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जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy

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  जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy जैन दर्शन में गुण और पर्याय / Virtues and Paryaay in Jain Philosophy     जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त है। गुण और पर्याय को द्रव्य के क्रमशः नित्य और अनित्य धर्म कहते है। नित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत हो अर्थात जिनके बिना द्रव्य विशेष पदार्थ नहीं रह जाता। वह अपनी पहचान खो देता है। इसलिए इन गुणों को स्वरूपधर्म भी कहते है। अनित्य धर्म उनको कहते है जो शाश्वत नहीं है अर्थात इनमें परिवर्तन होता रहता है। अनित्य धर्म द्रव्य में आगंतुक होने के कारण पर्याय है। उदाहरण के लिए आत्मा एक द्रव्य है। चैतन्य आत्मा का नित्य धर्म अर्थात गुण है और इच्छा, संकल्प, सुख-दुःख आदि अनित्य अर्थात पर्याय है। इस प्रकार द्रव्यों में पाए जाने वाले नित्य और अनित्य धर्मों को जैन दर्शन में गुण और पर्याय कहा गया है। इन्ही के आधार पर जैन दर्शन में द्रव्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” अर्थात द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय हो। इस प्रकार द्रव्य ही गुण और पर्याय का आश्रय है। ----------------