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Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन में अनुमान की अवधारणा

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मीमांसा दर्शन में अनुमान की अवधारणा 
 

मीमांसा दर्शन में अनुमान की अवधारणा 

अनुमान

    मीमांसा का अनुमान प्रमाण न्याय के अनुमान से मिलता है। न्याय में अनुमान का शब्दार्थ किया गया है-पश्चाद्ज्ञान। एक बात से दूसरी बात को देख लेना (अनु + ईशा) या एक बात को जान लेने के बाद दूसरी बात को जान लेना (अनु-मतिकरण) पश्चाद्ज्ञान या अनुमान कहलाता है। धुआँ को वहाँ अग्नि के होने का अनुमान लगाना इस प्रमाण का उदाहरण है। इसलिए प्रत्यक्ष वस्तु (धुआँ) के आधार पर अप्रत्यक्ष वस्तु (अग्नि) का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान की प्रक्रिया का आधार है।

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Sunday, October 3, 2021

योग दर्शन में अनुमान प्रमाण की अवधारणा

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योग दर्शन में अनुमान प्रमाण की अवधारणा 

योग दर्शन में अनुमान प्रमाण की अवधारणा 

अनुमान प्रमाण

लक्षण देखकर जिस किसी वस्तु का ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं। यहाँ अनुमान दो प्रकार के माने गए हैं

  1. वीत अनुमान
  2. अवीत अनुमान

वीत अनुमान

वीत अनुमान उसे कहते हैं, जो पूर्णव्यापी भावात्मक वाक्य पर अवलम्बित रहता है। वीत अनुमान के दो भेद माने गए हैं-

  1. पूर्ववत् अनुमान
  2. सामान्यतोदृष्ट अनुमान

पूर्ववत् अनुमान

   पूर्ववत् अनुमान उसे कहते हैं, जो दो वस्तुओं के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध पर आधारित है। धुआँ और आग दो ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनके बीच व्याप्ति-सम्बन्ध निहित है। इसलिए धुआँ को देखकर आग का अनुमान किया जाता है।

सामान्यतोदृष्ट अनुमान

   सामान्यतोदृष्ट अनुमान वह अनुमान, जो हेतु और साध्य के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध पर निर्भर नहीं करता है, सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है। इस अनुमान का उदाहरण निम्नांकित है-

     आत्मा के ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति को नहीं होता है, परन्तु हमें आत्मा के सुख, दुःख, इच्छा इत्यादि गुणों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इन गुणों के प्रत्यक्षीकरण के आधार पर आत्मा का ज्ञान होता है। ये गुण अभौतिक हैं। अत: इन गुणों का आधार भी अभौतिक सत्ता होगी। वह अभौतिक सत्ता आत्मा ही है।

अवीत अनुमान

पतंजलि के प्रमाण सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुमान प्रमाण का दूसरा प्रकार अवीत अनुमान है। अवीत अनुमान उस अनुमान को कहा जाता है, जोकि पूर्वव्यापी निषेधात्मक वाक्य पर आधारित रहता है। इस दर्शन में भी पंचावयव अनुमान की प्रधानता दी गई है।

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Saturday, October 2, 2021

न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

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न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

     चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों के समान ही न्याय दर्शन में भी अनुमान को यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान दो शब्दों के योग से बना है-अनु एवं मान। यहाँ 'अनु' का अर्थ है- पश्चात् तथा मान का अर्थ है 'ज्ञान' अर्थात् अनुमान का शाब्दिक अर्थ है 'पश्चात् ज्ञान। अन्य शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात् और उसी पर आधारित होकर होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अत: स्पष्ट है अनुमान का आधार पूर्व में किए गए अनुभव हैं। उदाहरणार्थ-सामने पहाड़ी पर धुआँ दिख रहा है। धुएँ को देखकर यह ज्ञान हो जाना कि वहाँ आग है, यह एक अनुमान है। आग का ज्ञान हमें इसलिए प्राप्त हो गया, क्योंकि जब-जब हमने धुआँ देखा, तब-तब उसके साथ हमें आग भी दिखाई दी। अत: धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का हमें ज्ञान था। इस व्याप्ति के आधार पर ही हमने पहाड़ी में धुएँ को देखकर आग का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उदाहरण में धुआँ हेतु, आग साध्य तथा पहाड़ी पक्ष को निर्धारित करते हैं। अत: अनुमान में तीन अवयव होते हैं हेतु, साध्य तथा पक्षा नैयायिकों ने अनुमान को परिभाषित करते हुए कहा है कि-हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य सम्बन्ध के आधार पर पक्ष में साध्य का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान है।

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकार बताने के लिए दो वर्गीकरण मिलते हैं-प्रथम वर्गीकरण के अनुसार अनुमान दो प्रकार के होते हैं-

  1. स्वार्थ अनुमान तथा
  2. परार्थ अनुमान

द्वितीय वर्गीकरण के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के होते हैं-

  1. पूर्ववत्,
  2. शेषवत् तथा
  3. सामान्यतोदृष्ट अनुमान।

प्रथम वर्गीकरण के अन्तर्गत जो अनुमान स्वयं के लिए किया जाता है, उसे स्वार्थ अनुमान कहते हैं, किन्तु जो अनुमान पाँच अवयवों -

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन

का प्रयोग करते हुए अन्य को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए किया जाता है, उसे परार्थ अनुमान कहते हैं। द्वितीय वर्गीकरण के अन्तर्गत जब कारण का प्रत्यक्ष करके कार्य के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। जब कार्य का प्रत्यक्ष करके कारण के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे शेषवत् अनुमान कहते हैं तथा जब दो वस्तुओं में साहचर्य होता है तथा जिस साहचर्य को हम प्राय: देखते हैं तो एक वस्तु को देखकर दूसरी वस्तु का ज्ञान हो जाना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है; जैसेबैल के एक सींग को देखकर दूसरे सींग का सहज ही ज्ञान हो जाता है, क्योंकि दोनों में साहचर्य है। उपरोक्त दो वर्गीकरण के अतिरिक्त नव्य नैयायिकों ने अनुमान का एक तीसरा वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण के अनुसार, अनुमान तीन प्रकार के होते हैं

  1. केवल अन्वयी,
  2. केवल व्यतिरेकी तथा
  3. अन्वय व्यतिरेकी अनुमान।

    जब हेतु और साध्य के बीच भावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल अन्वयी अनुमान कहते हैं। जब अभावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जब व्याप्ति स्थापना भावमूलक तथा अभावमूलक साहचर्य दोनों के आधार पर करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तो इसे अन्वय व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। परार्थ अनुमान को पाँच क्रमबद्ध वाक्यों में प्रकाशित किया जाता है। इन वाक्यों को अवयव कहा जाता है। चूंकि परार्थ अनुमान में पाँच क्रमबद्ध अवयव होते हैं, अत: इसे पंचअवयव अनुमान भी कहा जाता है। ये पाँच अवयव हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

प्रतिज्ञा - इसके अन्तर्गत पक्ष में साध्य के होने का ज्ञान कराया जाता है। माना हम पहाड़ पर आग को सिद्ध करना चाहते हैं, तो ऐसा करने से पूर्व सर्वप्रथम हम अन्य के सामने वह स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं कि 'पहाड़ पर आग है। यह निर्देश ही प्रतिज्ञा है।।

हेतु - जिस हेतु से साध्य का अनुमान होता है, उस हेतु का वर्णन किया जाता है। उदाहरण के लिए पहाड़ पर आग को सिद्ध करने के लिए हम पर्वत पर उठ रहे धुएँ का वर्णन करते हैं।

दृष्टान्त - इसके अन्तर्गत व्याप्ति का उल्लेख एवं उसकी पुष्टि में दिए गए उदाहरण का उल्लेख किया जाता है। माना हमें यह सिद्ध करना है कि पहाड़ पर आग है, क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। हमें दृष्टान्त देना होगा कि रसोई में जब-जब हमने धुआँ देखा तब-तब आग थी, अतः धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध है।

उपनय - दृष्टान्त के माध्यम से हेतु और साध्य में व्याप्ति दिखाने के पश्चात् अब अपने पक्ष अर्थात् पहाड़ पर हेतु अर्थात् धुआँ दिखलाना ही उपनय है।

निगमन - इसके अन्तर्गत साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् पर्वत पर आग है, हमें यही सिद्ध करना था, जो सिद्ध हो गया।

परार्थानुमान का उदाहरण

    पर्वत पर आग है-प्रतिज्ञा

    क्योंकि वहाँ धुआँ है-चिह्न (हेतु)

    जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है-उदाहरण

    पर्वत पर धुआँ है-उपनय

    इसलिए पर्वत पर आग है-निगमन

     न्याय दार्शनिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का चौथा चरण उपनय ही तृतीय लिंग परामर्श कहा जाता है तथा इसी के द्वारा हमें साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। यह तृतीय लिंग परामर्श ही हमें अनुमान कराता है। नैयायिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का जो स्वरूप है इसमें प्रथम एवं पाँचवाँ तथा दूसरा एवं चौथा वाक्य समान है। अत: या तो प्रथम दो या अन्तिम दो कथनों को हटाया जा सकता है। इस प्रकार परार्थ अनुमान को स्वार्थ अनुमान में परिवर्तित किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य न्याय वाक्य तथा नैयायिकों के पंचअवयव अनुमान में भेद है। जहाँ पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य होते हैं-

  1. वृहद् वाक्य,
  2. लघु वाक्य तथा
  3. निष्कर्ष,

वहीं नैयायिकों के पंच अवयव अनुमान में पाँच वाक्य हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

     पंचअवयव अनुमान में जो दृष्टान्त है, वह पाश्चात्य न्याय वाक्य के वृहत वाक्य से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में उदाहरण के लिए कोई स्थान नहीं है, परन्तु पंचअवयव अनुमान में 'निगमन' को सबल बनाने के लिए उदाहरण का प्रयोग होता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में निष्कर्ष का तीसरा स्थान रहता है परन्तु पंचअवयव अनुमान में निष्कर्षप्रतिज्ञा' के रूप में प्रथम वाक्य में रहता है और निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य के स्थान पर रहता है। नैयायिकों का मत है कि पंचअवयव अनुमान में पाँच वाक्यों के रहने से निष्कर्ष अधिक सबल हो जाता है, परन्तु पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य रहने से निष्कर्ष भारतीय न्याय की तरह सबल नहीं हो पाता।

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