मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा
भारतीय दर्शन |
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मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा |
मीमांसा दर्शन में अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा
अनुपलब्धि (कुमारिल भट्ट)
कुमारिल भट्ट का मत है कि “किसी
स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, वहाँ
उस वस्तु का उपस्थित न होना ही उसके अभाव का सूचक है, इस अभाव
का ज्ञान जिस प्रमाण की सहायता से होता है, उसे ही अनुपलब्धि
कहते हैं। "
प्रभाकर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं
करते,
जबकि
कुमारिल भट्ट तथा अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार
करते हैं। उदाहरणार्थ “शाम को छ: बजे मन्दिर में
पुजारी उपस्थित होने योग्य है, वह प्रत्यक्ष
द्वारा प्राप्त होना चाहिए, किन्तु यदि उसकी
प्राप्ति नहीं होती तो हमें यह ज्ञात हो जाता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है। ''
नैयायिक अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं
करते तथा कहते हैं कि प्राप्त होने योग्य से क्या आशय है? मन्दिर
में अभाव तो अनेक वस्तुओं का है, क्या अभाव के
आधार पर उन समस्त का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत मीमांसकों का प्रत्युत्तर
है कि “एक निश्चित स्थान एवं निश्चित समय पर जो वस्तु उपस्थित होने योग्य
है,
उसके
उपस्थित नहीं होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ”
नैयायिकों के अनुसार, अभाव का ज्ञान तो प्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है, तो फिर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता क्या है? इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि जो वस्तु नहीं है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है? अत: अनुपलब्धि एक स्वतन्त्र प्रमाण है।
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