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Sunday, November 19, 2023

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन् कुतः॥” अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो ऋण लेकर भी घी पियो। एक बार शरीर भस्म हो जाए तो फिर कौन लौटकर आता है।

आज प्रत्येक युवा पीढ़ी इसी दर्शन को फॉलो कर रही है। उन्हें सुखवाद को लेकर एक अजीब सा जनून पैदा हो गया है। हर कोई यह चाहता है कि मुझे बस सुख मिल जाए चाहे उसके लिए वह कितना भी आध्यात्मिक पतन क्यों न कर ले। वह अपने सुख की कामना केवल आर्थिक संसासधनों में खोजने लगा है और अपनी आर्थिक उन्नति के लिए समाज के नैतिक मूल्यों को बेशर्मी के साथ सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर परोस रहा है। नित रोज नैतिक मूल्यों का जो अवमूल्यन इन सोशल प्लेटफॉर्म्स पर हो रहा है उसके पीछे केवल और केवल सुख की चाहा है। इस सुख की चाहा चार्वाक दर्शन भी करता है इसलिए तो चार्वाक दर्शन को सुखवादी दर्शन कहते है। परन्तु नैतिक अवमूल्यन की जो पराकाष्ठा आज देखने को मिल रही है इतनी तो शायद चार्वाक सम्प्रदायों में भी नहीं थी। वे भी अपना एक प्रकार का दर्शन रखते थे। उनकी भी कुछ परम्पराएं-मान्यतायें थी। जिनको आज विश्व के प्रत्येक व्यक्ति जो जानना चाहिए।

चार्वाक दर्शन की प्रमुख मान्यताएं

1-    जड़वादी परम्परा का अनुसरण – भारतीय जड़वाद के लिए प्रायः चार्वाक शब्द का प्रयोग किया जाता है। चार्वाक शब्द के मूल अर्थ के विषय में विद्वानों में प्रायः मतभेद देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों चार्वाक को इस सम्प्रदाय का संस्थापक मानते है जिसके कारण ही यह सम्प्रदाय चार्वाक कहलाया। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चार्वाक शब्द ‘चर्व’ धातु से बना है जो कि चबाना या भोजन के अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस मत का मानना था कि ‘पिव, खाद च वर लोचने’ अर्थात खाने-पीने पर अधिक ध्यान दो। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चारु+वाक् अर्थात् मीठी-वाणी बोलने के करण इस सम्प्रदाय को चार्वाक कहा गया। अन्य कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि गुरु बृहस्पति ने इस निराभौतिकवादी दर्शन का प्रचार दैत्यों के विनाश के लिए किया था। इस दर्शन को लोकायत भी कहा जाता है क्योंकि इस मत का प्रचार संसार के अधिकांश लोग स्वतः ही करते हैं और मानते भी हैं।  

2-    केवल प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकार्यता – लोगों को अक्सर एक कहावत सुनते देखा होगा “प्रत्यक्षमेकं प्रमाणम्” अर्थात् प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। यह उक्ति चार्वाक दर्शन सम्प्रदाय में बृहस्पति-सूत्र से ली गई है। इस प्रकार इस दर्शन सम्प्रदाय के लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण में इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही ज्ञान अर्थात् प्रमा मानता है।

3-    अनुमान प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय के लोग अनुमान ज्ञान को निश्चयात्मक नहीं मानते हैं, क्योंकि अनुमान व्याप्ति पर निर्भर है और व्याप्ति प्रत्यक्ष ज्ञान से सम्भव नहीं है। व्याप्ति क्यों सम्भव नहीं ? इसका उत्तर चार्वाक सम्प्रदाय में इस प्रकार दिया गया है – चार्वाकों का मानना है कि अनुमान तभी युक्तिपूर्ण तथा निश्चयात्मक हो सकता है जब व्याप्ति सर्वथा निःसंदेह हो, क्योंकि व्याप्ति उसे कहते है जिसमें लिंग (साधन) और लिंगी (साध्य) का अनिवार्य सम्बन्ध सथापित हो। हम ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ को निश्चयात्मक मानते हैं परन्तु हमने सभी मनुष्यों को मरते हुए तो नहीं देखा और न ही सभी मनुष्यों के मारने का प्रत्यक्ष सम्भव है, तो हम कैसे इस वाक्य को निश्चयात्मक मान सकते हैं। अतः प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति सम्भव नहीं है।

4-    शब्द प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय शब्द प्रमाण का भी खण्डन करता है और कहता है कि अप्रत्यक्ष वस्तुओं के सम्बन्ध में शब्द विश्वसनीय नहीं है। शब्द प्रमाण में जो आप्त व्यक्ति है उसकी भावना संदिग्ध हो सकती है क्या पता वह अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए आप्त वाक्यों की रचना कर रहा हो। इसलिए चार्वाक सम्प्रदाय के लोगों ने वैदिक वाक्यों को धूर्त पुरोहितों की रचना माना है और कहा है कि इन्होंने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए यह मायाजाल फैलाया है।

5-    चार महाभूतों को मान्यता – चार्वाक पंचभूतों में से केवल चार भूत – पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को ही सत्ता रूप में स्वीकार किया है। आकाश को चार्वाकों ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं, यह केवल अनुमानगम्य है। चार्वाक इन्हीं चार भूतों से सृष्टि की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप में मानते है।

6-    चेतना विशिष्ट शरीर के रूप में आत्मा की मान्यता – चार्वाक दर्शन में कहा गया है – ‘चैतन्य विशिष्ट देह एवं आत्मा’ अर्थात् चेतन से युक्त यह विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। यह चेतन शरीर चार जड़ भूतों से ही उत्पन्न होता है। इसके लिए चार्वाक उदाहरण देता है कि ‘किण्वन प्रक्रिया से अन्न आदि पदार्थों में मादकता का गुण आ जाता है ठीक उसी प्रकार जड़ तत्त्वों के विशेष प्रकार के मिश्रण से उनमें चेतनत्व आ जाता है।

7-    चरम पुरुषार्थ में काम की स्वीकार्यता – चार्वाक भारतीय दर्शनों में वर्णित चार पुरुषार्थों – धर्म अर्थ, काम और मोक्ष में से अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करता है। चार्वाक दर्शन में कहा गया है – “मरणं एव अपवर्गः” अर्थात् मृत्यु ही मोक्ष है। अतः जीवन में सुख प्राप्त करना ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। स्त्री सुख को चार्वाक काम के रूप में मनुष्य का चरम पुरुषार्थ स्वीकार करता है।

8-    ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन – चार्वाक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और ईश्वर का तीन प्रकार से खण्डन करता है –

·        ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं।  
·        ईश्वर न्यायाधीश भी नहीं। 
·        ईश्वर के लिए भी सृष्टि नहीं।

             उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि चार्वाक दर्शन एक नास्तिक, जड़वादी और सुखवादी दर्शन है। इस दर्शन में मनुष्यों का चरम लक्ष्य केवल भौतिक सुख को प्राप्त करना है। इस दर्शन में मनुष्यों के लिए उपदेश है कि “भविष्य के सुख के लिए वर्तमान का सुख त्यागना मूर्खता है साथ ही ईश्वर आदि देवों के भय से भी भौतिक सुख का त्याग करना मूर्खता है।”

आज वर्तमान में भी आपको ये वाक्य अक्सर लोगों से सुनने को मिलते होंगे परन्तु जो लोग इन वाक्यों को कहते है अपने देखा होगा वे सभी स्वार्थी, कपटी व लालची किस्म के लोग है। सोचो अगर इस तरह के लोगों की संख्या समाज में अधिक हो जाए तो क्या होगा ? इसलिए आज के इस दौर में भी चार्वाकी लोग बहुत है जिनको एक आदर्श समाज का अग्रणी दूत नहीं माना जा सकता। यह चार्वाकी समाज स्वतः एक किसान के खेत में उगने वाला वह खतपतवार है जिसकी किसान समय-समय पर निराई-गुड़ाई करता रहता है। अतः सभ्य लोगों का दायित्व है कि इन लोगों के दर्शन को समझे और समाज को उन्नति और शान्ति की और अग्रसर करने के लिए चार्वाकी को भारतीय दर्शन परम्परा में पूर्व पक्ष मानकर उनका ज्ञान के द्वारा शुद्धिकरण करें।


Saturday, June 11, 2022

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

 

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

    चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार –

जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।

ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥

    अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है। इस प्रकार चार्वाक शरीर को ही चेतन अर्थात आत्मा कहते है और उसको स्वरूप को वह नश्वर मानते है। चार्वाक कहते है ‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनः कुतः’ अर्थात देह की भस्म हो जाने के बाद उसका पुनरागमन कैसे सम्भव है? इस प्रकार देह को ही आत्मा मानने के करना चार्वाक पुनर्जन्म का विरोध करते है। इस प्रकार चार्वाक देह को ही चेतन मानकर केवल देह सुख की कामना करते है और अर्थ एवं काम (स्त्री, पुत्र आदि का सुख)को पुरुषार्थ स्वीकार करते है। चार्वाक कहते है – “यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” अर्थात जब तक जियो सुख से जियो । इसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए। यही सिद्धान्त चार्वाक का सुखवाद है।  

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चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

 

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

चार्वाक द्वारा अनुमान एवं शब्द की समीक्षा

    चार्वाक दर्शन में अनुमान और शब्द प्रमाण की आलोचना की गई है। इसका कारण व्याप्ति के आधार पर यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति नहीं होना है। जब हम धुआँ देखकर आग का अनुमान करते है तो धुएं के साथ आग का ज्ञान हो जाना व्याप्ति सम्बन्ध कहलाता है। चार्वाकों के अनुसार यह व्याप्ति सम्बन्ध से प्राप्त ज्ञान कभी भी सन्देह से परे नहीं होता। चार्वाक दर्शन में इसी व्याप्ति सम्बन्ध को आलोचना निम्नलिखित तर्कों से की गई है-

  • चार्वाक कहते है कि हम कभी भी व्याप्ति सम्बन्ध का प्रत्यक्ष नहीं कर सकते। धुएं और आग में सर्वत्र ही व्याप्ति सम्बन्ध है यह हम सर्वत्र बिना देखे नहीं कह सकते। इसके साथ-साथ व्याप्ति सम्बन्ध सर्वकाल में भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। भूत और भविष्य के धुएं और आग के मध्य व्याप्ति सम्बन्ध को हम वर्तमान काल में सिद्ध नहीं कर सकते।
  • अनुमान प्रमाण की सिद्धि के दो मुख्य आधार है – पहला वस्तुओं का स्वभाव समान होता है और दूसरा जगत में कार्य-कारण सम्बन्ध होता है। चार्वाक इन दोनों आधारों पर तर्क देते है कि वस्तुओं का स्वभाव और कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित सभी सामान्य वाक्य अनुमान के आधार पर ही स्थापित किए जाते है। इस प्रकार एक सामान्य वाक्य को दूसरे सामान्य वाक्य से सथापित करना दोषयुक्त होता है जिसे तर्कशास्त्र में चक्रक दोष या पुनरावृत्ति दोष कहते है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन स्वभाववाद और कार्य-कारण पर आधारित सामान्य का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता।

    अनुमान के साथ-साथ चार्वाक दर्शन में शब्द प्रमाण की भी आलोचना की गई है। चार्वाक कहते है कि शब्द प्रमाण आप्त वचनों या आप्त पुरुष के वाक्यों पर आधारित होता है। आप्त वचनों में आर्ष ग्रंथों और वेदों को रखा जाता है जिसकी आलोचना चार्वाक यह कहकर कर देते है कि वेदों और अन्य ग्रंथों की रचना पण्डितों ने धन अर्जन के लिए और स्वयं को लाभ पहुँचने के लिए की है। दूसरी और आप्त पुरुष के द्वारा कहे गए कथन भी अनुमान की श्रेणी में नहीं आते क्योंकि आप्त पुरुष अर्थात विश्वशनीय व्यक्ति अगर किसी बात को कहता है तो वह उसका प्रत्यक्ष कर ही कहता है। अतः यह अपरोक्ष रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान ही हुआ।

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चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

 

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

चार्वाक का प्रत्यक्ष प्रमाण

    चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को हि ज्ञान का साधन माना गया है। चार्वाक केवल उसको प्रत्यक्ष समझते है जिनको आँखों के द्वारा देखा जा सके या जिसको इंद्रियों के द्वारा अनुभूत किया जा सके। इस कारण चार्वाक उसी को ज्ञान अर्थात सत्य मानता है जो इंद्रियाँ देती है। चार्वाक पाँच इंद्रियों के साथ-साथ मन को भी प्रत्यक्ष ज्ञान देने वाला बताते है, क्योंकि सुख-दुःख आदि की स्पष्ट अनुभूति होती है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में दो प्रकार के प्रत्यक्ष स्वीकार्य है – बाह्य प्रत्यक्ष और मनस प्रत्यक्ष।

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चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy) एवं इसका साहित्य

चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

 चार्वाक दर्शन (Charvaka Philosophy)

चार्वाक दर्शन

यावजीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः ।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ?

    बृहस्पति के मत को मानने वाले, नास्तिकों के शिरोमणि (प्रधान) चार्वाक के मत का खण्डन करना कठिन है, क्योंकि  प्रायः संसार में सभी प्राणी इसी लोकोक्ति पर चलते हैं - 'जबतक जीवन रहे सुख से जीना चाहिए, ऐसा कोई नहीं जिसके पास मृत्यु न जा सके, जब शरीर एक बार जल जाता है तब इसका पुनः आगमन कैसे हो सकता है? सभी लोग नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ (धन-संग्रह) और काम (भोग-विलास) को ही पुरुषार्थ समझते हैं, परलोक की बात को स्वीकार नहीं करते हैं तथा चार्वाक-मत का अनुसरण करते हैं। इस तरह मालूम होता है [बिना उपदेश के ही लोग स्वभावतः सर्वदर्शनसंग्रहे चार्वाक की ओर चल पड़ते हैं] इसलिए चार्वाक-मत का दूसरा नाम अर्थ के अनुकूल ही है-लोकायत (लोक = संसार में, आयत = व्याप्त, फैला हुआ)।

विशेष - शङ्कर, भास्कर तथा अन्य टीकाकार लोकायतिक नाम देते हैं। लोकायतिक-मत चार्वाकों का कोई सम्प्रदाय है। चार्वाक = चारु (सुन्दर), वाक (वचन)। मनुष्यों को स्वाभाविक-प्रवृत्ति चार्वाक-मत की ओर ही है। बाद में उपदेशादि द्वारा वे दूसरे दर्शनों को मान्यता प्रदान करते हैं। दूसरे जीव भी (पशु-पक्षी आदि) चार्वाक (= स्वाभाविक-धर्म एवं दर्शन) के पृष्ठपोषक हैं। ग्रीक-दर्शन के एरिस्टिपस एवं एपिक्युरस इसी सम्प्रदाय के समान अपने दर्शनों की अभिव्यक्ति करते हैं।

   'लोकायत' शब्द पाणिनि के उक्थगण में मिलता है जिसमें 'लोकायतिक' शब्द बनाने का विधान है। षड्दर्शन-समुच्चय के टीकाकार गुणरत्न का कहना है कि जो पुण्य-पापादि परोक्ष वस्तुओं का चर्वण (नाश) कर दे वही चार्वाक है। काशिका-वृत्ति में चार्वी नामक लोकायतिक-आचार्य का भी उल्लेख है।

   इस मत के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति को माना जाता है। जयराशि भट्ट का तत्वोंपप्लवसिंह नामक ग्रन्थ को छोड़कर इस मत को कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ नहीं है।

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Tuesday, September 28, 2021

चार्वाक दर्शन का महत्त्व

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चार्वाक दर्शन का महत्त्व

चार्वाक दर्शन का महत्त्व

चार्वाक ने समाज को रूढ़िवादिता और अन्धविश्वासी होने से बचाया, भौतिकवाद की नींव रखी तथा भारतीय दर्शन को बहु-आयामी स्वरूप प्रदान किया, इसलिए चार्वाक दर्शन का अत्यधिक महत्त्व है।

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चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

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चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

चार्वाकों द्वारा कार्य-कारण नियम की अस्वीकृति

      कार्य-कारण नियम को चार्वाक अस्वीकार करता है। चार्वाक कहता है कि धुएँ एवं अग्नि की व्याप्ति कारण-कार्य सम्बन्धानुसार स्थिर नहीं की जा सकती, क्योंकि कारण-कार्य भी एक प्रकार की व्याप्ति है। चार्वाक कहता है कि दो वस्तुओं में हम कई बार साथ-साथ साहचर्य सम्बन्ध देखकर कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, परन्तु यह अनिवार्य सत्य नहीं है, क्योंकि भविष्य में भी ऐसा हो जरूरी नहीं है। कई बार साथ-साथ देखकर हम सम्बन्ध का अनुमान कर लेते हैं। इस प्रकार दोष की सम्भावना रह जाती है। चार्वाकों को कारण-कार्य नियम स्वीकार नहीं है। चार्वाकों का मानना है कि कारण-कार्य आकस्मिक घटना है। उनकी मान्यता है कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति के सभी समय सभी उपाधियों का प्रत्यक्ष दर्शन असम्भव है, इसलिए उसके बगैर कार्य-कारण नहीं हो सकता। औषधि सेवन से कोई बीमारी सही हो ही जाए, यह आवश्यक नहीं, यहाँ केवल सम्भावना है। इस प्रकार चार्वाक कारण-कार्य के नियम को स्वीकार नहीं करता है। कोरा भौतिकवादी होने के कारण इस दर्शन की अत्यन्त आलोचना हुई।

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चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण

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चार्वाकों के द्वारा धर्म तथा मोक्ष के स्वरूप का निराकरण

चार्वाक के द्वारा धर्म तथा मोक्ष का निराकरण

    चार्वाक मोक्ष को स्वीकार नहीं करता। मोक्ष का अर्थ दुःख विनाश है। आत्मा ही मोक्ष को अपनाती है। चूंकि चार्वाक आत्मा जैसी किसी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, अत: चार्वाक मोक्ष को भी स्वीकार नहीं करता। कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि मोक्ष की प्राप्ति जीवनकाल में ही सम्भव है। चार्वाक कहता है कि दु:ख विनाश इस जीवन में असम्भव है। उसके अनुसार दुःखों को कम तो किया जा सकता है, परन्तु पूर्णत: समाप्त नहीं किया जा सकता। दु:खों की आत्यान्तिक निवृत्ति मृत्यु से ही हो सकती है। अत: मृत्यु ही मोक्ष है।

    चार्वाक धर्म व मोक्ष का खण्डन करते हुए धन व काम को जीवन का लक्ष्य मानता है। धन की उपयोगिता इसलिए है, क्योंकि यह सुख अथवा काम की प्राप्ति में सहायक है। इस प्रकार चार्वाक काम को ही चरम पुरुषार्थ मानता है। इच्छाओं की पूर्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है। अत: इस जीवन में जितना सुख मिले प्राप्त कर लो। स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, ईश्वर आदि से भयभीत होने की जरूरत नहीं, क्योंकि इनका कोई अस्तित्व नहीं है।

    चार्वाक की उक्ति है'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत। ऋणं कृत्वा घृतम पीबेत्' अर्थात् जब तक जियो, सुख से जियो, ऋण लेकर घी पियो। सुख के लिए चाहे ऋण लेना पड़े। किसी भी प्रकार से इन्द्रिय सुखों को प्राप्त करें। अपनी वासनाओं को दबाना अप्राकृतिक है। कामिनी से प्राप्त सुख ही चरम लक्ष्य है। चार्वाक के अनुसार, सुख जीवन में दुःख से मिश्रित है। इस कारण से हमें सुख प्राप्त करने के लिए त्याग नहीं करना चाहिए। यह नहीं सोचना चाहिए कि अब दुःख मिला है, तो बाद में सुख मिल जाएगा। सुख व दु:ख अभिन्न हैं। गुलाब में काँटे होने पर भी माली फूल तोड़ना नहीं छोड़ता। मछली में कॉटा होने पर भी लोग मछली खाना नहीं छोड़ते। अत: दुःख से सुख का त्याग करना महान् मूर्खता है।

     चार्वाक कहता है कि मानव को वर्तमान सुख को प्राप्त करने के लिए हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए। पारलौकिक सुख को प्राप्त करने के लिए इस लोक के सुखों का त्याग नहीं करना चाहिए, वर्तमान सुख पर चार्वाक अत्यधिक बल देते हैं। भूत बीत चुका है और भविष्य के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता, इसलिए वर्तमान ही निश्चित है। मानव का अधिकार वर्तमान तक ही है, वर्तमान सुख ही वांछनीय है।

     अत: उपरोक्त से स्पष्ट है कि चार्वाक निकृष्ट सुखवादी है। चार्वाक द्वारा तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में स्थापित भौतिकवाद ने जीवन में सुख व भोगवाद को बढ़ावा दिया, जिससे समाज में बौद्धिक व नैतिक अराजकता का जन्म हुआ, परन्तु इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि इसने समाज को रूढ़िवादी व अन्धविश्वासी होने से बचाया तथा भारतीय समाज को बहु-आयामी स्वरूप प्रदान किया।

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चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा

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चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

वेदों, उपनिषदों, गीता तथा अन्य धर्मग्रन्थों में लिखा है कि कर्म के अनुसार जीव फल पाता है। प्रत्येक प्राणी को शुभ-अशुभ का फल उसके किए कर्मानुसार मिलता है। गीता में तीन प्रकार के कर्म की बात की गई है-

    संचित कर्मों का फल संचित होता है, जो कालान्तर में मिलता है।

    प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्म में किए वे कर्म होते हैं, जिनका फल इस वर्तमान जीवन में मिलता है।

    संचीयमान कर्म वे कर्म हैं, जो हम कर रहे हैं।

परन्तु चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। वह ईश्वर, कर्म, परलोक आदि को नहीं मानता। अत: वह कर्म नियम को भी नहीं मानता। चार्वाक का मानना है कि इस जन्म में जीवित रहते ही सुख-दुःख प्राप्त किया जा सकता है, मृत्यु के पश्चात् नहीं। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है।

स्वर्ग

मीमांसक स्वर्ग को मानव जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। स्वर्ग पूर्ण आनन्द की अवस्था को कहते हैं। इस लोक में वैदिक आचारों के अनुसार चलने पर परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। चार्वाक इस मत का खण्डन करते हैं, क्योंकि यह परलोक में विश्वास पर अविलम्बित है। इसके अनुसार तो परलोक का कहीं प्रत्यक्ष नहीं होता। स्वर्ग-नरक पुरोहितों की मिथ्या कल्पनाएँ हैं। पुरोहित वर्ग अपने व्यावसायिक लाभ के लिए इस प्रकार के भय गढ़ते हैं। चार्वाक स्वर्ग-नरक आदि का खण्डन करता है।

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चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप

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चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप 

चार्वाक दर्शन में ईश्वर का स्वरूप 

चार्वाक ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं होता। चार्वाक निमित्त कारण के रूप में भी ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, क्योंकि इनकी मान्यता है कि जड़ तत्त्वों में निहित स्वभाव से जगत की स्वत: उत्पत्ति हो जाती है। अतः ईश्वर को इस जगत का निमित्त कारण मानने का कोई औचित्य नहीं।

चार्वाक एक प्रयोजनकर्ता के रूप में भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक के मतानुसार, इस जगत का कोई प्रयोजन नहीं है, क्योंकि यह जगत जड़ तत्त्वों के आकस्मिक संयोग का परिणाम मात्र है। चार्वाक के उपरोक्त मत के विरुद्ध आलोचकों ने माना है कि जड़ तत्त्वों से स्वत: इस जगत की उत्पत्ति नहीं हो सकती, इसलिए निमित्त कारण के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है।

जगत में विद्यमान व्यवस्था को देखकर एक व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर की सत्ता को अनुमानित करना आवश्यक है। चार्वाक अपने ईश्वर विचार में प्रत्यक्ष की सीमा का अतिक्रमण करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण वे अनुमान कर लेते हैं, जो ज्ञानमीमांसा के विरुद्ध है।

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चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

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चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में आत्मा का स्वरूप

     चार्वाक शरीर से पृथक् भिन्न, नित्य, स्वतन्त्र अमर आत्मा के अस्तित्व का खण्डन करते हैं, क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है। उल्लेखनीय है कि चार्वाक दर्शन में आत्मा का निषेध नहीं हुआ है, बल्कि आत्मा के अभौतिक स्वरूप एवं उसके दिव्य गुणों का ही निषेध किया गया है। चार्वाक एवं बौद्ध दर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में चेतना को नित्य आत्मा का स्वरूप धर्म या आगन्तुक धर्म माना गया है, परन्तु चार्वाक के अनुसार प्रत्यक्ष से आत्मा नामक किसी अभौतिक तत्त्व का ज्ञान नहीं होता, जिसका स्वरूप चेतन हो।

    चार्वाक दर्शन के अनुसार, चेतना शरीर का गुण है। चार्वाक चेतना को शरीर के आगन्तुक गुण के रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि इनकी मान्यता है कि जब चार प्रकार के जड़ तत्त्व-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु एक निश्चित मात्रा में तथा निश्चित अनुपात में परस्पर संयुक्त हो जाते हैं, तो चेतना उत्पन्न हो जाती है। अपनी इस बात को समझाने के लिए चार्वाक ने एक दृष्टान्त समझाया है। चार्वाक कहता है कि जिस प्रकार पान, सुपारी, चूना आदि को मिलाकर जब चबाया जाता है, तो लालिमा का गुण उत्पन्न हो जाता है, ठीक उसी प्रकार चार प्रकार के जड़ तत्त्वों के एक निश्चित मात्रा में संयुक्त होने से चेतना का गुण उत्पन्न हो जाता है।

     चार्वाक का विचार है कि जब तक शरीर में इन चार प्रकार के जड़ तत्त्वों की निश्चित मात्रा तथा निश्चित अनुपात बना रहता है, तब तक शरीर में चेतना का गुण रहता है अर्थात् जीवन बना रहता है, परन्तु जैसे ही यह निश्चित मात्रा तथा अनुपात नहीं रहता, तो शरीर अचेतन हो जाता है अर्थात् शरीर की मृत्यु हो जाती है। इसलिए चार्वाक कहता है कि इस चेतन शरीर के अतिरिक्त नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। चैतन्य विशिष्ट देहः इव आत्माः अर्थात् चेतना से युक्त शरीर ही आत्मा है, इसलिए चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत को देहात्मवाद भी कहते हैं।

     चार्वाक का मत है कि जब तक यह शरीर रहता है, तब तक तथाकथित आत्मा रहती है, जब यह चेतन शरीर नष्ट हो जाता है, तो आत्मा भी नष्ट हो जाती है, क्योंकि यह चेतन शरीर ही तो आत्मा है। चूंकि शरीर के विनाश के साथ ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है, इसलिए पुनर्जन्म, कर्म, नियम इत्यादि की अवधारणाएँ निराधार हो जाती हैं। 

चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत की आलोचना

    चार्वाक के आत्मा सम्बन्धी मत के विरुद्ध आलोचक कहते हैं कि चेतना शरीर का आगन्तुक लक्षण नहीं है, बल्कि यह स्वतन्त्र एवं नित्य है। जड़ तत्त्वों से चेतना की उत्पत्ति को स्वीकार करना अभाव से भाव की उत्पत्ति को मानना है। तात्पर्य यह है कि जड़ तत्त्व से चेतना की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों में गुणात्मक भेद हैं।

     यदि चेतना जीवित शरीर का गुण है, तो उसे हमेशा शरीर के साथ ही रहना चाहिए, परन्तु हमें ज्ञात है कि मूर्छा, बेहोशी आदि की स्थिति में शरीर अचेतन हो जाता है, इसी प्रकार स्वप्नावस्था में चेतना तो होती है, परन्तु शरीर का भान नहीं रहता। इससे सिद्ध होता है कि चेतना व शरीर दो भिन्न-भिन्न चीजें हैं।

     जड़ तत्त्वों से इस जड़ जगत की उत्पत्ति निमित्त कारण के बिना सम्भव नहीं है। अतः हम स्वभाववाद को स्वीकार नहीं करते। चार्वाक अपने आत्म-विचार में प्रत्यक्ष की सीमा का अतिक्रमण करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष नहीं होने के कारण वह नित्य आत्मा के नहीं होने का अनुमान कर लेते हैं, यह चार्वाक की ज्ञानमीमांसा के विपरीत है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...