Showing posts with label अनुपलब्धि प्रमाण. Show all posts
Showing posts with label अनुपलब्धि प्रमाण. Show all posts

Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा 

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा 

अभाव और अनुपलब्धि

    अभाव और अनुपलब्धि दोनों की विवेचना मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत प्रमाण के सन्दर्भ में की जाती है। यद्यपि पूर्व-मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक जैमिनी ने यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द प्रमाणों का विवेचन किया था। जैमिनी के बाद बहुत से टीकाकार एवं स्वतन्त्र ग्रन्थकार हुए, जिनमें दो प्रमुख थे-कुमारिल भट्ट एवं प्रभाकर।

    प्रभाकर ने यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के पाँच प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द तथा अर्थापत्ति को स्वीकार किया था, जबकि कुमारिल भट्ट ने प्रभाकर के पाँच प्रमाणों के अतिरिक्त अनुपलब्धि को भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के प्रमाण (साधन) के रूप में स्वीकार किया। इसी अनुपलब्धि के सन्दर्भ में अभाव की भी चर्चा होती है अर्थात् अभाव एवं अनुपलब्धि को लेकर प्रभाकर एवं कुमारिल सम्प्रदाय में मतभेद भी देखने को मिलता है।

    प्रभाकर का मत है कि अभाव नामक कोई वस्तु होती ही नहीं, इसलिए अभाव को ग्रहण करने के लिए अनुपलब्धि को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है। कुमारिल का मत है किसी स्थान विशेष एवं काल में जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य है, उसका वहाँ न होना ही अनुपलब्धि है; जैसे-शाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, परन्तु उसका उपस्थित न होना ज्ञात कराना है कि मन्दिर में पूजारी का अभाव है। फिर अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं, परन्तु नैयायिक इसे स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। प्रभाकर न तो अभाव को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं और न ही अभाव को ज्ञान के लिए अनुपलब्धि को स्वीकार करते हैं। प्रभाकर के अनुसार, अभाव अधिकरण से भिन्न नहीं है। यदि मन्दिर में पुजारी नहीं है, तो यह पुजारी के अभाव का ज्ञान नहीं केवल मन्दिर का ज्ञान है।

----------


मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा 

मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा 

अनुपलब्धि (कुमारिल भट्ट)

    कुमारिल भट्ट का मत है किकिसी स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, वहाँ उस वस्तु का उपस्थित न होना ही उसके अभाव का सूचक है, इस अभाव का ज्ञान जिस प्रमाण की सहायता से होता है, उसे ही अनुपलब्धि कहते हैं। "

    प्रभाकर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते, जबकि कुमारिल भट्ट तथा अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। उदाहरणार्थशाम को छ: बजे मन्दिर में पुजारी उपस्थित होने योग्य है, वह प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होना चाहिए, किन्तु यदि उसकी प्राप्ति नहीं होती तो हमें यह ज्ञात हो जाता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है। ''

    नैयायिक अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते तथा कहते हैं कि प्राप्त होने योग्य से क्या आशय है? मन्दिर में अभाव तो अनेक वस्तुओं का है, क्या अभाव के आधार पर उन समस्त का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत मीमांसकों का प्रत्युत्तर है किएक निश्चित स्थान एवं निश्चित समय पर जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, उसके उपस्थित नहीं होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

    नैयायिकों के अनुसार, अभाव का ज्ञान तो प्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है, तो फिर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता क्या है? इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि जो वस्तु नहीं है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है? अत: अनुपलब्धि एक स्वतन्त्र प्रमाण है।

------------


विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...