चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

 

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

चार्वाक दर्शन में चेतना का स्वरूप

    चार्वाक जगत के मूल में चार द्रव्य – पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु को स्थित मानता है। आकाश को वह शून्य मात्र समझत है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। जगत के ये चार द्रव्य की संयुक्त होकर जगत की रचना करते है। चरों द्रव्य के संयुक्त होने के पीछे चार्वाक किसी ईश्वर की कल्पना नहीं करता बल्कि वह कहता है कि संयुक्त होना इन चार द्रव्यों का स्वभाव है। इसी को चार्वाक का स्वभाववाद कहते है। क्योंकि जगत निर्माण में चार जड़ पदार्थ उपस्थित होते है इसलिए इस सिद्धान्त को जड़वाद भी कहा जाता है। चार्वाक इन्ही जड़ से चेतन की उत्पत्ति समझते है। उनके अनुसार –

जड़भूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते ।

ताम्बूलपुंग चूर्णानां योगात्राग इवोत्थितम् ॥

    अर्थात जड़-भूतों से चैतन्य उसी प्रकार उत्पन्न होता है जिस प्रकार पान-पत्र, सुपारी, चुने और कत्थे के संयोग से लाल रंग उत्पन्न होता है। एक और उद्धरण प्रस्तुत करते हुए चार्वाक कहते है कि “किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् चैतन्यमुपजायते” अर्थात जस प्रकार चावल आदि अन्न के संगठन से मादक द्रव्य उत्पन्न होता है, वैसे ही जड़ से चेतन उत्पन्न होता है। इस प्रकार चार्वाक शरीर को ही चेतन अर्थात आत्मा कहते है और उसको स्वरूप को वह नश्वर मानते है। चार्वाक कहते है ‘भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरागमनः कुतः’ अर्थात देह की भस्म हो जाने के बाद उसका पुनरागमन कैसे सम्भव है? इस प्रकार देह को ही आत्मा मानने के करना चार्वाक पुनर्जन्म का विरोध करते है। इस प्रकार चार्वाक देह को ही चेतन मानकर केवल देह सुख की कामना करते है और अर्थ एवं काम (स्त्री, पुत्र आदि का सुख)को पुरुषार्थ स्वीकार करते है। चार्वाक कहते है – “यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्” अर्थात जब तक जियो सुख से जियो । इसके लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए। यही सिद्धान्त चार्वाक का सुखवाद है।  

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