मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा

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मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण की अवधारणा 

प्रत्यक्ष

    प्रभाकर के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। (साक्षात्-प्रतीतिः प्रत्यक्षम्)। उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा, ज्ञान और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार प्रभाकर त्रिपुटी प्रत्यक्ष' का समर्थक है। प्रत्यक्ष ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्य इन्द्रियाँ तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ व त्वचा बाह्य इन्द्रियाँ हैं, जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है।

    मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान की दो अवस्थाएँ मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व मात्र का आभास होता है। वह है -केवल इतना ही ज्ञान होता है उसके स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को 'निर्विकल्प प्रत्यक्ष' कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की दूसरी अवस्था वह है जिसमें हमें वस्तु का स्वरूप, उसके आकार-प्रकार का ज्ञान होता है। इस अवस्था में हम केवल इतना ही नहीं जानते कि वह वस्तु है, बल्कि यह भी जानते हैं कि वह किस प्रकार की वस्तु है। उदाहरणस्वरूप वह मनुष्य है, वह कुत्ता है, वह राम है इत्यादि। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं।

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