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आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )

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आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul ) आत्मा की चार अवस्था ( Four States of the Soul )  आत्मा   “अतति सततं गच्छति , व्याप्नोति वा आत्मा”। अर्थात् व्यापकता आत्मा का स्वरूपगत धर्म है। आशय यह कि जो व्याप्त हो वह आत्मा है। बृहदारण्यक उपनिषद् ( 2 . 56 ) में कहा गया है – “ अयमात्मा सर्वानुभ: ” अर्थात् सर्वज्ञता आत्मा का गुण है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा को अंतर्यामी कहा गया है – एकोदेवः सर्वभूतेषु गूढ़ः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा । कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्वा ॥ (श्वेता० उप० , 6 . 11 ) तात्पर्य यह कि एक देव सब भूतों में अन्तनिहित है , वह सब में व्याप्त है , सब भूतों का अंतः स्थित आत्मा वह सभी के कर्मों का प्रत्यक्ष कर्ता है ; सभी भूतों में रहता है , वह साक्षात् दृष्टा , चेता , केवल एवं निर्गुण है। श्रीमद्भगवत् गीता में आत्मा को अलिप्त एवं सर्व प्रकाशक कहा गया है , जैसे आकाश चारो ओर भरा हुआ है परन्तु सूक्ष्म होने के कारण उसे किसी का लेप नहीं लगता , वैसे ही देह में सर्वत्र रहने पर भी आत्मा को किसी का लेप नहीं लगता। जैसे एक सूर्य सारे जगत को