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Sunday, October 10, 2021

सांख्य की प्रकृति एवं वेदान्त की अविद्या में तुलना

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सांख्य की प्रकृति एवं वेदान्त की अविद्या में तुलना

सांख्य की प्रकृति एवं वेदान्त की अविद्या में तुलना

प्रकृति

अविद्या

1.    प्रकृति एक स्वतंत्र तत्व है।

1.    अविद्या एक स्वतंत्र तत्त्व नहीं वह ब्रह्म की शक्ति है।

2.   प्रकृति त्रिगुणात्मक है।

2.   अविद्या भी त्रिगुणात्मक है।

3.   प्रकृति अचेतन है।

3.   अविद्या भी अचेतन है।

4.   प्रकृति भावात्मक (Positive) है।

4.   अविद्या या आवरण और विक्षेप शक्तियों वाली माया भावात्मक ही है।

5.   प्रकृति संसार के प्रपंचों को उत्पन्न करती है।

5.   अविद्या भी संसार के प्रपंचों को उत्पन्न करती है।

6.   प्रकृति के कार्यं सत् (Real) हैं।

6.   अविद्या के कार्य व्यावहारिक दृष्टि से सत् भले ही हों पारमार्थिक दृष्टि से मिथ्या हैं।

7.    पुरुष को मोक्ष दिलाने के लिए प्रकृति इतने कार्य उत्पन्न करती है (परिणत होती है)।

7.    अविद्या बंधन में डालने वाले कार्यों को उत्पन्न करती है।

8.   प्रकृति कार्य पूरा करके स्वयं निवृत्त हो जाती है।  

8.   जीव को अविद्या के नाश के लिए प्रयत्न करना पड़ता है।

9.    प्रकृति के कार्यों का पुरुष साक्षी है।

9.    अविद्या के कार्यों का ब्रह्म या जीव साक्षी नहीं होता।

10.  प्रकृति में कोई शक्ति वस्तु को छिपाने के लिए नहीं है।

10.  अविद्या में आवरण और विक्षेप नाम की दो शक्तियाँ हैं।

11.   प्रकृति स्वतंत्र तत्त्व होने के कारण अनादि है।

11.   अविद्या स्वतंत्र तत्त्व न होने पर भी अनादि है।

12.  प्रकृति के कार्य परिणामवाद पर आधारित हैं।

12.  अविद्या के कार्य विवर्तवाद पर आधारित हैं।

13.  पुरुष को मुक्ति प्रकृति पुरुष में भेद के ज्ञान से होती है।

13.  जीव को मुक्ति अविद्या के नाश से ब्रह्म का शुद्ध रूप में ज्ञान से होती है।`

14.  प्रकृति सभी जीवों के लिए एक ही है।

14.  अविद्या सभी जीवों में अलग अलग है।

Sunday, October 3, 2021

सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

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सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

    कार्य-कारण भाव अरस्तू के दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसके माध्यम से उसने जगत् की व्यापक दार्शनिक व्याख्या करने का प्रयास किया। यहाँ कार्य-कारण भाव एक मौलिक एवं व्यापक अवधारणा है। सांख्य दर्शन का कारण कर्ता सिद्धान्त सत्कार्यवाद कहलाता है। अरस्तू की मान्यता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति से पूर्व मैटर में विद्यमान थी। अरस्तू मानते हैं कि जगत् की प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति के कारण होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

    उपादान कारण उपादान कारण से आशय उस सामग्री से है, जिससे कार्य की उत्पत्ति होती है; जैसे-घड़े के निर्माण के लिए मिट्टी उपादान (सामग्री) है।

    निमित्त कारण निमित्त कारण से आशय उन क्रियाओं, साधनों और उनका प्रयोग करने वाले से है, जिनकी सहायता से कार्य सम्पन्न किया जाता है। जैसे-घड़े के निर्माण के लिए चाक, डण्डा, धागा तथा कुम्भकार आदि निमित्त कारण हैं।

    आकारिक कारण आकारिक कारण को स्वरूप कारण भी कहा जाता है, जिससे आशय किसी वस्तु के प्रतिमान (मॉडल) से है, जो निर्माणकर्ता के मस्तिष्क में रहता है।

    लक्ष्य कारण लक्ष्य कारण को अन्तिम कारण भी कहा जाता है जिससे आशय उस विचार से है जिसे मूर्त रूप प्रदान करना है: जैसेकुम्भकार के मन में यह विचार रहता है कि मुझे घड़े का निर्माण करना है। वास्तव में, यह विचार एक प्रकार का प्रयोजन है, जिसकी प्राप्ति करनी है।

    अरस्तू की मान्यता है कि आकारिक कारण में ही निमित्त कारण और अन्तिम कारण समाहित हैं, क्योंकि मॉडल के अनुरूप ही हम क्रियाओं और साधनों को अपनाते हैं तथा इस मॉडल का ही मूर्त रूप में प्रकटीकरण करना हमारा लक्ष्य होता है। यही कारण है कि आगे चलकर अरस्तू ने कहा कि किसी भी वस्तु और घटना की उत्पत्ति के मूल में वास्तव में, दो ही कारण होते हैं-उपादान कारण तथा आकारिक कारण।

    अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और घटनाओं के मूल में उपादान तथा आकारिक कारण को स्वीकार किया तथा इन्हें क्रमश: मैटर और आकार की संज्ञा दी। अरस्तू ने मैटर को अनिश्चित तत्त्व की संज्ञा दी तथा बताया कि मैटर में आकार ग्रहण करने तथा वस्तु के रूप में प्रकट होने की सम्भाव्यता होती है। जो भी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, वे अपनी उत्पत्ति के पूर्व मैटर में ही विद्यमान रहती हैं।

    अरस्तू के समान ही जहाँ सांख्य दार्शनिकप्रकृति' को जगत् की समस्त वस्तुओं का आदि कारण मानते हुए जगत् की समस्त वस्तुओं को उनकी उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में विद्यमान मानते हैं, वहीं अरस्तू के समान आकारिक कारण को स्वीकार नहीं करते हैं। सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि किसी कारण से कार्य इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। किसी निश्चित कार्य के लिए किसी निश्चित उपादान कारण की ही आवश्यकता होती है; जैसे-तेल निकालने के लिए सामग्री के रूप में तिल की आवश्यकता है। सांख्य दार्शनिक जहाँ मानते हैं कि कारण और कार्य में कोई भेद नहीं होता, क्योंकि कारण ही विभाजित होकर कार्य के रूप में प्रकट हो जाता है, वहीं अरस्तू ने कारण और कार्य में भेद किया है, साथ ही यह भी बताया है कि किसी समय में जिसे कार्य की संज्ञा दी गई थी। ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी अन्य कार्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कारण का रूप धारण कर ले। सांख्य दार्शनिक भी अरस्तू के समान यह स्वीकार करते हैं कि कार्य किसी अन्य घटना के सन्दर्भ में कारण का रूप धारण करके किसी अन्य कार्य को उत्पन्न कर सकता है।

    अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और घटनाओं में आदि कारण के रूप में जहाँ मैटर और आकार को स्वीकार किया है, वहीं सांख्य दार्शनिक एकमात्र प्रकृति को समस्त जगत् के आदि कारण तथा स्वयंभू कारण के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु दोनों ही इस मत पर सहमत दिखाई देते हैं कि मैटर तथा प्रकृति से अपने आप कोई घटना या वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में अरस्तू ने कहा है कि मैटर में विद्यमान सम्भाव्यता तब तक वस्तु के रूप में प्रकट नहीं हो सकती, जब तक कि आकार उसे गतिशील न करे। इसी प्रकार, सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि प्रकृति से सृष्टि तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि पुरुष इससे संयुक्त न हो।

    अत: उपरोक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि अरस्तू और सांख्य दार्शनिकों के कार्य-कारण भाव में यदि कुछ बातों को लेकर समानता है, तो कुछ बातों को लेकर असमानता भी है।

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सांख्य दर्शन में मोक्ष (कैवल्य) की अवधारणा

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सांख्य दर्शन में मोक्ष (कैवल्य) की अवधारणा 

सांख्य दर्शन में मोक्ष (कैवल्य) की अवधारणा 

    सांख्य दर्शन में भी अन्य भारतीय दर्शनों (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) की भाति मोक्ष को परम आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ मोक्ष से आशय 'समस्त दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति' मात्र से है न कि आनन्दपूर्ण अवस्था से। अन्यों की भाँति सांख्य भी संसार को दु:खात्मक मानते हैं।

    सांख्य के अनुसार, संसार में तीन प्रकार के दुःख पाए जाते हैं-आध्यात्मिक दुःख अधिभौतिक दु:ख तथा अधिदैविक दु:; इन तीन प्रकार के दु:खों को ही 'त्रिविध ताप' की संज्ञा दी गई है तथा इनसे मुक्त होने को ही जीवन के परम लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ मोक्ष के लिए अपवर्ग शब्द का प्रयोग किया गया है।

    अधिभौतिक दुःख बाह्य वस्तुओं; जैसेबाढ़, भूकम्प, तूफान आदि प्राकृतिक आपदाएँ, चोट लगना, घाव हो जाना इत्यादि अधिभौतिक दुःख हैं। अधिदैविक दःख अलौकिक शक्तियों से जनित कष्ट; जैसे- भूत-प्रेतों, ग्रह-नक्षत्रों आदि से प्राप्त कष्ट अधिदैविक कष्ट हैं। आध्यात्मिक दुःख शारीरिक व मानसिक पीड़ा से उत्पन्न दु:ख आध्यात्मिक दु:ख कहलाते हैं; जैसे-बुखार होना, मन का दुःखी होना, तनावग्रस्त रहना आदि।

    सांख्य दर्शन के अनुसार वास्तविक रूप में पुरुष, ज्ञानस्वरूप, चैतन्य तत्त्व, निष्क्रिय, अकर्ता, अभोक्ता, समस्त अनुभवों से रहित तथा नित्य मुक्त है, परन्तु अविवेक अथवा अविद्या के कारण वह अपने ऊपर जड़ प्रकृति के गुणों को आरोपित कर लेता है अर्थात् वह अपने आपको शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार, कर्ता, भोक्ता, अनुभवकर्ता आदि समझने लगता है। प्रकृति के साथ पुरुष का अविवेक जनित यह तादात्म्य ही उसके बन्धन तथा समस्त दुःखों का मूल कारण है। अत: मोक्ष प्राप्ति के लिए इस अविवेक और इससे उत्पन्न प्रकृति के साथ पुरुष के तादात्म्य का विनाश अनिवार्य है। यह अविवेक 'तत्त्व ज्ञान' द्वारा ही नष्ट हो सकता है। तत्त्व ज्ञान से आशय है पुरुष का अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेना। अन्य शब्दों में, तत्त्व ज्ञान से आशय है-'आत्म-अनात्म विवेक' अर्थात् आत्मा अथवा पुरुष को अनात्म या प्रकृति से पूर्णत: पृथक् समझना। इसी ज्ञान को सांख्याचार्यों ने 'विवेक ख्याति' की संज्ञा दी है तथा मनन और निदिध्यासन को विवेक ख्याति के लिए अनिवार्य माना है, वहीं कुछ अन्य सांख्य अनुयायी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि को विवेक ज्ञान के लिए अनिवार्य मानते हैं। इनके अनुसार इस अष्टांग मार्ग का पालन करने से अविवेक दूर हो जाता है। अर्थात् पुरुष को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है, जिसमें समस्त दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है।

    सांख्य में जीवित रहते ही मोक्ष को सम्भव माना गया है। ऐसी मुक्ति को जीवन मुक्ति तथा इसे प्राप्त करने वाले को 'जीवन मुक्त' की संज्ञा दी गई है तथा बताया गया है कि जीवित रहते मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद भी जीवन मुक्त तब तक विदेह मुक्ति को प्राप्त नहीं होता, जब तक समस्त प्रारब्ध कर्मों का फल जीवन मुक्त द्वारा नि:स्वार्थ कर्म करते हुए भोग नहीं लिया जाता। जैसे ही प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं, वह अपना शरीर त्याग देता है अर्थात् विदेह मुक्त हो जाता है।

    सांख्य दर्शन के अनुसार बन्धन और मुक्ति दोनों व्यावहारिक हैं। पुरुष स्वभावतः नित्य मुक्त है। वह न तो बन्धन में पड़ता है न मुक्त होता है। पुरुष को यह प्रतीत होता है कि बन्धन और मोक्ष होता है, परन्तु यह प्रतीति वास्तविकता का रूप नहीं ले सकती। अत: पुरुष बन्धन और मोक्ष दोनों से परे है। सच यह है कि बन्धन और मोक्ष प्रकृति की अनुभूतियाँ हैं। प्रकृति ही बन्धन में पड़ती और मुक्त होती है। पुरुष को बन्धन और मोक्ष का भ्रम मात्र हो जाता है।

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सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

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सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

सांख्य दर्शन का निरीश्वरवाद

    ईश्वर की सत्ता को लेकर सांख्य दर्शन के भाष्यकारों में पर्याप्त मतभेद हैं। उनमें अधिकांश तो ईश्वरवाद का खण्डन करते हैं। ये भाष्यकार उन सभी आधारों का खण्डन करते हैं, जिनके आधार पर ईश्वर से सृष्टि का उद्भव एवं विकास दिखाया जाता है। सनातन सांख्य मतावलम्बी मानते हैं कि यह संसार कार्य श्रृंखला है इसलिए इसका कारण होना चाहिए, परन्तु निःसन्देह वह कारण ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर को नित्य, निर्विकार एवं पूर्ण परमात्मा माना गया है। जो परमात्मा निर्विकार, स्वयंभू एवं पूर्ण है, वह परिवर्तनशील वस्तुओं का निमित्त कारण नहीं हो सकता अर्थात् वह किसी भी क्रिया का प्रवर्तक नहीं हो सकता।

    ईश्वर भौतिक तत्त्व नहीं है। अभौतिक तत्त्व से भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अत: यह सिद्ध होता है कि जगत् का मूल कारण नित्य, परन्तु परिणामी (परिवर्तनशील) है। यही नित्य परिणामी कारण प्रकृति है। यह कहा जा सकता है कि प्रकृति तो जड़ है। इसकी गति को निरूपित एवं नियमित करने के लिए चेतन सत्ता आवश्यक है, जो सृष्टि उत्पन्न करती है। जीवात्माओं का ज्ञान सीमित रहता है, इसलिए जगत् के सूक्ष्म उपादान कारण को नियन्त्रित नहीं कर सकते है।

    अत: एक अनन्त बुद्धिमान चैतन्य युक्त सत्ता की कल्पना करनी चाहिए जो प्रकृति का संचालन कर सके। इसी को ईश्वर कहते हैं, परन्तु ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर कुछ नहीं करता, वह किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता, परन्तु प्रकृति का संचालन एक क्रिया है। ईश्वर चूँकि पूर्ण है, अत: उसमें अपूर्ण इच्छा सम्भव नहीं है। यदि यह कहा जाए कि ईश्वर का प्रयोजन अन्य जीवों की उद्देश्य पूर्ति है, तो शंका उठती है कि बिना अपने किसी स्वार्थ के कोई भी व्यक्ति दूसरे की उद्देश्य सिद्धि के लिए तत्पर नहीं रहता है। यदि ईश्वर में विश्वास किया जाए, तो जीवों का स्वातन्त्र्य और अमरतत्त्व बाधित हो जाता है। यदि जीवों को ईश्वर का अंश मान लें, तो उसमें ईश्वरीय शक्ति रहनी चाहिए, परन्तु यह देखने में नहीं आती, इसके विपरीत यदि उन्हें ईश्वर के द्वारा उत्पन्न मानें, तो फिर उनका मरण होना असम्भव है।

    उपरोक्त सब बातों से निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति ही संसार का मूल कारण है। प्रकृति अज्ञात रूप से स्वभावत: पुरुषों के कल्याण के लिए उसी तरह सृष्टि रचना करती है, जिस तरह बछड़े की सृष्टि के निमित्त गाय के थन से स्वत: दूध की धारा बहती है। सांख्य ईश्वरवाद का निषेध करता है, अत: सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...