वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

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वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

शंकराचार्य ( 788-820 ई० )

    शंकराचार्य केरल प्रान्त के नम्बू दरी ब्राह्मण थे तथा गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्दभगवत्पाद के शिष्य थे। स्मरणीय है कि गौडपाद ने मांडूक्य-कारिका लिखी थी जो मायावाद का प्रथम शास्त्र ग्रन्थ है। शंकर ने इसपर टीका लिखी थी। 32 वर्षों की अल्प आयु में भी शंकर का यश अक्षुराण है। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिखा जिसने अद्वैत वेदान्त की आधारशीला रखी। इनका गद्य अपने ढंग का अद्वितीय है। इन्होंने संपूर्ण भारत का भ्रमण करके वेदान्त मत की प्रतिष्ठा की तथा कई स्थानों पर मठों की स्थापना की। शंकर के समकालिक मण्डनमिश्र थे जिन्होंने मीमांसा में बहुत यश प्राप्त किया था परन्तु शंकर के ही प्रभाव से ये वेदान्त मत में दीक्षित हो गये। इन्होंने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा जिस पर वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, चित्सुख (1225 ई०) ने अभिप्रायप्रका शिका और आनन्दपूर्ण ने भावशुद्धि नाम से टोकायें की थीं। मण्डन ने वेदान्ती होने पर अपना नाम सुरेश्वराचार्य रखा था। शंकर के एक शिष्य पद्मपादाचार्य थे जिन्होंने शारीरकभाष्य पर पञ्चपादिका वृत्ति लिखी जिसमें केवल चतु:सूत्री का विवेचन है। पंचपादिका पर कई टीकायें लिखी गई जिनमें प्रकाशात्मयति (1200 ई०) की विवरण टीका प्रसिद्ध है। इसके नाम पर विवरण प्रस्थान (Vivarana School) ही बन गया। विवरण की दो टीकायें हैंअखंडा नंद सरस्वती (1500 ई०) कृत तत्वदीपन तथा विद्यारण्य (1350 ई०) कृत विवरण प्रमेय संग्रह| सुरेश्वराचार्य के शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि (900 ई०) ने संक्षेपशारीरक नामक एक पद्यबद्ध व्याख्याग्रन्थ लिखा। वाचस्पतिमिश्र (850 ई०) ने शारीरकभाष्य पर अपनी सुप्रसिद्ध भामती नाम की टीका लिखी जो भाष्य के बाद अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी दो सुप्रसिद्ध टीकायें हैंअमलानन्द (1250 ई०) की कल्पतरु टीका और अप्पयदीक्षित (1550 ई०) की परिमल टीका| महाकवि श्रीहर्षं (1150 ई०) का खण्डनखण्डखाद्य वेदान्त का नैयायिक विधि से विश्लेषण करने वाला ग्रन्थ है। चित्सुखाचार्य (1225 ई०) ने सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि पर, ब्रह्मसिद्धि पर तथा शारीरकभाष्य पर टीकायें लिखकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रत्यक्तत्वदीपिका (चित्सुखी) के नाम से लिखा। सर्वदर्शन संग्रह के रचयिता माधवाचार्य सन्यस्त होकर विद्यारण्य के नाम से प्रसिद्ध और उन्होंने अपनी स्वतन्त्र कृति पंचदशी नाम से दी। शांकर दर्शन के अन्य ग्रन्थों में आनन्दबोध का न्यायमकरंद, मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि तथा सिद्धान्तबिन्दु, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्त लेशसंग्रह, धर्मराजाध्वरीन्द्र की वेदान्तपरिभाषा एवं सदानन्द का वेदान्त-सार प्रसिद्ध हैं।

वेदान्त का इतिहास

    जैसा कि स्वाभाविक है वैदिक वाङ्मय वेदों से हैं । वेदान्त के विषय में भी यही बात सत्य है। भारतीय वाङ्मय की उत्पत्ति मानते ऋग्वेद के सूक्तों में ही माया और ब्रह्म के सम्बन्ध की सूचनायें मिलती हैं। फिर भी वास्तविक वेदान्त वेद के अन्तिम भाग-उपनिषदों से शुरू होता है जहाँ जीव और ब्रह्म के विषय में विशिष्ट कल्पनायें की गई हैं। संख्या में अनेक होने पर भी शंकराचार्य ने केवल ग्यारह उपनिषदों को मान्यता दी है। वेदान्त से उपनिषदों का ही बोध मुख्य रूप से होता है। उपनिषदों का सारांश भगवद्गीता में आ गया है। इसलिए उसे भी वेदान्त के अन्तर्गत ही रखते हैं। उपनिषद् और गीता में बिखरे हुए विचारों को बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में शृंखलाबद्ध किया। इस प्रकार वेदान्त के तीन प्रस्थान ग्रन्थ कहलाते हैं- उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र। शंकराचार्य ने तीनों पर व्याख्या लिखकर अद्वैतमत का प्रवर्तन किया।

अद्वैत वेदान्त की मुख्य मान्यताएं 

  • अद्वैत वेदान्त की मुख्य चार मान्यताएं है -
  • एकमात्र तात्विक पदार्थ निर्गुण, कूटस्थ नित्य, सच्चिदयानन्द ब्रह्म है। 
  • जीव और ब्रह्म एक ही है। 
  • जीव और ब्रह्म में जो भेद दिखाई देता है उसका कारण अविद्या है। 
  • यह दृश्यमान जगत माया का कार्य है और मिथ्या है।  
    इसके अतिरिक्त अद्वैत वेदान्त उपनिषदों के परा और अपरा विद्याओं के भेद को पारमार्थिक और व्यवहारिक सत्य के भेद में परिवर्तित कर देता है। वह सांख्य के सत्कार्यवाद को विवर्तवाद के सिद्धान्त में बदल देता है और परमार्थ और व्यवहार का भेद अद्वैत मत को बौद्धों के महायनी सम्प्रदाय के समानधर्मा बना देता है। यही कारण रहा कि शंकर को कुछ लेखकों ने प्रच्छन बौद्ध कहा है। 

वेदान्त-सूत्र (ब्रह्मसूत्र) की विषय-वस्तु

    वेदान्त शास्त्र चार अध्यायों में विभक्त है।  प्रत्येक अध्याय का एक-एक प्रतिपाद्य विषय या लक्षण होने के कारण इसे चतुर्लक्षरणी भी कहते हैं। शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि भगवान् बादरायण के द्वारा रचित इस वेदान्त शास्त्र का विषय प्रत्यक् (जीवात्मा) और ब्रह्म की एकता का प्रदर्शन करना है।

    प्रथम अध्याय को समन्वयाध्याय कहते हैं जिसमें सिद्ध किया गया है कि सारे वेदान्त (उपनिषद्) वाक्यों का तात्पर्य ब्रह्म में ही समीहित है। द्वितीय अध्याय अविरोधाध्याय कहलाता है जिसमें सांख्य आदि दर्शनों के तर्कों से उत्पन्न विरोध का निराकरण किया गया है। तृतीय अध्याय साधनाध्याय है जिसमें ब्रह्मविद्या की सिद्धि की गई है। चतुर्थ अध्याय को फलाध्याय कहते हैं जिसमें ब्रह्मविद्या का फल निर्दिष्ट है।

    प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं । प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में स्पष्ट रूप से (प्रत्यक्षतः) ब्रह्म को बतलाने वाले वाक्यों की मीमांसा हुई है। द्वितीय पाद में ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले उपासना-विषयक वाक्यों की मीमांसा है। तृतीय पाद में उसी तरह के (ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले ज्ञेय-विषयक वाक्यों की समीक्षा है और चतुर्थ पाद में 'अव्यक्त' 'अजा' आदि संदिग्ध शब्दों की समीक्षा हुई है।

    द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में सांख्य, योग और वैशेषिक आदि स्मृतियों (दर्शनों) के द्वारा किये जानेवाले विरोध का परिहार किया गया है। द्वितीय पाद में सांख्यादि दर्शनों के मतों की दोषात्मकता दिखलाई गई है। तृतीय पाद में पाँच महाभूतों का वर्णन करनेवाली श्रुतियों और जीव-विषयक श्रुतिवाक्यों के परस्पर विरोध का निवारण किया गया है। चतुर्थ पाद में लिङ्गशरीर का वर्णन करनेवाली श्रुतियों के विरोध का परिहार किया गया है।  

    तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में जीव के परलोक जाने या न जाने के प्रश्न पर विचार करके वैराग्य का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय पाद में 'तत्त्वमसि' (छां ६||७) महावाक्य के 'त्वम्' और 'तत्' पद के अर्थ का अनुशोलन किया गया है। तृतीय पाद में सगुण ज्ञान के विषय में गुणों का उपसंहार अर्थात् अन्यत्र प्रतिपादित गुरणों का संकलन किया गया है। चतुर्थं पाद में निर्गुण ब्रह्म की विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिये बहिरंग और अन्तरंग साधनों जैसे आश्रम, यज्ञ (बहिरंग) तथा शम (अंतरंग) आदि का निरूपण हुआ है ।

    चतुर्थ अध्याय के प्रथम पाद में यह बतलाया गया है कि ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने से जीते जी ही व्यक्ति को वह मुक्ति मिलती है जिसमें पाप, पुण्य और क्लेश का सर्वथा विनाश हो जाता है। द्वितीय पाद में मरण और ऊपर उठने अर्थात स्वर्गगमन के प्रश्न पर विचार किया गया है। तृतीय पाद में सगुण ब्रह्म की उपासना करने वाले पुरुष के मरणोत्तर मार्ग का वर्णन किया गया है। चतुर्थं पाद में निर्गुण ब्रह्मवेत्ता और सगुण ब्रह्मवेत्ता की क्रमशः विदेहमुक्ति और ब्रह्मलोक में अवस्थिति का निरूपण हुआ है।

    इस प्रकार ब्रह्म-विचार-शास्त्र में वर्णित विषयों का संग्रह किया गया। ब्रह्मसूत्र (वेदान्तसूत्र) पर विभिन्न दार्शनिकों ने टीका करके अपने विशिष्ट मार्गों का प्रवर्तन किया है जो इस प्रकार है-

आचार्य

सिद्धान्त

भाष्य

शंकराचार्य

अद्वैत वेदान्त

शारीरिक भाष्य

रामानुजाचार्य

विशिष्टाद्वैत

श्री भाष्य

भास्कराचार्य

भेदाभेद

भास्कर भाष्य

निम्बार्काचार्य  

द्वैताद्वैत

वेदान्त पारिजात

मध्वाचार्य

द्वैतवेदान्त

पूर्ण प्रज्ञा भाष्य

बल्लभाचार्य

शुद्धाद्वैत

अणुभाष्य

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