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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन् कुतः॥” अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो ऋण लेकर भी घी पियो। एक बार शरीर भस्म हो जाए तो फिर कौन लौटकर आता है। आज प्रत्येक युवा पीढ़ी इसी दर्शन को फॉलो कर रही है। उन्हें सुखवाद को लेकर एक अजीब सा जनून पैदा हो गया है। हर कोई यह चाहता है कि मुझे बस सुख मिल जाए चाहे उसके लिए वह कितना भी आध्यात्मिक पतन क्यों न कर ले। वह अपने सुख की कामना केवल आर्थिक संसासधनों में खोजने लगा है और अपनी आर्थिक उन्नति के लिए समाज के नैतिक मूल्यों को बेशर्मी के साथ सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर परोस रहा है। नित रोज नैतिक मूल्यों का जो अवमूल्यन इन सोशल प्लेटफॉर्म्स पर हो रहा है उसके पीछे केवल और केवल सुख की चाहा है। इस सुख की चाहा चार्वाक दर्शन भी करता है इसलिए तो चार्वाक दर्शन को सुखवादी दर्शन कहते है। परन्तु नैतिक अवमूल्यन की जो पराकाष्ठा आज देखने को मिल रही है इतनी तो शायद चार्वाक सम्प्रदायों में भी नहीं थी। वे भी अपना एक प्रकार का दर्शन रख

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

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  चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप     चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार – जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते । ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥     अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के स

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

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  चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा     चार्वाक दर्शन में अनुमान और शब्द प्रमाण की आलोचना की गई है। इसका कारण व्याप्ति के आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना है। जब हम धुआँ देखकर आग का अनुमान करते है तो धुएं के साथ आग का ज्ञान हो जाना व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है। चार्वाकों के अनुसार यह व्याप्ति सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान कभी भी सन्देह से परे नहीं होता। चार्वाक दर्शन में इसी व्याप्ति सम्बन्ध को आलोचना निम्नलिखित तर्कों से की गई है- चार्वाक कहते है कि हम कभी भी व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। धुएं और आग में सर्वत्र ही व्याप्ति सम्बन्ध है यह हम सर्वत्र बिना देखे नहीं कह सकते। इसके साथ-साथ व्याप्ति सम्बन्ध सर्वकाल में भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। भूत और भविष्य के धुएं और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध को हम वर्तमान काल में सिद्ध नहीं कर सकते। अनुमान प्रमाण की सिद्धि के दो मुख्य आधार है – पहला वस्तुओं का स्वभाव समान होता है और दूसरा जगत में कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। चार्वाक इन दोनों आधा

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

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  चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण     चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को हि ज्ञान का साधन माना गया है। चार्वाक केवल उसको प्रत्यक्ष समझते है जिनको आँखों के द्वारा देखा जा सके या जिसको इंद्रियों के द्वारा अनुभूत किया जा सके। इस कारण चार्वाक उसी को ज्ञान अर्थात सत्य मानता है जो इंद्रियाँ देती है। चार्वाक पाँच इंद्रियों के साथ-साथ मन को भी प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाला बताते है, क्योंकि सुख-दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति होती है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में दो प्रकार के प्रत्यक्ष स्वीकार्य है – बाह्य प्रत्यक्ष और मनस प्रत्यक्ष। -----------

चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) एवं इसका साहित्य

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चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)  चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) चार्वाक दर्शन यावजीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?     बृहस्पति के मत को मानने वाले , नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान) चार्वाक के मत का खण्डन करना कठिन है , क्योंकि   प्रायः संसार में सभी प्राणी इसी लोकोक्ति पर चलते हैं - ' जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए , ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके , जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है ? सभी लोग नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ (धन-संग्रह) और काम (भोग-विलास) को ही पुरुषार्थ समझते हैं , परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं। इस तरह मालूम होता है [बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः सर्वदर्शनसंग्रहे चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं] इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अर्थ के अनुकूल ही है-लोकायत (लोक = संसार में , आयत = व्याप्त , फैला हुआ)। विशेष - शङ्कर , भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं। लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चारु (सुन्दर) , वा

चार्वाक दर्शन का महत्त्व

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाक दर्शन का महत्त्व चार्वाक दर्शन का महत्त्व चार्वाक ने समाज को रूढ़िवादिता और अन्धविश्वासी होने से बचाया , भौतिकवाद की नींव रखी तथा भारतीय दर्शन को बहु - आयामी स्वरूप प्रदान किया , इसलिए चार्वाक दर्शन का अत्यधिक महत्त्व है। ---------------

चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति       कार्य - कारण नियम को चार्वाक अस्वीकार करता है। चार्वाक कहता है कि धुएँ एवं अग्नि की व्याप्ति कारण - कार्य सम्बन्धानुसार स्थिर नहीं की जा सकती , क्योंकि कारण - कार्य भी एक प्रकार की व्याप्ति है। चार्वाक कहता है कि दो  वस्तुओं में हम कई बार साथ - साथ साहचर्य सम्बन्ध देखकर कार्य - कारण सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं , परन्तु यह अनिवार्य सत्य नहीं है , क्योंकि भविष्य में भी ऐसा हो जरूरी नहीं है। कई बार साथ - साथ देखकर हम सम्बन्ध का अनुमान कर लेते हैं। इस प्रकार दोष की सम्भावना रह जाती है। चार्वाकों को कारण - कार्य नियम स्वीकार नहीं है। चार्वाकों का मानना है कि कारण - कार्य आकस्मिक घटना है। उनकी मान्यता है कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति के सभी समय सभी उपाधियों का प्रत्यक्ष दर्शन असम्भव है , इसलिए उसके बगैर कार्य - कारण नहीं हो सकता। औषधि सेवन से कोई बीमारी सही ह

चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण चार्वाक के द्वारा धर्म तथा मोक्ष का निराकरण     चार्वाक मोक्ष को स्वीकार नहीं करता। मोक्ष का अर्थ दुःख विनाश है। आत्मा ही मोक्ष को अपनाती है। चूंकि चार्वाक आत्मा जैसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता , अत : चार्वाक मोक्ष को भी स्वीकार नहीं करता। कुछ दार्शनिकों  की मान्यता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीवनकाल में ही सम्भव है। चार्वाक कहता है कि दु : ख विनाश इस जीवन में असम्भव है। उसके अनुसार दुःखों को कम तो किया जा सकता है , परन्तु पूर्णत : समाप्त नहीं किया जा सकता।  दु : खों की आत्यान्तिक निवृत्ति मृत्यु से ही हो सकती है। अत : मृत्यु ही मोक्ष है।     चार्वाक धर्म व मोक्ष का खण्डन करते हुए धन व काम को जीवन का लक्ष्य मानता है। धन की उपयोगिता इसलिए है , क्योंकि यह सुख अथवा काम की प्राप्ति में सहायक है। इस प्रकार चार्वाक काम को ही चरम पुरुषार्थ मानता है। इच्छाओं की पूर्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। अत

चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा  चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा   वेदों , उपनिषदों , गीता तथा अन्य धर्मग्रन्थों में लिखा है कि कर्म के अनुसार जीव फल पाता है। प्रत्येक प्राणी को शुभ - अशुभ का फल उसके किए कर्मानुसार मिलता है। गीता में तीन प्रकार के कर्म की बात की गई है - ●     संचित कर्मों का फल संचित होता है , जो कालान्तर में मिलता है। ●     प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्म में किए वे कर्म होते हैं , जिनका फल इस वर्तमान जीवन में मिलता है। ●     संचीयमान कर्म वे कर्म हैं , जो हम कर रहे हैं। परन्तु चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। वह ईश्वर , कर्म , परलोक आदि को नहीं मानता। अत : वह कर्म नियम को भी नहीं मानता। चार्वाक का मानना है कि इस जन्म में जीवित रहते ही सुख - दुःख प्राप्त किया जा सकता है , मृत्यु के पश्चात् नहीं। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है। स्वर्ग मीमांसक स्वर्ग को मानव जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। स्वर्ग पूर्ण आनन्द की अवस्

चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप  चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरू प  चार्वाक ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता , क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं होता। चार्वाक निमित्त कारण के रूप में भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता , क्योंकि इनकी मान्यता है कि जड़ तत्त्वों में निहित स्वभाव से जगत की स्वत : उत्पत्ति हो जाती है। अतः ईश्वर को इस जगत का निमित्त कारण मानने का कोई औचित्य नहीं। चार्वाक एक प्रयोजनकर्ता के रूप में भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक के मतानुसार , इस जगत का कोई प्रयोजन नहीं है , क्योंकि यह जगत जड़ तत्त्वों के आकस्मिक संयोग का परिणाम मात्र है।  चार्वाक के उपरोक्त मत के विरुद्ध आलोचकों ने माना है कि जड़ तत्त्वों से स्वत : इस जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती , इसलिए निमित्त कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है। जगत में विद्यमान व्यवस्था को देखकर एक व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर की सत्ता को अन

चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप      चार्वाक शरीर से पृथक् भिन्न , नित्य , स्वतन्त्र अमर आत्मा के अस्तित्व का खण्डन करते हैं , क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में आत्मा का निषेध नहीं हुआ है , बल्कि आत्मा के अभौतिक स्वरूप एवं उसके दिव्य गुणों का ही निषेध किया गया है। चार्वाक एवं बौद्ध दर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में चेतना को नित्य आत्मा का स्वरूप धर्म या आगन्तुक धर्म माना गया है , परन्तु चार्वाक के अनुसार प्रत्यक्ष से आत्मा नामक किसी अभौतिक तत्त्व का ज्ञान नहीं होता , जिसका स्वरूप चेतन हो।     चार्वाक दर्शन के अनुसार , चेतना शरीर का गुण है। चार्वाक चेतना को शरीर के आगन्तुक गुण के रूप में स्वीकार करते हैं , क्योंकि इनकी मान्यता है कि जब चार प्रकार के जड़ तत्त्व - पृथ्वी , अग्नि , जल , वायु एक निश्चित मात्रा में तथा  निश्चित अनुपात में परस्पर संयुक्त हो जाते हैं , त