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मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  शब्द प्रमाण     नैयायिकों के अनुसार शब्द अनित्य हैं , क्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। इसके विपरीत मीमांसक शब्दों को नित्य मानते हैं। इनके अनुसार वेद के शब्द नित्य हैं। इस सन्दर्भ में मीमांसकों की मान्यता थी कि शब्द उत्पन्न एवं नष्ट नहीं होते , बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है ; जैसे - बोलने से ' ॐ ' शब्द उत्पन्न नहीं हुआ , ' ॐ ' शब्द तो नित्य है आवाज के द्वारा ' ॐ ' को व्यक्त किया गया है , अत : आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है शब्द नहीं , क्योंकि शब्द नित्य है।     नैयायिकों की मान्यता थी कि शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध नित्य है। शब्दों में अर्थ प्रदान करने की जो शक्ति है , नैयायिक उसे ' शब्द शक्ति ' कहते हैं तथा बताते हैं कि शब्द शक्ति अनित्य है , क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है। इस सन्दर्भ में नैयायिकों का मत था कि

योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  योग दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा  शब्द प्रमाण     पतंजलि ने शब्द को तीसरा प्रमाण माना है। किसी विश्वसनीय व्यक्ति से प्राप्त ज्ञान को शब्द कहा जाता है। विश्वास योग्य व्यक्ति के कथनों को ' आप्त वचन ' कहा जाता है। आप्त वचन ही शब्द है। शब्द दो प्रकार के होते हैं लौकिक शब्द वैदिक शब्द लौकिक शब्द     साधारण विश्वसनीय व्यक्तियों के आप्त वचन को लौकिक शब्द कहा जाता है। श्रुतियों वेद के वाक्य द्वारा प्राप्त ज्ञान को वैदिक शब्द कहा जाता है। लौकिक शब्दों को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना जाता , क्योंकि वे प्रत्यक्ष और अनुमान पर आश्रित हैं। इसके विपरीत वैदिक शब्द अत्यधिक प्रामाणिक हैं , क्योंकि वे शाश्वत सत्यों का प्रकाशन करते हैं। वैदिक वाक्य     वेद में जो कुछ भी कहा गया है , वह ऋषियों की अन्तर्दृष्टि पर आधारित है। वैदिक वाक्य स्वतः प्रमाणित है। वेद अपौरुषेय हैं। वे किसी व्यक्ति - विशेष की रचना नहीं ह

न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण      यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। न्याय दर्शन में शब्द को प्रत्यक्ष , अनुमान एवं उपमान के बाद चौथा प्रमाण स्वीकार किया गया है। नैयायिकों के अनुसार , पद और वाक्य का अर्थ जानने से जो ज्ञान प्राप्त होता है , ज्ञान के उस प्रमाण को ‘ शब्द प्रमाण ' कहते हैं।      न्याय दर्शन में पद को शक्त कहा गया है अर्थात् किसी विशेष पद से कोई विशेष अर्थ ही व्यक्त होता है। नैयायिकों की मान्यता है कि पदों में यह शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। नैयायिकों ने पदों के दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए। प्रथम वर्गीकरण ज्ञान के स्रोत के आधार पर प्रस्तुत किया गया , जिसके अन्तर्गत वैदिक पद तथा लौकिक पदों को सम्मिलित किया गया तथा द्वितीय वर्गीकरण में ज्ञान के विषय के आधार पर दो पदों दृष्टा तथा अदृष्टा पदों को प्रस्तुत किया गया। वैदिक पद      वेदों में उल्लिखित जो पद और वाक्य है