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Wednesday, October 6, 2021

मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा

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मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

प्रत्यक्ष

    प्रभाकर के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। (साक्षात्-प्रतीतिः प्रत्यक्षम्)। उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा, ज्ञान और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार प्रभाकर त्रिपुटी प्रत्यक्ष' का समर्थक है। प्रत्यक्ष ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्य इन्द्रियाँ तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ व त्वचा बाह्य इन्द्रियाँ हैं, जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है।

    मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्थाएँ मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व मात्र का आभास होता है। वह है -केवल इतना ही ज्ञान होता है उसके स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को 'निर्विकल्प प्रत्यक्ष' कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की दूसरी अवस्था वह है जिसमें हमें वस्तु का स्वरूप, उसके आकार-प्रकार का ज्ञान होता है। इस अवस्था में हम केवल इतना ही नहीं जानते कि वह वस्तु है, बल्कि यह भी जानते हैं कि वह किस प्रकार की वस्तु है। उदाहरणस्वरूप वह मनुष्य है, वह कुत्ता है, वह राम है इत्यादि। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं।

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Sunday, October 3, 2021

योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा

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योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

योग दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

प्रत्यक्ष प्रमाण

     वस्तु के साथ इन्द्रिय संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है, उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें, तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आग जल रही है। इस ज्ञान में पदार्थ और इन्द्रिय का प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना चाहिए। प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रमाण) सन्देहरहित है। यह यथार्थ और निश्चित होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान को किसी अन्य ज्ञान के द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष स्वयं निर्विवाद है, इसलिए कहा गया है कि "प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्। " प्रत्यक्ष प्रमाण में विषयों का साक्षात्कार हो जाता है। प्रत्येक प्रत्यक्ष में बुद्धि की क्रिया समाविष्ट है। जब कोई वस्तु आँख से संयुक्त होती है, तब आँख पर विशेष प्रकार का प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप मन विश्लेषण एवं संश्लेषण करता है। इन्द्रिय और मन का व्यापार बुद्धि को प्रभावित करता है। बुद्धि में सत्व गुण की अधिकता रहने का कारण वह दर्पण की तरह पुरुष के चैतन्य को प्रतिबिम्बित करती है, जिसके फलस्वरूप बुद्धि की अचेतन वृत्ति प्रकाशित होकर प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में परिणत हो जाती है।

पतंजलि के अनुसार, प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. निर्विकल्प प्रत्यक्ष और
  2. सविकल्प प्रत्यक्ष।

निर्विकल्प प्रत्यक्ष

    निर्विकल्प प्रत्यक्ष में केवल वस्तुओं की प्रतीति मात्र होती है। इस प्रत्यक्ष में वस्तुओं की प्रकारता का ज्ञान नहीं रहता है। इस प्रत्यक्ष विश्लेषण और संश्लेषण के जो मानसिक कार्य हैं, पूर्व की अवस्था है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष में अपनी अनुभूति को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना सम्भव नहीं है। जिस प्रकार शिशु अनुभूति को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार निर्विकल्प प्रत्यक्ष को शब्दों में प्रकाशित करना सम्भव नहीं है। इसलिए निर्विकल्प प्रत्यक्ष को शिशु एवं गूंगे व्यक्ति के ज्ञान की तरह माना गया है।

सविकल्प प्रत्यक्ष

    सविकल्प प्रत्यक्ष उस प्रत्यक्ष को कहा जाता है, जिसमें वस्तु का स्पष्ट और निश्चित ज्ञान होता है। इसमें वस्तु के गुण और प्रकार का भी ज्ञान होता है।

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Saturday, October 2, 2021

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

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न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

     शाब्दिक दृष्टि से एवं संकीर्ण अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है-आँखों के सामने एवं व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। न्याय दर्शन के प्रतिपादक गौतम ने प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि-'इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम् प्रत्यक्षम्।अर्थात् इन्द्रिय, अर्थ, सन्निकर्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह प्रत्यक्ष है। भारतीय दर्शन में कुल छ: इन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से पाँच इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा को बाह्य इन्द्रिय कहते हैं। इसके अतिरिक्त मन को आन्तरिक इन्द्रिय कहते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय मन के द्वारा हम अन्त:प्रत्यक्ष करते हैं तथा बाह्य इन्द्रियों के द्वारा हम बाह्य प्रत्यक्ष करते हैं।

प्रत्यक्ष प्रमाण के चरण

न्याय दार्शनिकों के अनुसार, बाह्य प्रत्यक्ष तीन चरणों में सम्पन्न होता है-

    निर्विकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की प्रारम्भिक भाषा है। इसमें हम वस्तु का प्रत्यक्ष तो करते हैं, परन्तु समझ नहीं पाते कि वस्तु क्या है। जैसे-हमने दूर से किसी को आते देखा, परन्तु समझ नहीं पाए कि कौन आ रहा है? निर्विकल्प प्रत्यक्ष है।

    सविकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की दूसरी अवस्था है। इसमें इन्द्रियों से प्राप्त संवेदना में अर्थ भी जोड़ देते हैं और स्पष्टत: जान लेते हैं कि अमुक वस्तु 'यह' है। सविकल्प प्रत्यक्ष में वस्तु का स्पष्ट, निश्चित एवं निर्णायक ज्ञान होता है।

    प्रत्यभिज्ञा - यह तीसरा प्रत्यक्ष है। इसका तात्पर्य हैपहचानना। कई बार प्रत्यक्षीकरण में हमें वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ-ही-साथ यह ज्ञान भी होता है कि हमने इसे पहले भी देखा है, तो यह प्रत्यभिज्ञा है।

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार बताए गए हैं-

  1. लौकिक प्रत्यक्ष
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष साधारण ढंग से होता है, तो इसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। लौकिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. बाह्य प्रत्यक्ष और
  2. मानस बाह्य

बाह्य प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का होता है-

  1. चाक्षुष प्रत्यक्ष (आँखों द्वारा)
  2. श्रावण (कानों द्वारा)
  3. घ्राणज (नाक द्वारा)
  4. रासन (जिह्वा द्वारा)
  5. त्वक (त्वचा द्वारा)

मानस बाह्य प्रत्यक्ष मन के द्वारा होता है।

अलौकिक प्रत्यक्ष

अलौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, तो इसे अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. सामान्य लक्षण
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज लक्षण

सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - सामान्य लक्षण सामान्यों का प्रत्यक्ष है, न्याय-वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा के अनुसार सामान्यों का वस्तुगत अस्तित्व है एवं सामान्य विशेष में अनुगत रहते हैं तथा विशेष को देखने पर सामान्य का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है। इस सामान्य के आधार पर उस वर्ग विशेष की समस्त वस्तुओं का (जो अन्य कहीं विद्यमान हैं) प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता है; जैसे-हमने जब धुएँ को देखा तो साथ ही धुएँ के सामान्य तत्त्व धूम्रत्व को भी देखा। इस सामान्य तत्त्व के आधार पर हमें अन्यत्र व्याप्त सभी धुओं का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है।

ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा किसी वस्तु के उस गुण का ज्ञान होता है, जिसका सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं होता फिर भी हमें उससे गुण का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जैसेबर्फ को देखकर ठण्ड का ज्ञान तथा पुष्प को देखकर सुगन्ध का ज्ञान हो जाता है, जबकि ठण्डक या सुगन्ध का सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं हुआ होता है।

योगज अलौकिक प्रत्यक्ष - योगज अलौकिक प्रत्यक्ष का तीसरा भेद है, जो योगाभ्यास से प्रसूत होता है। योगियों को योग शक्ति के द्वारा दूर से दूर तक की वस्तुओं का अनुभव हो जाता है। वे अपने स्थान से बैठे-बैठे ही हजारों किलोमीटर दूर की घटना को देख-सुन सकते हैं, क्योंकि यह सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, अत: इसे योगज अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...