीन नाम 'लोकायत' है, क्योंकि यह लोक में आयत अर्थात फैला हुआ था। इस दर्शन को 'बार्हस्पत्यशास्त्र' भी कहा जाता है, क्योंकि यह आचार्य बृहस्पति के सूत्रों पर आधारित है। इसे दर्शन के अन्य नाम जड़वाद अथवा भौतिकवाद भी है, क्योंकि यह जड़ अथवा भौतिक तत्वों को प्रधान मानता है।


चार्वाक दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र

यावज्जीवेत सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥


चार्वाक दर्शन के प्रमुख सिद्धांत

  • 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्वानि' अर्थात पृथ्वी, जल तेज, वायु- ये चार तत्व है।
  • 'भूतान्येव चेतयन्ते' अर्थात भूत ही चैतन्य उत्पन्न करने का कार्य करता है।
  • 'चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः' अर्थात चैतन्य-युक्त स्थूल शरीर ही आत्मा है।
  • 'मरणमेवापवर्गः' अर्थात मरण ही मोक्ष है।
  • अर्थकामौ पुरुषार्थौ' अर्थात अर्थ और काम ये दोनों पुरुषार्थ है।
  • 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्' अर्थात प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है।

चार्वाक दर्शन के प्रमुख विषय

  1. प्रत्यक्ष प्रमाण की स्थापना
  2. अनुमान एवं शब्द की समीक्षा
  3. अभौतिक पदार्थों का निराकरण
  4. कर्म एवं पुनर्जन्म की व्याख्या
  5. धर्म एवं मोक्ष का निराकरण
  6. चार्वाक की ज्ञान मीमांसा
  7. कार्य-कारण नियम का स्वरूप

जैन दर्शन

    जैन सम्प्रदाय के अनुसार, जैन दर्शन के प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर हुए है। ऋषभदेव प्रथम, 23 वें पार्श्वनाथ और बर्द्धमान महावीर अन्तिम तीर्थंकर हुए। जैन दर्शन वेदों को प्रामाणिक नहीं मानता और न ही ईश्वर की आस्था में विश्वास करता है। इसी कारण जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहते है। जैन दर्शन का मूलाधार व्यक्ति का दैनन्दिम अनुभव है, यही कारण रहा कि लोग इसे प्रत्यक्षवादी दर्शन मानते है। जैन शब्द 'जिन' से बना है, जिसका अर्थ है- 'विजयी'। इस प्रकार जिस पुरुष ने रागद्वेष आदि शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो उसे 'जिन' कहते है। इसे वीतराग भी कहा जाता है। जैन धर्म के दो सम्प्रदायों है- श्वेताम्बर एवं दिगम्बर। दोनों सम्प्रदायों में मूल सिद्धान्तों को लेकर कोई भेद नहीं है बल्कि गौण बातों को लेकर दोनों में भेद है। भद्रबाहु को दिगम्बर एवं स्थूलभद्र को श्वेताम्बर मत का संस्थापक माना जाता है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी नग्न रहते है, जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी सफेद वस्त्र को धारण करते है।


जैन साहित्य

  • तत्वार्थधिगम ---------उमास्वामी
  • न्यायावतार ----------सिद्धसैन दिवाकर
  • षड्दर्शन समुच्चय ---हरीभद्र
  • षड्दर्शन विचार -----मेरुतुंग
  • पंचास्ति कायसार ----कुन्दकुन्दाचार्य
  • जैन श्लोक वर्तिक ---विद्यानन्द
  • आत्मानुशासन ------गुणभद्र
  • द्रव्य संग्रह ---------नेमिचन्द्र
  • स्याद्वाद मंजरी -----मल्लिषेण

जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • अनेकान्तवाद
  • स्यादवाद
  • नयवाद

जैन दर्शन के प्रमुख विषय

  • वस्तु या सत्ता की अवधारणा
  • जीव-अजीव की व्याख्या
  • सप्तभंगीनय सिद्धान्त की व्याख्या

बौद्ध दर्शन

    बौद्ध दर्शन को भी भारतीय दर्शन में नास्तिक परम्परा में रखा जाता है। बौद्ध दर्शन का आधार एवं बौद्ध धर्म है जिसके प्रवर्तक गौतम बुद्ध थे। बुद्ध के सभी उपदेश एवं सिद्धान्तों का संकलन 'त्रिपिटक' में किया गया है। त्रिपिटक के अन्तर्गत विनय पिटक, सूत्त पिटक एवं अभिधम्म पिटक को रखा गया है। विनय पिटक में संघ के नियमों का वर्णन है, सूत्त पिटक में बुद्ध के उपदेशों एवं वार्तालापों का संकलन है, जबकि अभिधम्म पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का संकलन किया गया है। प्रमाणों के आधार पर कहा जाता है कि बुद्ध के निर्वाण के कुछ सप्ताह बाद राजगृह में प्रथम बौद्ध संगीति हुई जिसमें विनय पिटक और सूत्त पिटक के प्राचीनतम अंश संकलित किए गया था। जिसका विस्तार लगभग सौ वर्ष के बाद वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति हुआ साथ ही अभिधम्म पिटक के कुछ अंशों को भी संकलित किए गया। इसी बौद्ध संगीति में भिक्षुसंघ थेरवाद और महासंघिक दो दलों में विभक्त हो गया जो आगे चलकर क्रमशः हीनयान और महायान कहलाये । लगभग 249 ई. पू. सम्राट अशोक द्वारा पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति हुई जिसमे थेरवादियों द्वारा विनय पिटक, सूत्त पिटक एवं अभिधम्म पिटक का पालि तिपिटक अर्थात त्रिपिटक का संकलन किया गया। यही त्रिपिटक अब वर्तमान में उपलब्ध है। तृतीय संगीति के बाद ही सर्वास्तिवाद, थेरवाद से अलग हो गया था तथा थेरवाद का पतन भी होने लगा था। कनिष्क के समय चतुर्थ बौद्ध संगीति में सर्वास्तिवाद के त्रिपिटक का संकलन हुआ जो की संस्कृत में था। संस्कृत त्रिपिटक का मूल ग्रन्थ नष्ट हो गया परन्तु वर्तमान में इसके केवल कुछ अंश मिलते है। इस ग्रन्थ का चीनी अनुवाद वर्तमान में भी पूरा मिलता है। सर्वास्तिवाद को बाद में वैभाषिक कहा जाने लगा। बाद में इसी की एक शाखा को सौत्रान्तिक कहा गया जो की कुछ मतभेदों के कारण अलग हुई थी। थेरवाद (स्थिरवाद), वैभाषिक (सर्वास्तिवाद) और सौत्रान्तिक ये तीनों हीनयान के प्रमुख सम्प्रदाय है। हीनयान के विरोध में ही महायान का उदय हुआ था। माध्यमिक (शून्यवाद), योगाचार (विज्ञानवाद) और स्वतन्त्र योगाचार ये महायान के प्रमुख सम्प्रदाय है।


बौद्ध दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • क्षणिकवाद
  • अनात्मवाद
  • विज्ञानवाद
  • शून्यवाद

बौद्ध दर्शन के प्रमुख विषय

  • चार आर्य सत्य
  • अष्टांगिक मार्ग
  • प्रतीत्यसमुत्पाद

न्याय दर्शन

    न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे। दर्शन की यह शाखा तर्कशास्त्र की रीढ़ है। न्याय शब्द का अर्थ है- उचित' अर्थात वह ज्ञान जिसके के आधार पर वस्तु का ज्ञान किया जाए उसे न्याय कहते है। विषय सिद्धि के आधार पर, जिसके द्वारा किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्धि की जा सके उसे न्याय कहते है। वात्स्यायन के अनुसार, प्रमाणों के द्वारा किसी विषय की परीक्षा करना ही न्याय है। न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि गौतम का 'न्याय-सूत्र' है। अन्य ग्रन्थों में वात्स्यायन का न्याय-भाष्य, उद्योतकर का न्याय-वार्तिक आदि महत्वपूर्ण है। आधुनिक काल के न्याय को 'नव्यन्याय' कहा जाता है, जिसके प्रणेता 'गंगेश' है। इन्होंने 'तत्व-चिंतामणी' नामक ग्रन्थ की रचना की है। नव्य-न्याय की स्थापना के बाद न्याय और वैशेषिक दर्शन में जो मतभेद था वह मतभेद समाप्त हो गया था।  इसलिए नव्य-न्याय को 'न्याय-वैशेषिक दर्शन' भी कहा जाता है। महर्षि गौतम का पूरा नाम 'मेधा तिथि गौतम' था, इन्हें 'अक्षयपाद' के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन में शुद्ध विचार के नियमों तथा तत्व-ज्ञान प्राप्त करने के उपायों का वर्णन मिलता है। इस दर्शन का अन्तिम उद्देश्य शुद्ध विचार अथवा तार्किक आलोचना करना नहीं बल्कि मोक्ष की प्राप्ति है। न्याय दर्शन को प्रमाण शास्त्र, तर्कशास्त्र, हेतु-विद्या, वाद-विद्या तथा अन्वीक्षकी अर्थात समीक्षात्मक परीक्षण भी कहते है।


न्याय दर्शन का साहित्य

  • न्याय-सूत्र -----------------महर्षि गौतम
  • न्याय वार्तिक --------------उद्योतकर
  • न्याय-वार्तिक तात्पर्य टीका ---वाचस्पति
  • न्याय-वार्तिक तात्पर्य परिशुद्धि ---उदयन
  • न्याय मंजरी ----------------जयन्त
  • कुसुमांजलि ----------------उदयन
  • तत्व चिन्तामणि -------------गंगेश
  • न्याय भाष्य-----------------वात्स्यायन

न्याय दर्शन की विषय-वस्तु

न्याय दर्शन को चार भागों में बाँटा गया है-

  1. प्रथम भाग -----------प्रमाण सम्बन्धी
  2. द्वितीय भाग ---------भौतिक जगत सम्बन्धी
  3. तृतीय भाग ----------आत्मा एवं मोक्ष सम्बन्धी
  4. चतुर्थ भाग ---------- ईश्वर सम्बन्धी

न्याय दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • प्रमाण सिद्धान्त
  • न्याय दर्शन के प्रमुख विषय
  • प्रमा तथा अप्रमा
  • प्रमाण मीमांसा
  • हेत्वाभास
  • ईश्वर की सिद्धि के लिए युक्ति
  • अन्यथाख्याति
  • कार्य-कारण सिद्धान्त

वैशेषिक दर्शन

    वैशेषिक दर्शन को वस्तुवादी दर्शन कहा जाता है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि उलूक कणाद है। विशेष' नामक पदार्थ की सत्ता को मानने से इस दर्शन का नाम 'वैशेषिक' कहा जाता है। इस दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि कणाद द्वारा रचित 'वैशेषिक सूत्र' है। यह दर्शन समस्त विश्व की व्याख्या देने के साथ साथ अणुओं, परमाणुओं से सृष्टि रचना का सिद्धान्त भी प्रतिपादित करता है। वैशेषिक दर्शन केवल दो प्रमाण - प्रत्यक्ष एवं अनुमान को मानता है। इसके साथ-साथ सात पदार्थों- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव को भी स्वीकार करता है।


वैशेषिक दर्शन का साहित्य

  • वैशेषिक दर्शन का मूल ग्रन्थ कणाद रचित 'वैशेषिक-सूत्र' है।
  • वैशेषिक-सूत्र पर प्रशस्तपाद का 'पदार्थधर्म संग्रह' नामक भाष्य है।
  • उदयन की 'किरणवली' तथा श्रीधर की 'न्यायकन्दली' इस ग्रन्थ पर प्रमुख टिकाएं है।

वैशेषिक दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • असत्कार्यववाद
  • परमाणुवाद

वैशेषिक दर्शन के प्रमुख विषय

  • पदार्थ की अवधारणा
  • कार्य-कारण सिद्धान्त
  • असत्कार्यवाद की सिद्धि हेतु उक्तियाँ
  • परमाणु की सिद्धि में तर्क

सांख्य दर्शन

    सांख्य दर्शन बहुत ही प्राचीन दर्शन है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल है। इस दर्शन का सम्बन्ध तत्वों की संख्या से है, इसलिए इसे सांख्य दर्शन कहते है। सांख्य दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि कपिल का 'तत्व-समास' है। उन्होंने इसकी ही विसद् व्याख्या करने के लिए 'सांख्य-सूत्र' की रचना की थी।


सांख्य दर्शन का साहित्य

  • तत्व-समास --------------------महर्षि कपिल
  • सांख्य सूत्र ---------------------महर्षि कपिल
  • सांख्य प्रवचन सूत्र -------------- महर्षि कपिल
  • सांख्य कारिका -----------------ईश्वर कृष्ण
  • सांख्यकारिका भाष्य ------------गौड़पाद
  • सांख्य प्रवचन ------------------विज्ञान भिक्षु
  • सांख्य सार ---------------------विज्ञान भिक्षु
  • सांख्य तत्व-कौमुदी -------------वाचस्पति मिश्र

सांख्य दर्शन के सिद्धान्त

  • सत्कार्यवाद
  • निरीश्वरवाद

सांख्य दर्शन के प्रमुख विषय

  • प्रकृति का स्वरूप एवं इसके अस्तित्व की सिद्धि हेतु उक्तियाँ
  • पुरुष का स्वरूप एवं इसके अस्तित्व की सिद्धि हेतु उक्तियाँ
  • पुरुष की बहुलता के लिए उक्तियाँ
  • पुरुष-प्रकृति का सम्बन्ध
  • कैवल्य (मोक्ष) की अवधारणा

योग दर्शन

    योग दर्शन के प्रवर्तक महर्षि पतंजलि है। यह दर्शन जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक बल देता है तथा मोक्ष को ही जीवन का परम लक्ष्य मानता है। योग दर्शन में सांख्य के 25 तत्वों को माना गया है साथ ही उनमें ईश्वर तत्व को भी स्वीकार किया गया है ताकि प्रकृति और पुरुष के संसर्ग को अवस्था को भली-भाँति समझा जा सके। योग दर्शन का मूल ग्रन्थ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित 'योग-सूत्र' है। व्यास जी ने योग-सूत्र पर भाष्य लिखा है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण 'योग-भाष्य' माना जाता है। विज्ञान भिक्षु द्वारा रचित 'योगवर्तिक' और 'योगसार-संग्रह' भी योग दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। 


योग दर्शन की विषय-वस्तु

योग-सूत्र चार पदों में विभक्त है-

  1. समाधिपाद
  2. साधनापाद
  3. विभूतिपाद
  4. कैवल्यपाद

    समाधिपाद में योग का स्वरूप, उद्देश्य एवं लक्षण, साधनापाद में कर्म-क्लेश एवं कर्मफल, विभूतिपाद में योग के अंग एवं योगाभ्यास से प्राप्त होने वाली सिद्धियों का विवेचन है।


योग दर्शन का साहित्य

  • योग-सूत्र -------------------महर्षि पतंजलि.
  • योग भाष्य ----------------- महर्षि व्यास
  • योगवर्तिक -----------------विज्ञान भिक्षु
  • योगसार-संग्रह ------------- विज्ञान भिक्षु

योग दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • अष्टांग मार्ग
  • योग दर्शन के प्रमुख विषय
  • योग दर्शन की प्रमाण मीमांसा
  • चित् एवं चित्वृत्तियाँ
  • चित्भूमियाँ
  • ईश्वर विचार एवं इसके अस्तित्व सिद्धि में उक्तियाँ

मीमांसा दर्शन

    मीमांसा शब्द का सामान्य अर्थ 'विचार करना' है। इस दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जैमिनी है। इस दर्शन में धर्म एवं ब्रह्म जिज्ञासा का विवेचन मिलता है। मीमांसा दर्शन के दो भाग है- पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा पूर्व मीमांसा में धर्म जिज्ञासा और उत्तर मीमांसा में ब्रह्म जिज्ञासा का विश्लेषण है। पूर्व मीमांसा को कर्म-मीमांसा भी कहते है क्योंकि इसके अन्तर्गत यज्ञादि की विधियों, अनुष्ठानों आदि वेद कर्मकाण्ड सम्बन्धी विषयों का सम्यक् विवेचन किया गया है। मीमांसा दर्शन का मूल ग्रन्थ जैमिनी द्वारा रचित 'जैमिनी-सूत्र' है। शबरस्वामी द्वारा लिखित जैमिनी के सूत्र पर 'शाबरभाष्य' इस दर्शन का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। मीमांसा दर्शन के दो अन्य प्रख्यात टीकाकार कुमारिल भट्ट और प्रभाकर है। इन दोनों के नाम से मीमांसा के दो सम्प्रदाय है- भट्ट-मीमांसा एवं प्रभाकर-मीमांसा।


मीमांसा दर्शन के साहित्य

  • मुरारिमत ---------------------- मुरारी मिश्र
  • त्रिपादी नीतिनयन -------------- मुरारी मिश्र
  • एकाद शाध्याधिकरण -----------मुरारी मिश्र
  • श्लोकवृतिक -------------------कुमारिल भट्ट
  • तन्त्र-वर्तिक --------------------कुमारिल भट्ट
  • दुप्टीका ------------------------कुमारिल भट्ट
  • वृहती -------------------------प्रभाकर मिश्र
  • लध्वी -------------------------प्रभाकर मिश्र
  • दीपिका -----------------------बरदराज
  • वर्तिका भरण ------------------वेंकट दीक्षित
  • न्याय सुधा ---------------------सोमेश्वर भट्ट
  • काशिका --------------------- सुचरित मिश्र
  • विधि विवेक ------------------- मण्डन मिश्र
  • मीमांसानुक्रमणी ---------------मण्डन मिश्र

मीमांसा दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त

  • प्रामाण्यवाद
  • शब्दनित्यवाद
  • शक्तिवाद
  • त्रिपुट-संवित (प्रभाकर)
  • ज्ञाततावाद (कुमारिल)
  • अन्विताभिधानवाद
  • अभिहितान्वयवाद
  • अख्यातिवाद (प्रभाकर)
  • विपरीतख्यातिवाद (कुमारिल)
  • निरीश्वरवाद

मीमांसा दर्शन के प्रमुख विषय

  • मीमांसीय प्रमाण मीमांसा
  • मीमांसा दर्शन में श्रुति (वेद) का महत्व एवं इसकी विषय-वस्तु
  • मीमांसा दर्शन में ज्ञान सिद्धान्त
  • भ्रम के सिद्धान्त
  • आत्मा का स्वरूप

वेदान्त दर्शन

    वेद का सार होने के कारण उपनिषदों को वेदान्त कहा जाता है। उपनिषदों पर जितने भी परवर्ती दर्शनों का विकास हुआ, उन्हें वेदान्त के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार वेदान्त शब्द उपनिषद् के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वेदान्त “वह शास्त्र जिसके लिए उपनिषद् ही प्रमाण है।“ इस दर्शन का अन्य नाम उत्तरमीमांसा भी है। वेदान्त दर्शन के अन्य आधारों में महर्षि बादरायण का ब्रह्मसूत्र एवं भगवद्गीता हैं। ब्रह्मसूत्र को बादरायण ने चार अध्यायों में विभक्त किया है। प्रत्येक अध्याय चार-चार पादों में विभक्त है। प्रथम अध्याय, दूसरा अविरोधाध्याय, तृतीय साधनाध्याय एवं चतुर्थ फलाध्याय है। ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का प्रथम ग्रन्थ है। यह इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की रचना छोटे-छोटे सूत्रों में होने के कारण इसे ब्रह्मसूत्र कहा जाता है। व्यास जी को इसके लिपिबद्धकर्ता माना जाता हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं भगवद्गीता वेदान्त दर्शन के तीन आधार हैं। इन्हें वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी कहा जाता है। प्रस्थानत्रयी के भाष्यकारों में शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क और वल्लभ आदि का नाम विशेष रूप से हैं। इनके दार्शनिक सिद्धान्त क्रमश: अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद हैं।


वेदान्त दर्शन का साहित्य

  • शारीरिक भाष्य ----------------- शंकराचार्य
  • श्रीभाष्य ------------------------रामानुजाचार्य
  • भास्कर भाष्य ------------------भास्कराचार्य
  • वेदान्त पारिजात --------------- निम्बार्काचार्य
  • पूर्ण प्रज्ञा भाष्य ---------------- माध्वाचार्य
  • अणुभाष्य --------------------- बल्लभाचार्य

वेदान्त के प्रमुख सिद्धान्त

  1. अद्वैत ( शंकराचार्य)
  2. विशिष्टाद्वैत (रामानुजाचार्य)
  3. भेदाभेद (भास्कराचार्य)
  4. द्वैताद्वैत (निम्बार्काचार्य)
  5. द्वैतवेदान्त (माध्वाचार्य)
  6. शुद्धाद्वैत ( बल्लभाचार्य)

वेदान्त के प्रमुख आचार्य


अद्वैत : शंकराचार्य

    अद्वैत वेदान्त के आचार्य शंकराचार्य जी का जन्म केरल राज्य के कालड़ी नामक ग्राम में एक प्रतिष्ठित नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके जन्मकाल को लेकर विवाद है। कुछ विद्वान् इनका जन्म आठवीं शताब्दी मानते है तो कुछ नवीं शताब्दी मानते हैं। इस बात के प्रमाण अवश्य मिले हैं कि वे युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इनके विषय में कहा जाता है कि इन्होंने मात्र आठ वर्ष की आयु में इन्हें चारों वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया था तथा बारह वर्ष की आयु में वे सभी शास्त्रों के ज्ञाता हो गए थे। 


शंकराचार्य का साहित्य

  • तत्वबोध
  • दशश्लोकी
  • अपरोक्षानुभूति
  • सौन्दर्य लहरी
  • उपदेश सहस्री
  • गणेश स्रोत
  • विष्णु सहस्रनाम
  • आत्मबोध
  • वाक्यवृत्ति
  • आनन्दलहरी
  • दक्षिणा-मूर्ति-स्रोत
  • शारीरिक भाष्य
  • देवी स्रोत

शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठ

  1. शृंगेरी मठ ----------- शृंगेरी (दक्षिण भारत )
  2. जोशी मठ ---------- बद्रीकाश्रम (उत्तर भारत)
  3. गोवर्धन मठ --------- पूरी (पूर्वी भारत)
  4. शारदा मठ ---------- द्वारिका (पश्चिमी भारत)

अद्वैत वेदान्त के अन्य ग्रन्थ

  • पंचपादिका ----------------------- पद्यपाद
  • तत्वदीपन ------------------------ अखण्डानन्द
  • विवरण प्रमेह संग्रह --------------- विद्यारण्य
  • भामती -------------------------- वाचस्पति मिश्र
  • नैष्कर्म्य सिद्धि ------------------- सुरेश्वर
  • पंचदशी ------------------------ इष्टसिद्धि
  • वेदान्त सार ---------------------- दयानन्द
  • वेदान्त परिभाषा ----------------- धर्मराज
  • चित्सुखी ------------------------ चित्सुख
  • पंचदशी ------------------------माध्वाचार्य
  • जीवन मुक्ति विवेक -------------माध्वाचार्य
  • अद्वैत सिद्धि ------------------- सरस्वती

विशिष्टाद्वैत : रामानुज

    रामानुज विशिष्टाद्वैत दर्शन के प्रतिपादक हैं। इसका जन्म तमिलनाडु के पेराम्बुदूर में हुआ था। इनका सम्प्रदाय 'श्री सम्प्रदाय' के नाम से जाना जाता है। रामानुज भी शंकर की भाँति अद्वैत विचारों के पोषक हैं तथा उन्हीं के समान अद्वैत ब्रह्म को जगत का निमित्त एवं उपादान कारण मानते हैं, परन्तु उनका मानना है कि यह अद्वैत ब्रह्म विशिष्ट प्रकार का है। इसी कारण उनका दर्शन विशिष्टाद्वैत कहलाता है। रामानुज का ब्रह्मसूत्र पर लिखा गया भाष्य "श्री भाष्य" है। जिसमे रामानुज दावा करते हैं कि वे ब्रह्मसूत्र की व्याख्या में आचार्य बोधायन का अनुसरण करते हैं। रामानुज के पश्चात् सुदर्शन सूरि विशिष्टाद्वैत के प्रमुख आचार्य हुए। उन्होंने श्री भाष्य पर श्रुतप्रकाशिका टीका लिखकर रामानुज के सिद्धान्तों की व्याख्या की है।


रामानुज के ग्रन्थ

  • गीता भाष्य
  • श्री भाष्य
  • वेदार्थ संग्रह
  • वेदान्त सार
  • वेदान्त दीपे
  • गद्यत्रय

रामानुज के परवर्ती आचार्य व उनके ग्रन्थ

  • सुदर्शन श्रुतप्रकाशिका ------------ सूरि
  • यतीन्द्र मतदीपिका --------------- श्रीनिवासाचार्य
  • शतदूषणी ------------------------ वेंकटनाथ
  • तात्पर्य चन्द्रिका ------------------ वेंकटनाथ
  • वेदान्त कौस्तुभ ------------------ वेंकटनाथ
  • परमतभंग ------------------------ वेंकटनाथ
  • न्याय सिद्धांजन ------------------- वेंकटनाथ
  • रहस्य त्रयसार --------------------- वेंकटनाथ

द्वैत या द्वैतवाद : मध्वाचार्य

    मध्वाचार्य को वेदान्त परम्परा में द्वैतवाद के प्रवर्तक माना जाता हैं।  इन्हें पूर्णप्रज्ञ एवं आनन्द तीर्थ भी कहते हैं।  इनके मत के लोग इन्हें वायु का अवतार मानते हैं।  इनका जन्म 1199 ई. में दक्षिणी प्रान्त के कर्नाटक के उडुप्पी जिले के विल्व ग्राम में हुआथा।  इनका प्रारम्भिक नाम वासुदेव था। इन्होंने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था।  वर्ष 1317 ई. में इनका शरीर पूरा हुआ। मध्वाचार्य ने अद्वैत धारा को सदोष सिद्ध करके उसके तत्त्वज्ञान के खोखलेपन को प्रकट किया तथा वैष्णव परम्परा के भक्ति सिद्धान्त को तार्किक आधार पर प्रतिष्ठित किया।


ब्रह्मसूत्र पर मध्वाचार्य के भाष्य

  • ब्रह्मसूत्रभाष्य
  • अणुभाष्य
  • अणुव्याख्यान
  • न्यायविवरण
  • भगवद्गीता पर भाष्य
  • गीता भाष्य 
  • गीतातात्पर्य निर्णय

अन्य ग्रन्थ

  • महाभारततात्पर्य निर्णय
  • भगवततात्पर्य निर्णय
  • ऋग्भाष्य
  • मायावादखण्डन
  • उपाधि खण्डन तत्त्वसांख्यान
  • तत्वोद्योत
  • विष्णुतत्व निर्णय
  • प्रमाणलक्षण
  • प्रपंचमिथ्यानुमान खण्डन

द्वैताद्वैतवाद : निम्बार्क

    द्वैताद्वैतवाद दर्शन के प्रवर्तक निम्बार्क थे। निम्बार्क समुदाय को वैष्णव मत का सनक सम्प्रदाय कहा जाता है तथा इस सम्प्रदाय के लोग निम्बार्क को सुदर्शनचक्र का अवतार मानते है। आचार्य निम्बार्क एक तैलंग ब्राह्मण थे। निम्बार्क का दर्शन द्वैताद्वैतवाद, भेदाभेद भी कहलाता है। भेदाभेद दर्शन भारतीय दर्शन में अत्यन्त प्राचीन है। बादरायण से भी पूर्व के आचार्यों में औडुलोमि, आश्मरथ्य तथा शंकर पूर्व के आचार्यों में भर्तृप्रपण्य और भास्कर व यादव जैसे प्रसिद्ध आचार्यों का सम्बन्ध भेदाभेद दर्शन से रहा है। निम्बार्क ने ब्रह्मसूत्र पर वेदान्तपारिजातसौरभ नामक भाष्य, दशश्लोकी, श्रीकृष्णस्तवराज आदि ग्रन्थों की रचना की।  इनके शिष्य श्रीनिवासाचार्य ने निम्बार्क के ब्रह्मसूत्र भाष्य पर वेदान्तकौस्तुभ नामक व्याख्या लिखी है, जिस पर केशवभट्ट काश्मीरी की कौस्तुभप्रभा नामक विस्तृत टीका है। 


शुद्धाद्वैत : वल्लभाचार्य

    वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद के प्रवर्तक थे। वल्लभाचार्य (1478-1530 ई.) सोमयाजी कुल के तेलंग ब्राह्मण थे।  वल्लभाचार्य जी का पूरा जीवन, काशी, अरैल (प्रयाग) और वृन्दावन में बीता। श्री वल्लभाचार्य के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, श्रीमदभागवत पर सुबोधिनी टीका और तत्त्वार्थदीपनिबन्ध। गिरिधर महाराज का शुद्धाद्वैतमार्तण्ड और श्री बालकृष्ण भट्ट का प्रमेयरत्नार्णव इस सम्प्रदाय के अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं। शुद्धाद्वैत को पुष्टिमार्ग भी कहा जाता है। पुष्टि का अर्थ है- भगवान का अनुग्रह। इस प्रकार पुष्टिमार्ग का संस्थापक भी वल्लभाचार्य को ही माना जाता है।

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