सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

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सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

सांख्य दर्शन एवं अरस्तू के कारण-कार्य सिद्धान्त की तुलना

    कार्य-कारण भाव अरस्तू के दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसके माध्यम से उसने जगत् की व्यापक दार्शनिक व्याख्या करने का प्रयास किया। यहाँ कार्य-कारण भाव एक मौलिक एवं व्यापक अवधारणा है। सांख्य दर्शन का कारण कर्ता सिद्धान्त सत्कार्यवाद कहलाता है। अरस्तू की मान्यता है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु अपनी उत्पत्ति से पूर्व मैटर में विद्यमान थी। अरस्तू मानते हैं कि जगत् की प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति के कारण होते हैं, जो इस प्रकार हैं-

    उपादान कारण उपादान कारण से आशय उस सामग्री से है, जिससे कार्य की उत्पत्ति होती है; जैसे-घड़े के निर्माण के लिए मिट्टी उपादान (सामग्री) है।

    निमित्त कारण निमित्त कारण से आशय उन क्रियाओं, साधनों और उनका प्रयोग करने वाले से है, जिनकी सहायता से कार्य सम्पन्न किया जाता है। जैसे-घड़े के निर्माण के लिए चाक, डण्डा, धागा तथा कुम्भकार आदि निमित्त कारण हैं।

    आकारिक कारण आकारिक कारण को स्वरूप कारण भी कहा जाता है, जिससे आशय किसी वस्तु के प्रतिमान (मॉडल) से है, जो निर्माणकर्ता के मस्तिष्क में रहता है।

    लक्ष्य कारण लक्ष्य कारण को अन्तिम कारण भी कहा जाता है जिससे आशय उस विचार से है जिसे मूर्त रूप प्रदान करना है: जैसेकुम्भकार के मन में यह विचार रहता है कि मुझे घड़े का निर्माण करना है। वास्तव में, यह विचार एक प्रकार का प्रयोजन है, जिसकी प्राप्ति करनी है।

    अरस्तू की मान्यता है कि आकारिक कारण में ही निमित्त कारण और अन्तिम कारण समाहित हैं, क्योंकि मॉडल के अनुरूप ही हम क्रियाओं और साधनों को अपनाते हैं तथा इस मॉडल का ही मूर्त रूप में प्रकटीकरण करना हमारा लक्ष्य होता है। यही कारण है कि आगे चलकर अरस्तू ने कहा कि किसी भी वस्तु और घटना की उत्पत्ति के मूल में वास्तव में, दो ही कारण होते हैं-उपादान कारण तथा आकारिक कारण।

    अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और घटनाओं के मूल में उपादान तथा आकारिक कारण को स्वीकार किया तथा इन्हें क्रमश: मैटर और आकार की संज्ञा दी। अरस्तू ने मैटर को अनिश्चित तत्त्व की संज्ञा दी तथा बताया कि मैटर में आकार ग्रहण करने तथा वस्तु के रूप में प्रकट होने की सम्भाव्यता होती है। जो भी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, वे अपनी उत्पत्ति के पूर्व मैटर में ही विद्यमान रहती हैं।

    अरस्तू के समान ही जहाँ सांख्य दार्शनिकप्रकृति' को जगत् की समस्त वस्तुओं का आदि कारण मानते हुए जगत् की समस्त वस्तुओं को उनकी उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति में ही अव्यक्त रूप में विद्यमान मानते हैं, वहीं अरस्तू के समान आकारिक कारण को स्वीकार नहीं करते हैं। सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि किसी कारण से कार्य इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि उसमें कार्य को उत्पन्न करने की शक्ति होती है। किसी निश्चित कार्य के लिए किसी निश्चित उपादान कारण की ही आवश्यकता होती है; जैसे-तेल निकालने के लिए सामग्री के रूप में तिल की आवश्यकता है। सांख्य दार्शनिक जहाँ मानते हैं कि कारण और कार्य में कोई भेद नहीं होता, क्योंकि कारण ही विभाजित होकर कार्य के रूप में प्रकट हो जाता है, वहीं अरस्तू ने कारण और कार्य में भेद किया है, साथ ही यह भी बताया है कि किसी समय में जिसे कार्य की संज्ञा दी गई थी। ऐसा भी हो सकता है कि वह किसी अन्य कार्य की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कारण का रूप धारण कर ले। सांख्य दार्शनिक भी अरस्तू के समान यह स्वीकार करते हैं कि कार्य किसी अन्य घटना के सन्दर्भ में कारण का रूप धारण करके किसी अन्य कार्य को उत्पन्न कर सकता है।

    अरस्तू ने जगत् की समस्त वस्तुओं और घटनाओं में आदि कारण के रूप में जहाँ मैटर और आकार को स्वीकार किया है, वहीं सांख्य दार्शनिक एकमात्र प्रकृति को समस्त जगत् के आदि कारण तथा स्वयंभू कारण के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु दोनों ही इस मत पर सहमत दिखाई देते हैं कि मैटर तथा प्रकृति से अपने आप कोई घटना या वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती। इस सन्दर्भ में अरस्तू ने कहा है कि मैटर में विद्यमान सम्भाव्यता तब तक वस्तु के रूप में प्रकट नहीं हो सकती, जब तक कि आकार उसे गतिशील न करे। इसी प्रकार, सांख्य दार्शनिकों की मान्यता है कि प्रकृति से सृष्टि तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि पुरुष इससे संयुक्त न हो।

    अत: उपरोक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि अरस्तू और सांख्य दार्शनिकों के कार्य-कारण भाव में यदि कुछ बातों को लेकर समानता है, तो कुछ बातों को लेकर असमानता भी है।

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