मीमांसा दर्शन की प्रमाण मीमांसा
भारतीय दर्शन |
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मीमांसा दर्शन की प्रमाण मीमांसा |
मीमांसा दर्शन की प्रमाण मीमांसा
मीमांसक, ईश्वर के अस्तित्व
में विश्वास नहीं करने के कारण अनीश्वरवादी हैं, किन्तु
नास्तिक नहीं हैं, क्योंकि ये वेदों को प्रामाणिक मानते हैं। मीमांसा दर्शन का मुख्य
उद्देश्य वेदों के प्रामाण्य को स्थापित करना था, फलत: इस लक्ष्य
की सिद्धि के लिए प्रमाण मीमांसा के विभिन्न तत्त्वों की विस्तृत विवेचना की गई है।
उल्लेखनीय है कि मीमांसकों की प्रमाण मीमांसा यथार्थवादी है। मीमांसकों के अनुसार 'प्रमा' किसी
वस्तु का यथार्थ ज्ञान है। महर्षि जैमिनी ने इस यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान
एवं शब्द प्रमाणों का विवेचन किया था। जैमिनी के बाद बहुत-से टीकाकार
एवं स्वतन्त्र ग्रन्थकार हुए, उनमें दो मुख्य
हैं-कुमारिल
भट्ट एवं प्रभाकर। इन दोनों के नाम पर मीमांसा में क्रमश: दो सम्प्रदाय
चल पड़े-भट्टमीमांसा एवं प्रभाकर मीमांसा।
प्रभाकर ने यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के पाँच प्रमाणों-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द
तथा अर्थापत्ति को स्वीकार किया था, जबकि कुमारिल
भट्ट ने प्रभाकर के पाँच प्रमाणों के अतिरिक्त अनुपलब्धि को भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त
करने के प्रमाण (साधन) के रूप में स्वीकार किया। उल्लेखनीय है कि प्रत्यक्ष तथा अनुमान
प्रमाण को नैयायिकों ने जिस रूप में स्वीकार किया वही दृष्टिकोण मीमांसकों का भी है, किन्तु
उपमान तथा शब्द प्रमाण नैयायिकों से भिन्न हैं। मीमांसा दर्शन के अन्तर्गत प्रमाणों
का विवरण निम्नलिखित है
प्रत्यक्ष
प्रभाकर के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जिसमें विषय की साक्षात प्रतीति होती है। (साक्षात्-प्रतीतिः प्रत्यक्षम्)। उनके अनुसार किसी भी विषय के प्रत्यक्षीकरण में आत्मा, ज्ञान और विषय का प्रत्यक्षीकरण होता है। इस प्रकार प्रभाकर त्रिपुटी प्रत्यक्ष' का समर्थक है। प्रत्यक्ष ज्ञान तभी होता है जब इन्द्रिय के साथ विषय का सम्पर्क हो। प्रभाकर और कुमारिल दोनों पाँच बाह्य इन्द्रियाँ तथा एक आन्तरिक इन्द्रिय को मानते हैं। आँख, कान, नाक, जीभ व त्वचा बाह्य इन्द्रियाँ हैं, जबकि मन आन्तरिक इन्द्रिय है।
मीमांसा दर्शन के आचार्य कुमारिल और प्रभाकर दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान
की दो अवस्थाएँ मानते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की पहली अवस्था वह है जिसमें विषय की प्रतीति
मात्र होती है। हमें इस अवस्था में वस्तु के अस्तित्व मात्र का आभास होता है। वह है -केवल
इतना ही ज्ञान होता है उसके स्वरूप का हमें ज्ञान नहीं रहता है। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान
को
'निर्विकल्प
प्रत्यक्ष' कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की दूसरी अवस्था वह है जिसमें हमें वस्तु
का स्वरूप, उसके आकार-प्रकार का ज्ञान
होता है। इस अवस्था में हम केवल इतना ही नहीं जानते कि वह वस्तु है, बल्कि
यह भी जानते हैं कि वह किस प्रकार की वस्तु है। उदाहरणस्वरूप वह मनुष्य है, वह कुत्ता
है,
वह
राम है इत्यादि। ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञान को सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं।
अनुमान
मीमांसा का अनुमान प्रमाण न्याय के अनुमान से मिलता है। न्याय में
अनुमान का शब्दार्थ किया गया है-पश्चाद्ज्ञान।
एक बात से दूसरी बात को देख लेना (अनु + ईशा) या एक
बात को जान लेने के बाद दूसरी बात को जान लेना (अनु-मतिकरण) पश्चाद्ज्ञान
या अनुमान कहलाता है। धुआँ को वहाँ अग्नि के होने का अनुमान लगाना इस प्रमाण का उदाहरण
है। इसलिए प्रत्यक्ष वस्तु (धुआँ) के आधार
पर अप्रत्यक्ष वस्तु (अग्नि) का ज्ञान प्राप्त
करना ही अनुमान की प्रक्रिया का आधार है।
उपमान प्रमाण
मीमांसकों का उपमान प्रमाण नैयायिकों से थोड़ा भिन्न है। न्याय दर्शन
में उपमान प्रमाण के अन्तर्गत समानता का प्रत्यक्ष करके नाम एवं नामी के बीच सम्बन्ध
का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, किन्तु मीमांसकों
का मत है कि उपमान प्रमाण के अन्तर्गत हमें यह ज्ञात होता है कि स्मृत वस्तु प्रत्यक्ष
वस्तु की तरह है। यहाँ प्रत्यक्ष वस्तु के बारे में किसी प्रामाणिक व्यक्ति के द्वारा
कोई पूर्व सूचना किसी ज्ञाता को नहीं दी जाती है। ज्ञाता अपनी स्मृति के आधार पर स्मृत
वस्तु एवं प्रत्यक्ष वस्तु के बीच समानता का ज्ञान प्राप्त करता है; जैसे—माना
ज्ञाता को गाय का पूर्व ज्ञान है, जब वह वन में
गया तो उसने गाय से सादृश्य (समानता) रखता
हुआ एक पशु देखा तो उसे देखते ही उसने अपनी स्मृति के आधार पर यह ज्ञान प्राप्त कर
लिया कि अरे गाय तो बिल्कुल उस पशु की तरह है। माना किसी ने उसे बताया कि वह नीलगाय
है तब उसे यह ज्ञात हो गया कि गाय नीलगाय की तरह है।
शब्द प्रमाण
नैयायिकों के अनुसार शब्द अनित्य हैं, क्योंकि
ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। इसके विपरीत मीमांसक शब्दों को नित्य मानते हैं। इनके
अनुसार वेद के शब्द नित्य हैं। इस सन्दर्भ में मीमांसकों की मान्यता थी कि शब्द उत्पन्न
एवं नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है; जैसे-बोलने
से
'ॐ' शब्द
उत्पन्न नहीं हुआ, 'ॐ' शब्द तो नित्य है आवाज के द्वारा 'ॐ' को व्यक्त
किया गया है, अत: आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है शब्द नहीं, क्योंकि
शब्द नित्य है।
नैयायिकों की मान्यता थी कि शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध नित्य है।
शब्दों में अर्थ प्रदान करने की जो शक्ति है, नैयायिक
उसे
'शब्द
शक्ति' कहते हैं तथा बताते हैं कि शब्द शक्ति अनित्य है, क्योंकि
यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है। इस सन्दर्भ में नैयायिकों का मत था कि चूँकि
शब्दों के अर्थ ईश्वर ने निश्चित किए हैं तथा ऐसा हो सकता है कि इस सृष्टि के बाद अगली
सृष्टि में ईश्वर शब्दों के अर्थ को बदल दे। अतः शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि
यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है।
मीमांसकों के अनुसार, शब्द तथा अर्थ
का सम्बन्ध नित्य है। चूंकि मीमांसक अनीश्वरवादी हैं, इसलिए
वे कहते हैं कि जब ईश्वर है ही नहीं तो शब्दों के अर्थ कौन परिवर्तित करेगा? अत: वेद शब्द
नित्य हैं, क्योंकि इनकी रचना न तो मनुष्यों ने की है और न ही ईश्वर ने, इसलिए
ये अपौरुषेय हैं। मीमांसकों के अनुसार, वेद स्वत: प्रकट
हुए हैं। मीमांसकों के अनुसार वेद यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के साधन हैं।
अर्थापत्ति
न्याय दर्शन में अर्थापत्ति को प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया
गया है, किन्तु मीमांसक अन्य प्रमाणों की भाँति अर्थापत्ति को भी यथार्थ
ज्ञान के प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। मीमांसकों के अनुसार किन्हीं दो तत्त्वों
के विरोधाभास को दूर करने के लिए जब एक तीसरे तत्त्व की कल्पना की जाती है तो जो ज्ञान
प्राप्त होता है, वह यथार्थ ज्ञान है तथा इस ज्ञान को प्राप्त करने के प्रमाण को ही 'अर्थापत्ति' कहते
हैं। उदाहरणार्थ “देवदत्त दिनभर भूखा रहता है, फिर भी
दिनों-दिन मोटा होता जा रहा है। ” इन दो
परस्पर विरोधी तत्त्वों के बीच सम्बन्ध स्थापित करने के लिए हमें एक तीसरे तत्त्व की
कल्पना करनी पड़ती है कि “देवदत्त रात में
क्या खाता है?"
नैयायिक मीमांसकों पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि अर्थापत्ति कोई
स्वतन्त्र प्रमाण नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष' ही है। इसके विपरीत
मीमांसक कहते हैं कि देवदत्त के रात में खाने का ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त नहीं
किया गया, क्योंकि देवदत्त को रात में खाते हुए किसी ने नहीं देखा है। पुनः
यह अनुमान पर भी आधारित नहीं है, क्योंकि यहाँ
इन दोनों तत्त्वों के बीच किसी प्रकार का कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है तथा अनिवार्य
सम्बन्ध के अभाव में अनुमान करना भी सम्भव नहीं है।
अनुपलब्धि (कुमारिल भट्ट)
कुमारिल भट्ट का मत है कि “किसी
स्थान विशेष एवं काल विशेष में जो वस्तु उपस्थित होने योग्य है, वहाँ
उस वस्तु का उपस्थित न होना ही उसके अभाव का सूचक है, इस अभाव
का ज्ञान जिस प्रमाण की सहायता से होता है, उसे ही अनुपलब्धि
कहते हैं। "
प्रभाकर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं
करते,
जबकि
कुमारिल भट्ट तथा अद्वैत वेदान्ती अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार
करते हैं। उदाहरणार्थ “शाम को छ: बजे मन्दिर में
पुजारी उपस्थित होने योग्य है, वह प्रत्यक्ष
द्वारा प्राप्त होना चाहिए, किन्तु यदि उसकी
प्राप्ति नहीं होती तो हमें यह ज्ञात हो जाता है कि मन्दिर में पुजारी का अभाव है। ''
नैयायिक अनुपलब्धि को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं
करते तथा कहते हैं कि प्राप्त होने योग्य से क्या आशय है? मन्दिर
में अभाव तो अनेक वस्तुओं का है, क्या अभाव के
आधार पर उन समस्त का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत मीमांसकों का प्रत्युत्तर
है कि “एक निश्चित स्थान एवं निश्चित समय पर जो वस्तु उपस्थित होने योग्य
है,
उसके
उपस्थित नहीं होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ”
नैयायिकों के अनुसार, अभाव का ज्ञान तो प्रत्यक्ष के द्वारा हो जाता है, तो फिर अनुपलब्धि को एक स्वतन्त्र प्रमाण मानने की आवश्यकता क्या है? इसके विपरीत मीमांसक कहते हैं कि जो वस्तु नहीं है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है? अत: अनुपलब्धि एक स्वतन्त्र प्रमाण है।
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