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Tuesday, May 31, 2022

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति 

कौटिल्य ( Chanakya ) की कल्याण एवं विदेश नीति  

    कौटिल्य की विदेशनीति को ‘मण्डल सिद्धान्त’ के नाम से जाना जाता है। यह सिद्धान्त राम-राज्य के समय प्रचलित दिग्विजय सिद्धान्त का ही परिवर्तित रूप है। मण्डल का तात्पर्य राज्यों का वृत्त (Circle of Kingdom) से है। इस सिद्धान्त की रचना आर्यवर्त के अनेक राज्यों को ध्यान में रखकर की गई थी। इस मण्डल सिद्धान्त का सार है –‘दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है’। कौटिल्य के मण्डल में कुल 12 राज्य थे। इन 12 राज्यों की अपनी अलग अलग स्थिति और पहचान तथा वैदेशिक नीति है। इस नीति का वर्णन अर्थशास्त्र के सप्तम अधिकरण में मिलता है जिसके छः भाग है। इन भागों को कौटिल्य की षड्गुण्य नीति के नाम से जाना जाता है। ये छः अंग है – संधि, विग्रह, आसन, यान, संश्रय और दैधीभाव।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा

कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा 

कौटिल्य ( Chanakya ) की आन्तरिक सुरक्षा 

    कौटिल्य राज्य की आन्तरिक सुरक्षा के लिए गुप्तचर व्यवस्था को लागू करता है। कौटिल्य ने गुप्तचारों को अनेक श्रेणियों में बांटा है – कापटिक, उदास्थित, गृहपाताक, तापज, वैदेहक, मंत्री, रसद, तीक्ष्ण, भिक्षिकी आदि प्रमुख गुप्तचर विभाग थे।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था

कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था 

कौटिल्य ( Chanakya ) की विधि और न्याय व्यवस्था 

     कौटिल्य कानून को बहुत ही आवश्यक एवं महत्वपूर्ण मान्यता है जो न्यायिक व्यवस्था को दिशा निर्देशित करती है। सबसे पहले कौटिल्य कानून के चार श्रोतों की चर्चा करता है जो है- धर्म, व्यवहार, प्रजा और न्याय। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र के तीसरे अधिकरण में सत्रह प्रकार के कानूनों का उल्लेख किया है।

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Monday, May 30, 2022

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था 

कौटिल्य ( Chanakya ) की राज्य की अर्थव्यवस्था 

    कौटिल्य ने अर्थव्यवस्था और राजनीति व्यवस्था को एक ही सिक्के के दो पहलू माना है। राजव्यवस्था का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य अर्थव्यवस्था को सुव्यवस्थित व गतिशील बनाए रखना है। राजा को कर संग्रह पर ध्यान देना चाहिए लेकिन कर का संग्रह मनमाने एवं अन्यायपूर्ण ढंग से नहीं करना चाहिए। कौटिल्य ने अर्थव्यवस्था में कृषि को प्रमुख रूप में रखा है साथ ही उद्योग-धंधों का भी वर्णन किया है। कौटिल्य कर संग्रह में भी वर्णव्यवस्था को ध्यान में रखता है और ब्रह्मण वर्ण को नौका शुल्क से मुक्त रखता है। साथ ही सार्वजनिक कार्यों में भी ब्रह्मण से चन्दा नहीं लेने की बात की है। कौटिल्य राजा को सुझाव देता है कि वह विशेष अवसरों पर मेलों का आयोजन कराएं जिससे सामाजिक समरसता के साथ-साथ राज्य की आय में भी वृद्धि होगी। कौटिल्य का मत था कि ‘कोष-विहीन राजा का शीघ्र हि पतन होता है’। कौटिल्य ने छः प्रकार के ग्रामीण करो का वर्णन किया है-

  1. परिहारिक – ये ग्राम कर मुक्त होते थे।
  2. हिरण्य – ये ग्राम स्वर्ण मुद्रा में कर चुकाया करते थे।
  3. आयुधीप – ये ग्राम कर के रूप में सैनिक देते थे।
  4. कुप्य – ये ग्राम कच्चे माल के रूप में कर देते थे।
  5. विष्टि – ये ग्राम कार्य के रूप में कर देते थे।
  6. कर प्रतिकर – ये ग्राम घी, दूध, तेल, चमड़ा आदि कर के रूप में देते थे।

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कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन 

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य प्रशासन 

    कौटिल्य के अनुसार राज्य का लक्ष्य जनकल्याण तथा एक अच्छे प्रशासन की स्थापना करना है। जिससे धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जा सके। कौटिल्य का मानना है कि ‘प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है’। कौटिल्य ने अपनी प्रशासन व्यवस्था को 18 तीर्थों में विभक्त किया है जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. मंत्री – राजा को परामर्श देने वाला।
  2. पुरोहित – राजा को धर्म और नीति सम्बन्धी परामर्श देने वाला।
  3. सेनापति – सेनानायक
  4. युवराज – राजा का ज्येष्ट पुत्र जो की राज्य का उत्तराधिकारी है।
  5. दोवारिक – राजमहल का निरीक्षक
  6. सन्निधाता – राजकोष का अध्यक्ष
  7. दण्डपाल – सेना की व्यवस्था करने वाला
  8. अन्तरवेषिक – राजा का अंगरक्षक और सेना का प्रधान
  9. प्रशास्ता – शिल्पियों का प्रधान अधिकारी
  10. समाहर्ता – राज्य की आय का संग्रह करने वाला अधिकारी
  11. प्रदेष्टा – जिले का प्रमुख अधिकारी
  12. दुर्गपाल – राज्य के समस्त दुर्गों की देखभाल करने वाला अधिकारी
  13. पौर – राजधानी का प्रमुख प्रशासक अधिकारी
  14. अन्तपाल – सीमावर्ती प्रदेशों की रक्षा करने वाला अधिकारी
  15. नायक – सेना का संचालक
  16. व्यावहारिक – धर्मस्थ न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश
  17. कर्मान्तिक – खानों और उद्योगों का अध्यक्ष
  18. मंत्रिपरिषद अध्यक्ष – प्रधानमंत्री

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कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन

कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन 

कौटिल्य ( Chanakya ) का समाज और सामाजिक जीवन 

    कौटिल्य ने प्राचीन भारतीय राजनीतिक सामाजिक चिन्तन का अनुकरण किया तथा राजतन्त्र की संकल्पना को आधार बनाकर राज्य को अपने आप में साध्य मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया। कौटिल्य के अनुसार, राज्य का उद्देश्य केवल शांति व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना ही नहीं बल्कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति के सर्वोच्च विकास और कल्याण में भी योगदान देना है। इस प्रकार कौटिल्य ने भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक जीवन का आधार माना है।

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कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य (शिल्प के सात स्तम्भ)

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

कौटिल्य ( Chanakya ) का राज्य

शिल्प के सात स्तम्भ

    कौटिल्य राज्य को सावयव मानते हैं। राज्य के साथ अंगों को मानने के कारण कौटिल्य का राज्य की प्रकृति सम्बन्धी सिद्धान्त ‘सप्तांग सिद्धान्त’ कहलाता है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के सात अंग है – 

  1. स्वामी, 
  2. आमात्य, 
  3. जनपद, 
  4. दुर्ग, 
  5. कोष, 
  6. दंड तथा 
  7. मित्र।

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कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता

कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

 कौटिल्य ( Chanakya ) की संप्रभुता 

    चाणक्य अर्थात कौटिल्य को ‘भारत का मैकियावाली’ कहा जाता है। इन्हें अर्थशास्त्र का प्रणेता कहा जाता है। इनका यह ग्रन्थ अन्य पुरुष (Third Person) की शैली में लिखा गया है। इनका एक अन्य नाम विष्णुगुप्त भी है। कौटिल्य ने अपनी संप्रभुता सम्बन्धी विचार में राजा या राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या की है जो कि 17वीं शताब्दी के यूरोप में प्रचलित ‘सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धांत’ से मिलता-जुलता है। कौटिल्य ने संप्रभुता को राज्य की विशेषता कहा है। इसी के कारण राज्य सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ समुदाय है। अन्य सभी व्यक्ति व व्यक्तियों का प्रत्येक समुदाय इसके अधीन है। कौटिल्य ने राज्य और समाज को प्रायः समव्यापक माना है। उनके अनुसार राज्य की शक्ति सर्वोपरि है। व्यक्ति राज्य के लिए है, राज्य व्यक्ति के लिए नहीं है।

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