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धर्म ( Religion ) का स्वरूप

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धर्म ( Religion ) का स्वरूप  धर्म ( Religion ) का स्वरूप  धर्म     धर्म शब्द ' धृ ' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है - धारण करना। वैशेषिक दर्शन के अनुसार- यतोभ्युदयनिःश्रेयस-सिद्धि स धर्मः (वै० सू० 1.1.2)। आशय यह है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। महर्षि जैमिनि के अनुसार — ' चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः (मी० सू० 1.1.2)। अर्थात् जिन कर्मों का वेद में विधान है वे ही करणीय हैं यही इसका धर्म है। इससे ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। गीता में भी मीमांसा के इस कथन के अनुकूल बात कही गई है – यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः । अर्थात् जिससे सब प्रजा का धारण यानि कि कल्याण होता है वही धर्म है। न्याय दशन के अनुसार- धर्म किसी पदार्थ में विद्यमान वह तत्त्व है जिसके कारण उसे किसी दूसरे पदार्थ के सदृश अथवा उससे भिन्न कहा जाता है। यथा — पृथिवीत्वं धर्मः । इस दर्शन में धर्म को गुण के रूप में माना गया है। यहाँ 24 गुणों की चर्चा की गई है जिसमें धर्म भी एक गुण है। जैन दर्शन में विचार भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों से अलग है।

मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप  मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप  धर्म      मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय धर्म है। धर्म की व्याख्या करना ही दर्शन का प्रयोजन बताया गया है। जैमिनी के मीमांसा सूत्र का प्रथम सूत्र ‘ अथातो धर्म जिज्ञासा ' से स्पष्ट है कि यह दर्शन धर्म का निर्णय करने जा रहा है। मीमांसा  के अनुसार क्रिया के प्रवर्तक वचन अर्थात् वेद के विधि वाक्य धर्म हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की सत्यता के निर्धारण के लिए एकमात्र शब्द को ही प्रमाण मानती है। यद्यपि मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान को भी सत्य की प्राप्ति में प्रमाण माना गया है , परन्तु ये प्रमाण धर्म हेतु उपयोगी नहीं हैं , क्योंकि ये अनित्य ज्ञान प्रदान करते हैं और भ्रम की सम्भावना बनी रहती है। धर्म नीति का विषय है , जिसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता , न ही अनुभव किया जा सकता है। अतः इस विषय में एकमात्र शब्द प्रमाण ही वास्तविक है। शब्द प्रमाण में भी मीमांसक अपौरुषेय वेद वाक्यों को