Posts

Showing posts with the label स्वधर्म

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप

Image
स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप  स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप  स्वधर्म - वह व्यवसाय जो सब लोगों के कल्याण के लिए गुणधर्म के विभाग से किया जाता है स्वधर्म कहलाता है। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (गी० , 3.35)। अर्थात् स्वधर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु हो जाय , तो भी उसमें कल्याण है , क्योंकि परधर्म विनाशकारी होता है। इस सन्दर्भ में एक लोकोक्ति है कि ' तेली का काम तमोली करे , देव न मारे आप मरे। ' गीता के अनुसार - परधर्म का आचरण सहज हो तो भी उसकी अपेक्षा स्वधर्म अर्थात् चातुर्वर्ण्यविहित कर्म , सदोष होने पर भी अधिक कल्याणकारक होता है। जो कर्म सहज है , अर्थात् जन्म से ही गुणकर्मविभागानुसार नियत हो गया है , वह सदोष हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए। कारण यह कि सभी उद्योग किसी न किसी दोष से वैसे ही व्याप्त रहते हैं , जैसे धुएं से आग घिरी रहती है — श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥ सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृताः ।। (गी० , 18.47-48) ---------