न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

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न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

न्याय दर्शन का शब्द प्रमाण

     यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। न्याय दर्शन में शब्द को प्रत्यक्ष, अनुमान एवं उपमान के बाद चौथा प्रमाण स्वीकार किया गया है। नैयायिकों के अनुसार, पद और वाक्य का अर्थ जानने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान के उस प्रमाण कोशब्द प्रमाण' कहते हैं।

     न्याय दर्शन में पद को शक्त कहा गया है अर्थात् किसी विशेष पद से कोई विशेष अर्थ ही व्यक्त होता है। नैयायिकों की मान्यता है कि पदों में यह शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। नैयायिकों ने पदों के दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए। प्रथम वर्गीकरण ज्ञान के स्रोत के आधार पर प्रस्तुत किया गया, जिसके अन्तर्गत वैदिक पद तथा लौकिक पदों को सम्मिलित किया गया तथा द्वितीय वर्गीकरण में ज्ञान के विषय के आधार पर दो पदों दृष्टा तथा अदृष्टा पदों को प्रस्तुत किया गया।

वैदिक पद

     वेदों में उल्लिखित जो पद और वाक्य हैं, नैयायिकों के अनुसार इनकी रचना वैदिक मानव/ अलौकिक मानव/ ईश्वर द्वारा की गई है, इसलिए वेदों में उल्लिखित जो भी ज्ञान है, उसकी प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। वेद ईश्वर के वचन हैं। अत: उनकी प्रामाणिकता पूर्ण, निश्चित एवं असंदिग्ध है।

लौकिक पद

      नैयायिकों के अनुसार जिन लौकिक वाक्यों की रचना उनके विशेषज्ञों ने की है, केवल उन वाक्यों को ही प्रामाणिक माना जा सकता है। इन विशेषज्ञों को नैयायिकों ने 'आप्त पुरुष' की संज्ञा दी है; जैसेरोग, रोगों के कारण तथा रोगों के उपचार के बारे में जो धन्वन्तरि ने कहा है वह सत्य माना जाएगा, क्योंकि धनवन्तरि विशेषज्ञ थे, आप्त पुरुष थे। इसी प्रकार ज्योतिष के बारे में जो भी पराशर तथा जैमिनी आदि ने कहा है वह सत्य है, क्योंकि वे भी ज्योतिष के विशेषज्ञ अर्थात् आप्त पुरुष थे। नैयायिकों के अनुसार ये आप्त पुरुष परमात्मा एवं जीवात्मा दोनों का संयुक्त रूप हैं।

दृष्टा पद

     यदि पदों या वाक्यों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष किया जा सकता है, तो ऐसे पदों को दृष्टा पद कहते हैं; जैसे-इलाहाबाद में संगम है।

अदृष्टा पद

      यदि शब्दों से (पदों से) प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता हो तो ऐसे पदों को अदृष्टा पद कहते हैं। इसके अन्तर्गत पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अधर्म आदि से सम्बन्धित पदों को सम्मिलित किया जाता है; जैसेईश्वर सर्वशक्तिमान है, गरीबों की सहायता करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है आदि।

     नैयायिकों के अनुसार, शब्द अनित्य हैं, क्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। शब्दों के अर्थ देने की जो योग्यता है उसे शब्द शक्ति कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार शब्द शक्ति ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है, क्योंकि शब्द शक्ति ईश्वर द्वारा निश्चित की गई है। अगली सृष्टि में (प्रलय के बाद) हो सकता है कि ईश्वर किसी शब्द का दूसरा अर्थ निश्चित कर दे, अत: शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।

शब्द प्रमाण की आलोचना

      अनीश्वरवादियों के अनुसार शब्द उत्पन्न व नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है। अत: शब्द नित्य हैं, साथ ही शब्दों के अर्थ भी नित्य हैं। क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज है और वह चाहे तो शब्दों के अर्थ में परिवर्तन कर सकता है। शब्दों के अर्थ एक लम्बे समय तक भाषीय व्यवहार के प्रचलन के कारण निश्चित हुए हैं। इसलिए शब्दों के अर्थ परिवर्तित नहीं होते अर्थात् नित्य हैं।

शब्द बोध के आवश्यक घटक

      न्याय दर्शन के अनुसार, शब्द अक्षरों से बनता है जिससे अभिधा या लक्षणा से किसी पदार्थ का संकेत मिलता है। प्रत्येक शब्द का कुछ अर्थ होता है। अर्थ ही शब्द तथा उस पदार्थ के मध्य, जिसे यह धोतित करता है, सम्बन्ध बताता है। सार्थक शब्द को अथवा जिस शब्द में किसी अर्थ को व्यक्त करने की शक्ति होती है, पद कहते हैं। हम जैसे ही पद के अन्तिम अक्षर को सुनते हैं, हमें उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। नैयायिकों के अनुसार पद से व्यक्ति, उसकी आकृति और उसकी जाति तीनों की अलग-अलग मात्रा में जानकारी मिलती है। प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य का अर्थ समझने के लिए निम्नलिखित चार शर्तों का पूरा होना जरूरी है

  1. आकांक्षा
  2. योग्यता
  3. सन्निधि
  4. तात्पर्य ज्ञान

आकांक्षा 

पदों की परस्पर अपेक्षा को 'आकांक्षा' कहते हैं। यदि दूसरे पद का उच्चारण किए बिना किसी पद का अर्थ ज्ञान न हो तो इन दोनों पदों क परस्पर सम्बन्ध को परस्पर अपेक्षा कहते हैं; जैसे-दरवाजा खुला है तात्पर्य है कि अन्दर आ जाओ से सार्थक बन जाता है एवं आकांक्षा पूरी हो जाती है।

योग्यता 

पदों के सामंजस्य को योग्यता कहते हैं अर्थात् वाक्य के पदों द्वारा जिन वस्तुओं का अर्थबोध होता है, उनके विरोध के अभाव को योग्यता कहते हैं; जैसे-'पानी से कपड़े सुखा लो', इन पदों में योग्यता का अभाव है, क्योंकि कपड़े धूप या हवा से सुखाते हैं, पानी से नहीं।

सन्निधि 

वाक्य का अर्थबोध कराने की तीसरी शर्त सन्निधि है, पदों का व्यवधान रहित पूर्वापद क्रम से उच्चारण सन्निधि है। यदि किसी वाक्य के विभिन्न पदों के उच्चारण में काफी समय का अन्तराल होगा या उन्हें पर्याप्त विलम्ब के साथ बोला जाएगा तो बुद्धि द्वारा इन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध को ग्रहण करना, परिणामस्वरूप उनका अर्थबोध असम्भव होगा; 'एक गाय लाओ' इन तीनों शब्दों को अलग-अलग लिखने से वाक्य अर्थपूर्ण नहीं होगा।

तात्पर्य ज्ञान 

नव्य न्याय दर्शन में शब्द बोध के लिए 'तात्पर्य ज्ञान' भी आवश्यक माना गया है। वक्ता के अभिप्राय को समझना तात्पर्य ज्ञान है। कुछ पद अनेकार्थक होते हैं। किसी पद का किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट है? यह केवल उस प्रसंग के ज्ञान से ज्ञात होता है जिसमें वह पद बोला जाता है। वाक्य के अर्थ निर्धारण में वक्ता के तात्पर्य को समझना आवश्यक है।

उपरोक्त शर्तों के पूरा न होने पर शब्दबोध सम्भव नहीं होगा।

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