मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप

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मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप 

मीमांसा दर्शन में धर्म का स्वरूप 

धर्म

     मीमांसा दर्शन का प्रधान विषय धर्म है। धर्म की व्याख्या करना ही दर्शन का प्रयोजन बताया गया है। जैमिनी के मीमांसा सूत्र का प्रथम सूत्र अथातो धर्म जिज्ञासा' से स्पष्ट है कि यह दर्शन धर्म का निर्णय करने जा रहा है। मीमांसा के अनुसार क्रिया के प्रवर्तक वचन अर्थात् वेद के विधि वाक्य धर्म हैं। मीमांसा दर्शन में धर्म की सत्यता के निर्धारण के लिए एकमात्र शब्द को ही प्रमाण मानती है। यद्यपि मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान को भी सत्य की प्राप्ति में प्रमाण माना गया है, परन्तु ये प्रमाण धर्म हेतु उपयोगी नहीं हैं, क्योंकि ये अनित्य ज्ञान प्रदान करते हैं और भ्रम की सम्भावना बनी रहती है। धर्म नीति का विषय है, जिसका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, न ही अनुभव किया जा सकता है। अतः इस विषय में एकमात्र शब्द प्रमाण ही वास्तविक है। शब्द प्रमाण में भी मीमांसक अपौरुषेय वेद वाक्यों को ही धर्म के प्रमाण मानते हैं, आप्त पुरुषों के वाक्यों को नहीं।

    प्रारम्भ में मीमांसा के अनुसार धर्म का लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति था। जैमिनी एवं शबर का मत सही था, परन्तु बाद में प्रभाकर और कुमारिल तथा अन्य मीमांसकों ने अन्य दर्शनों को मोक्ष चिन्तन करते देख स्वयं भी ऐसा किया तथा इसी को जीवन का पुरुषार्थ माना गया।

    मीमांसा में धर्म की प्राप्ति का प्रमुख साधन कर्म माना गया है। यहाँ कर्म आशय वैदिक कर्म से है। इस प्रकार वेदविहित कर्म ही मीमांसा के अनुसार धर्म हैं, करणीय तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इस प्रकार वेद हमें कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य दोनों का ज्ञान देते हैं। मीमांसा दर्शन धर्म के लिए वेदों के ब्राह्मण ग्रन्थों को आधार बनाता है, जहाँ कर्मकाण्ड का विधान है। वैदिक कर्मकाण्ड में यज्ञ मुख्य है। वैदिक धर्म में यज्ञ का महत्त्व शरीर में प्राण की भाँति है। वेदों में यज्ञ को ही धर्म कहा गया है। यज्ञ में देवताओं के लिए हवन एवं बलि दी जाती है, जिससे देवता प्रसन्न होकर भक्त को इष्टफल देते हैं। मीमांसा कर्म का उद्देश्य आत्म शुद्धि भी मानते हैं।

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