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Thursday, May 12, 2022

धर्म ( Religion ) का स्वरूप

धर्म ( Religion ) का स्वरूप 

धर्म ( Religion ) का स्वरूप 

धर्म 

   धर्म शब्द 'धृ' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है - धारण करना। वैशेषिक दर्शन के अनुसार- यतोभ्युदयनिःश्रेयस-सिद्धि स धर्मः (वै० सू० 1.1.2)। आशय यह है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। महर्षि जैमिनि के अनुसार— 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः (मी० सू० 1.1.2)। अर्थात् जिन कर्मों का वेद में विधान है वे ही करणीय हैं यही इसका धर्म है। इससे ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। गीता में भी मीमांसा के इस कथन के अनुकूल बात कही गई हैयत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः । अर्थात् जिससे सब प्रजा का धारण यानि कि कल्याण होता है वही धर्म है। न्याय दशन के अनुसार- धर्म किसी पदार्थ में विद्यमान वह तत्त्व है जिसके कारण उसे किसी दूसरे पदार्थ के सदृश अथवा उससे भिन्न कहा जाता है। यथापृथिवीत्वं धर्मः । इस दर्शन में धर्म को गुण के रूप में माना गया है। यहाँ 24 गुणों की चर्चा की गई है जिसमें धर्म भी एक गुण है। जैन दर्शन में विचार भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों से अलग है। जैन दर्शन के अनुसार - धर्म वह तत्त्व है जो न तो स्वतः क्रियाशील होता है और न अन्य को क्रियाशील होने में प्रेरक है किन्तु वह क्रियात्मक तत्वों की क्रिया में सहायक अवश्य होता है। जिस प्रकार मछली को चलने में जल सहायक होता है उसी प्रकार जीव की क्रिया में धर्म सहायक होता है।

साधारण धर्म

    साधारण धर्म वे धर्म है जो सभी मनुष्यों के लिए जाति, वर्ग एवं अवस्था के भेद से परे किए जाने वाले आवश्यक कर्तव्य है। महर्षि मनु ने साधारण धर्म के दस लक्षण कहे है-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति 6.92)

अर्थ धृति (धैर्य), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना, दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्यम (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना)। यही धर्म के दस लक्षण है।

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Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप

भारतीय दर्शन

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मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप 

मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप 

धर्म

     मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय धर्म है। धर्म की व्याख्या करना ही दर्शन का प्रयोजन बताया गया है। जैमिनी के मीमांसा सूत्र का प्रथम सूत्र अथातो धर्म जिज्ञासा' से स्पष्ट है कि यह दर्शन धर्म का निर्णय करने जा रहा है। मीमांसा के अनुसार क्रिया के प्रवर्तक वचन अर्थात् वेद के विधि वाक्य धर्म हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की सत्यता के निर्धारण के लिए एकमात्र शब्द को ही प्रमाण मानती है। यद्यपि मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान को भी सत्य की प्राप्ति में प्रमाण माना गया है, परन्तु ये प्रमाण धर्म हेतु उपयोगी नहीं हैं, क्योंकि ये अनित्य ज्ञान प्रदान करते हैं और भ्रम की सम्भावना बनी रहती है। धर्म नीति का विषय है, जिसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, न ही अनुभव किया जा सकता है। अतः इस विषय में एकमात्र शब्द प्रमाण ही वास्तविक है। शब्द प्रमाण में भी मीमांसक अपौरुषेय वेद वाक्यों को ही धर्म के प्रमाण मानते हैं, आप्त पुरुषों के वाक्यों को नहीं।

    प्रारम्भ में मीमांसा के अनुसार धर्म का लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति था। जैमिनी एवं शबर का मत सही था, परन्तु बाद में प्रभाकर और कुमारिल तथा अन्य मीमांसकों ने अन्य दर्शनों को मोक्ष चिन्तन करते देख स्वयं भी ऐसा किया तथा इसी को जीवन का पुरुषार्थ माना गया।

    मीमांसा में धर्म की प्राप्ति का प्रमुख साधन कर्म माना गया है। यहाँ कर्म आशय वैदिक कर्म से है। इस प्रकार वेदविहित कर्म ही मीमांसा के अनुसार धर्म हैं, करणीय तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इस प्रकार वेद हमें कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य दोनों का ज्ञान देते हैं। मीमांसा दर्शन धर्म के लिए वेदों के ब्राह्मण ग्रन्थों को आधार बनाता है, जहाँ कर्मकाण्ड का विधान है। वैदिक कर्मकाण्ड में यज्ञ मुख्य है। वैदिक धर्म में यज्ञ का महत्त्व शरीर में प्राण की भाँति है। वेदों में यज्ञ को ही धर्म कहा गया है। यज्ञ में देवताओं के लिए हवन एवं बलि दी जाती है, जिससे देवता प्रसन्न होकर भक्त को इष्टफल देते हैं। मीमांसा कर्म का उद्देश्य आत्म शुद्धि भी मानते हैं।

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