श्रुतिवाक्य

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श्रुतिवाक्य

श्रुतिवाक्य

    जैमिनी के मीमांसासूत्र के तीसरे अध्याय में वेदों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए श्रुति आदि प्रमाणों की योजना बताई गई है। 'श्रुति' उस वाक्य को कहते हैं, जो किसी अन्य वाक्य की अपेक्षा नहीं रखता।

श्रुतिवाक्य अथवा वेदवाक्यों को दो भागों में बाँटा गया है

  1. सिद्धार्थ वाक्य
  2. विधायक वाक्य

सिद्धार्थ वाक्य

    सिद्धार्थ वाक्यों से किसी सिद्ध पुरुष के बारे में ज्ञात होता है। प्रभाकर एवं कुमारिल दोनों की मान्यता है कि कर्त्तव्य निर्देश ही वेद का अन्तिम अर्थ है तथा सिद्धार्थ वाक्यों का अर्थ भी क्रिया के सन्दर्भ में करना चाहिए, वेद में आत्मा तथा ब्रह्म के बारे में जितने भी सिद्धार्थ वाक्य हैं, उनका सम्बन्ध योगादि कर्मों के विधायक वाक्यों से ही है। वे परोक्षत: विहित कर्मों में प्रवृत्त होने तथा निषिद्ध कर्मों से रोकने में सहायक हैं। महर्षि जैमिनी के अनुसार, यदि सिद्धार्थ वाक्य विधिवाक्य का सहायक नहीं है, तो वह निरर्थक है।

विधायक वाक्य

    विधायक वाक्य किसी कार्य को करने का आदेश देता है। यज्ञ आदि करने के लिए कर्त्तव्य क्रिया के विधायक वेदवाक्य स्वयं प्रमाण हैं। विधायक वाक्य दो प्रकार के होते हैं-प्रथम उपदेशक वाक्य, जो बताते हैं कि ऐसा करना चाहिए। द्वितीय अतिदेश वाक्य, जो बताते हैं कि पूरे माह दान के द्वारा स्वर्ग का साधन करें। सिद्धार्थ वाक्य विधिवाक्यों के सहायक हैं। विधिवाक्यों से अलग सिद्धार्थ वाक्य व्यर्थ हैं।

वेद (श्रुति) की विषय-वस्तु का वर्गीकरण

वेद की विषय-वस्तु का वर्गीकरण निम्नलिखित है-

विधि

विधिपरक आदेश पुरुष को विशेष फलों की आशा से कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं; जैसे-स्वर्ग के इच्छुक व्यक्ति को यज्ञ करना चाहिए। इस प्रकार विधिवाक्य क्रियाप्रेरक वाक्य है। इसलिए मीमांसा दर्शन में विधिवाक्यों को ही धर्म का लक्षण स्वीकार किया गया है।

विधि के प्रकार

विधि के चार प्रकार हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  1. उत्पत्ति विधि यह विधि कर्म के स्वरूपमात्र को बताने वाली है।
  2. विनियोग विधि यह कर्म के अंग तथा प्रधान विषयों की सम्बोधक है।
  3. प्रयोग विधि यह कर्म से उत्पन्न फल के स्वामित्व की ओर संकेत करती है।
  4. अधिकार विधि यह प्रयोग की शीघ्रता की बोधक है।

निषेध

निषेध केवल प्रच्छन्न विधियाँ हैं। अनर्थ हेतु और अनर्थ क्रिया की निवृत्ति करता है। निषेध वाक्य क्या नहीं करना का संकेत देता है; जैसे-झूठ नहीं बोलना चाहिए। निषेध का शाब्दिक अर्थ अवज्ञा के समरूप होता है।

अर्थवाद

अर्थवाद वे वाक्य हैं, जो अदिष्ट कर्मों की प्रशंसा करते हैं और निषिद्ध कर्मों की निन्दा करते हैं। ये वाक्य वर्णात्मक हैं। प्रभाकर के अनुसार अर्थवाद भी कर्म का सहायक बनकर ही प्रामाणिक हो सकता है। अर्थवाद के तीन प्रकार हैं-

  1. अदिष्ट वस्तुओं की प्रशंसा करते हैं तथा निषिद्ध वस्तुओं की निन्दा करते हैं।
  2. दूसरे के कर्मों का विवरण देते हैं।
  3. इतिहास के दृष्टान्त हैं।
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