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कुमारिल भट्ट का विपरीतख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer कुमारिल भट्ट का विपरीतख्यातिवाद कुमारिल भट्ट का विपरीतख्यातिवाद विपरीतख्यातिवाद     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कुमारिल भट्ट द्वारा किया गया। इनके अनुसार , भ्रम इसलिए पैदा होता है , क्योंकि हमारा मन दो आंशिक , अपूर्ण तथा विपरीत वृत्तियों को आपस में जोड़कर निर्णय दे देता है। कुमारिल भट्ट कहते हैं कि जब हम रस्सी में साँप को देखते हैं और कहते हैं कि ' यह साँप है तो यहाँ उद्देश्य तथा विधेय दोनों ही सत् हैं। जो रस्सी उपस्थित है वह मन के द्वारा साँप की श्रेणी में लाई जा सकती है , क्योंकि संसार में इन दोनों की वास्तविक सत्ता है। भ्रम इस बात को लेकर हो जाता है कि हमारा मन दो सत् , किन्तु पृथक् पदार्थों में उद्देश्य तथा विधेय का सम्बन्ध जोड़कर निर्णय दे देता है।     इस प्रकार , यहाँ कुमारिल की दृष्टि वैज्ञानिक है , अत : वे भ्रम के सन्दर्भ में अपने वस्तुवाद का परित्याग कर देते है। भ्रम एक पूर्ण एवं असत् ज्ञान है। यह दो आंशिक एवं अपूर्ण सत् ज्ञान

प्रभाकर का अख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer प्रभाकर का अख्यातिवाद प्रभाकर का अख्यातिवाद अख्यातिवाद      भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं , क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं , एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत : प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते। -----------

मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद मीमांसा के कुमारिल एवं प्रभाकर सम्प्रदाय तथा उनके प्रमुख मतभेद     कुमारिल एवं प्रभाकर मीमांसा दर्शन के दो प्रमुख आचार्य हुए हैं। दोनों समकालीन थे। कुमारिल प्रभाकर के गुरु थे। दोनों में मीमांसा दर्शन के कुछ सिद्धान्तों को लेकर मतभेद पैदा हो गया था , इसलिए दोनों ने अलग - अलग सम्प्रदाय बना लिए। प्रभाकर का गुरु सम्प्रदाय एवं कुमारिल का भाट्ट सम्प्रदाय कहलाता है। दोनों में मीमांसा दर्शन के जिन सिद्धान्तों को लेकर मतभेद है , उनका वर्णन निम्नलिखित है - प्रमाणों की संख्या पर मतभेद     कुमारिल छ : प्रमाणों को मानते हैं , जो इस प्रकार हैं - प्रत्यक्ष , अनुमान , उपमान , शब्द , अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि। इन छ : प्रमाणों में से अनुपलब्धि को प्रभाकर प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते , वे पाँच ही प्रमाण मानते हैं। प्रभाकर का मत है कि अभाव की सिद्धि के लिए किसी नवीन प्रमाण को मानने क

मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद मीमांसा दर्शन का निरीश्वरवाद निरीश्वरवाद     पूर्व - मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान अत्यन्त ही गौण है। पूर्व - मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी ने ईश्वर का उल्लेख नहीं किया है जो एक अन्तर्यामी और सर्वशक्तिमान हो। इनके अनुसार संसार की सृष्टि के लिए धर्म और अधर्म का पुरस्कार और दण्ड देने के लिए ईश्वर को मानना भ्रान्तिमूलक है। इस प्रकार मीमांसा दर्शन में देवताओं के गुण या धर्म की चर्चा नहीं हुई है। पूर्व - मीमांसा दर्शन में ईश्वर का स्थान नहीं है , लेकिन देवताओं की चर्चा है। देवताओं की कल्पना बलि - प्रदान के सन्दर्भ में है। देवताओं को केवल बलि को ग्रहण करने वाले के रूप में ही माना गया है। उनकी उपयोगिता केवल इसलिए है कि उनके नाम पर होम किया जाता है। चूँकि मीमांसा दर्शन में अनेक देवताओं को माना गया है इसलिए मीमांसा को बहुदेववादी कहा जा सकता है। लेकिन देवताओं का अस्तित्व केवल वैदिक मन्त्रों में ही माना गया है। विश्व में उनक

मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त मीमांसा दर्शन में भ्रम के सिद्धान्त निम्न हैं - अख्यातिवाद     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रभाकर द्वारा किया गया। प्रभाकर कट्टर वस्तुवादी हैं , क्योंकि इनके अनुसार भ्रम असत् है। इसके मूल में इनकी यह मान्यता है कि इन्द्रियानुभव के पश्चात् प्राप्त होने वाले समस्त ज्ञान प्रमारूप हैं। प्रभाकर की मान्यता है कि भ्रम के समय मन में दो आंशिक तथा अपूर्ण वृत्तियाँ होती हैं , एक वस्तु का प्रत्यक्ष तथा दूसरी अवस्तु का स्मरण। मन इन दोनों वृत्तियों को आपस में जोड़ देता है। परिणामस्वरूप भ्रम की अवगति होती है। अत : प्रभाकर का मत है कि जब ज्ञान ही नहीं होता तो भ्रम को मिथ्या ज्ञान कह ही नहीं सकते। विपरीतख्यातिवाद     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कुमारिल भट्ट द्वारा किया गया। इनके अनुसार , भ्रम इसलिए पैदा होता है , क्योंकि हमारा मन दो आंशिक , अपूर्ण तथा विपरीत वृत्तियों

भ्रम के घटक

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer भ्रम के घटक भ्रम के घटक शंकराचार्य भ्रम के तीन घटक बताते हैं - अधिष्ठान , अध्यस्त और अध्यास रज्जु - सर्प में इनकी स्थिति इस प्रकार है • अधिष्ठान अर्थात् रस्सी , जो सत् है। • अध्यस्त अर्थात् साँप , जो असत् है। • अध्यास अर्थात् रस्सी पर साँप का मिथ्यारोप यह न सत् है और न असत् यह अनिर्वचनीय है यहाँ उल्लेखनीय है कि शंकर भ्रम को सद्सत् अर्थात् सत् और असत् दोनों एकसाथ नहीं कहते हैं , क्योंकि ये दोनों प्रकाश और अन्धकार के समान एकसाथ नहीं रह सकते। इसे केवल अनिर्वचनीय ही कहा जा सकता है। ----------