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मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा  मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा  प्रत्यक्ष     प्रभाकर के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है , जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। ( साक्षात् - प्रतीतिः प्रत्यक्षम् ) । उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा , ज्ञान और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार  प्रभाकर त्रिपुटी प्रत्यक्ष ' का समर्थक है। प्रत्यक्ष ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्य इन्द्रियाँ तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते हैं। आँख , कान , नाक , जीभ व त्वचा बाह्य इन्द्रियाँ हैं , जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है।     मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्थाएँ मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व मात्र का आभास होता है। वह है - केवल

योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा  योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा  प्रत्यक्ष प्रमाण      वस्तु के साथ इन्द्रिय संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है , उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें , तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आग जल रही है। इस ज्ञान में पदार्थ और इन्द्रिय का प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना चाहिए। प्रत्यक्ष ज्ञान ( प्रमाण ) सन्देहरहित है। यह यथार्थ और निश्चित होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान को किसी अन्य ज्ञान के द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष स्वयं निर्विवाद है , इसलिए कहा गया है कि " प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्। " प्रत्यक्ष प्रमाण में विषयों का साक्षात्कार हो जाता है। प्रत्येक प्रत्यक्ष में बुद्धि की क्रिया समाविष्ट है। जब कोई वस्तु आँख से संयुक्त होती है , तब आँख पर विशेष प्रकार का प

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण      शाब्दिक दृष्टि से एवं संकीर्ण अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है - आँखों के सामने एवं व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है , ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। न्याय दर्शन के प्रतिपादक गौतम ने प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि - ' इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम् प्रत्यक्षम्। ’ अर्थात् इन्द्रिय , अर्थ , सन्निकर्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता है , वह प्रत्यक्ष है। भारतीय दर्शन में कुल छ : इन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से पाँच इन्द्रियाँ - आँख , नाक , कान , जिह्वा तथा त्वचा को बाह्य इन्द्रिय कहते हैं। इसके अतिरिक्त मन को आन्तरिक इन्द्रिय कहते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय मन के द्वारा हम अन्त : प्रत्यक्ष करते हैं तथा बाह्य इन्द्रियों के द्वारा हम बाह्य प्रत्यक्ष करते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण के चरण न्याय दार्शनिकों के अनुसार , बाह्य प्रत्यक्ष तीन चरणों मे