प्रामाण्यवाद - स्वतः प्रामाण्यवाद तथा परतः प्रामाण्यवाद
भारतीय दर्शन |
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प्रामाण्यवाद - स्वतः प्रामाण्यवाद तथा परतः प्रामाण्यवाद |
प्रामाण्यवाद : स्वतःप्रामाण्यवाद तथा परतःप्रामाण्यवाद
ज्ञान प्रमा व अप्रमा दो प्रकार का होता है। प्रामाण्यवाद के अन्तर्गत
यह बताने का प्रयास किया गया है कि ज्ञान में प्रामाण्य कैसे उत्पन्न होता है? ज्ञान
में प्रामाण्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मुख्यत: दो सिद्धान्त
हैं जो एक-दूसरे से विपरीत हैं तथा जिनका प्रतिपादन नैयायिकों तथा मीमांसकों
द्वारा किया गया है। इस सम्बन्ध में नैयायिकों द्वारा परत:प्रामाण्यवाद
तथा मीमांसकों द्वारा स्वत: प्रामाण्यवाद
का प्रतिपादन किया गया है।
स्वतः प्रामाण्यवाद
प्रामाण्य के विषय में जो दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि (जैसे-मीमांसा
तथा सांख्य) ज्ञान का प्रामाण्य उस ज्ञान से बाहर किसी अन्य ज्ञान से नहीं हो
सकता अर्थात् ज्ञान को प्रमाणित करने के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती।
क्योंकि जो ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह ज्ञान अपनी
उत्पत्ति के साथ ही स्वत:प्रामाणिक भी
है। इसे ही 'स्वतःप्रामाण्यवाद' कहते हैं; जैसे—'आसमान
में काले बादल हैं यह ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा उत्पन्न हुआ है। मीमांसकों की
मान्यता है कि प्रमाण के आधार पर जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, उस ज्ञान
का प्रामाण्य उसी ज्ञान में स्वत: निहित होता है।
अत:
आसमान
में काले बादल हैं, यह ज्ञान स्वत: प्रमाणित है।
परतः प्रामाण्यवाद
ज्ञान के प्रामाण्य के सन्दर्भ में न्याय दार्शनिक, मीमांसकों
के विपरीत परत:प्रामाण्यवाद को स्वीकार करते हैं। नैयायिकों के साथ-साथ बौद्ध
दार्शनिक भी परतःप्रामाण्यवादी हैं। परतःप्रामाण्यवाद के सन्दर्भ में नैयायिकों का
मत है कि ज्ञान की उत्पत्ति के साथ ही ज्ञान का प्रामाण्य उत्पन्न नहीं होता। क्रिया
प्रवृत्ति करने के पश्चात् उस वस्तु से सम्बन्धित जो अन्य ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके
आधार पर पूर्व ज्ञान की प्रामाणिकता को सिद्ध किया जाता है। उदाहरणार्थ प्रत्यक्ष प्रमाण
के द्वारा हमने यह ज्ञान प्राप्त किया कि वहाँ दूर रेगिस्तान में पानी है। प्रत्यक्ष
के द्वारा ज्ञान तो उत्पन्न हो गया, किन्तु यह ज्ञान
प्रमाणित (सत्) है, अभी यह निश्चित नहीं हुआ। ऐसा नैयायिकों का मत है। नैयायिकों के
अनुसार, जब ज्ञान उत्पन्न होता है तो साथ ही क्रिया करने की प्रवृत्ति भी
उत्पन्न होती है; जैसे-रेगिस्तान में पानी है तो इस ज्ञान के साथ ही यह क्रिया प्रवृत्ति
उत्पन्न हुई कि चलो चलकर हाथ-मुँह धो लें।
स्थान पर पहुँचें, यदि पानी मिल गया और हमने हाथ-मुँह
धो लिया तो हमारे ज्ञान में प्रामाण्य भी उत्पन्न हो गया और यदि पानी नहीं मिला तो
ज्ञान अप्रमाणित हो गया। अत: स्पष्ट है कि
नैयायिकों के अनुसार कोई भी ज्ञान क्रिया प्रवृत्ति के सफल होने के पश्चात् ही प्रामाणिकता
की कोटि में सम्मिलित होता है।
नैयायिकों के विपरीत मीमांसक कहते हैं कि यदि प्रामाण्य ज्ञान के
साथ उत्पन्न नहीं होता, तो वह कभी-भी उत्पन्न हो
ही नहीं सकता। इसे सिद्ध करने के लिए मीमांसक नैयायिकों से कहते हैं कि अपने इस ज्ञान
को सिद्ध करो कि वहाँ रेगिस्तान में पानी है। नैयायिक कहते हैं कि देखो! हमने
हाथ-मुँह
धोया है, इससे सिद्ध होता है कि पानी है। मीमांसक पुन: कहते
हैं कि सिद्ध करो कि तुमने हाथ-मुँह धोया है।
नैयायिक कहते हैं कि कपड़े से हमने अपना मुँह-हाथ पोछा
है देखो यह गीला है, अत: पानी है।
इसी प्रकार निरन्तर मीमांसकों व नैयायिकों के बीच तर्क-वितर्क
की श्रृंखला चलती रहती है और नैयायिक क्रिया प्रवृत्ति करते रहते हैं तथा प्रत्येक
बार क्रिया प्रवृत्ति से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को सत् सिद्ध करने के लिए एक और सफल
क्रिया प्रवृत्ति नैयायिकों द्वारा की जाती रहती है। यदि इस बीच नैयायिक रुक जाते हैं
तो क्रिया प्रवृत्ति से जो अन्तिम ज्ञान उत्पन्न होता है, मीमांसक
नैयायिकों से कहते हैं कि यह अन्तिम ज्ञान स्वत: प्रमाणित
है,
क्योंकि
इसे प्रमाणित करने के लिए किसी क्रिया की आवश्यकता नहीं पड़ी। इसके विपरीत यदि नैयायिकों
द्वारा क्रिया की श्रृंखला चलती रहती है, तो ज्ञान की प्रामाणिकता
को कभी भी सिद्ध ही नहीं किया जा सकता ऐसा मीमांसकों का मत है।
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