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न्याय दर्शन // Nyaya

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न्याय दर्शन // Nyaya   न्याय दर्शन का परिचय         ‘ नीयते अनेन इति न्यायः ' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः"  अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  -  प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1)  उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अ

एक वस्त्र और उसके धागों के बीच कौन सी कारणता है?

भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer प्रश्न - एक वस्त्र और उसके धागों के बीच कारणता है – असमवायि  समवायि  असमवायि और समवायि दोनों  निमित्त   ------------------------- उत्तर - ( 2 ) न्याय दर्शन में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं ये है – उपादान कारण  असमवायी कारण  निमित्त कारण  उपादान कारण उस द्रव्य को कहा जाता है जिसके द्वारा कार्य का निर्माण होता है। असमवायी कारण उस गुण या कर्म को कहते है जो उपादान कारण में समवेत रहकर कार्य की उत्पत्ति में सहायक होता है। निमित्त कारण उस कारण को कहा जाता है, जो द्रव्य से कार्य उत्पन्न करने में सहायक होता है।  समवाय सम्बन्ध के पाँच भेद बताये गये हैं - अवयव-अवयवी सम्बन्ध  गुण-गुणी सम्बन्ध  क्रिया-क्रियावन सम्बन्ध  सामान्य-विशेष सम्बन्ध और  विशेष-नित्य द्रव्य सम्बन्ध  मेज तथा उसके अवयवों का सम्बन्ध अवयव-अवयवी सम्बन्ध है, फलतः समवाय सम्बन्ध है। मेज तथा उसके रंग का सम्बन्ध गुण-गुणी समबन्ध है, फलतः समवाय सम्बन्ध है। इसी प्रकार मेज तथा मेजत्व का सम्बन्ध सामान्

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद अन्यथाख्यातिवाद     भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है , किन्तु वह वहाँ नहीं है , जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं। -------------

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति     न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है - अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैं , जिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं है , प्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती है , जिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता है ; जैसे - शुक्ति  का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग - अलग सत्य है , केवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने

बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था ●     भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं , जो सत्य ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो , उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण व्यवस्था का अर्थ है प्रत्येक प्रमाण का अपना एक दायरा / क्षेत्राधिकार होता है , जो अन्य प्रमाण के दायरे / क्षेत्राधिकार से अलग है। बौद्ध दर्शन भी प्रमाण व्यवस्था के अन्तर्गत यह मानता है कि प्रत्येक प्रमाण का क्षेत्राधिकार अलग है , जबकि प्रमाण संप्लव का अर्थ है विभिन्न प्रमाण एक - दूसरे से व्याप्त हो सकते हैं। ●     न्याय दर्शन के अनुसार यद्यपि सभी ज्ञान अनुभूति / अनुभव पर आधारित नहीं होते हैं फिर भी अधिकांश ज्ञान का आधार अनुभव ही है। विवाद का बिन्दु यह है कि विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के अलग - अलग प्रकार बताए गए हैं , जैसे कि बौद्ध दर्शन में प्रमाण के दो ही प्रकार स्वीकार किए गए हैं - प्रत्यक्ष तथ

न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा      न्याय के ईश्वर सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है तथा ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप मानते हैं। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण हैं , उसी प्रकार ईश्वर में भी गुण है , इसलिए जीव व ईश्वर दोनों ही आत्मा हैं। जीवात्मा व ईश्वर में अन्तर यह है कि जीवात्मा के गुण अनित्य , जबकि ईश्वर अनन्त नित्य गुणों से युक्त है , जिनमें छ : गुण - आधिपत्य , वीर्य , यश , श्री , ज्ञान तथा वैराग्य अत्यधिक प्रधान हैं। नैयायिकों के अनुसार , ईश्वर इस जगत का उत्पत्तिकर्ता , पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। ईश्वर ने समस्त विश्व की रचना परमाणुओं से की है , इसलिए यह जगत का केवल निमित्त कारण है न कि उपादान कारण। इस विश्व को बनाने में ईश्वर का नैतिक व आध्यात्मिक उद्देश्य है। अत : यह सृष्टि सप्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोग सके अ

न्याय दर्शन में हेत्वाभास

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भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer न्याय दर्शन में हेत्वाभास न्याय दर्शन में हेत्वाभास      न्याय दर्शन में अनुमान को यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अन्तर्गत हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य , सार्वभौम तथा शर्तरहित सम्बन्ध के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। किन्तु कभी - कभी जब दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में जो दोष पैदा हो जाते हैं , तो अनुमान के दोष को ' हेत्वाभास ' कहते हैं। हेत्वाभास का अर्थ होता है कि वस्तु देखने में तो हेतु के समान है , परन्तु वास्तव में हेतु नहीं है।       भारतीय दर्शन में अनुमान का सम्बन्ध वास्तविकता से है , क्योंकि इसके मूल में प्रत्यक्ष होता है अत : यहाँ अनुमान में जो दोष पाया जाता है , वह भी वास्तविक है। नैयायिकों ने दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में दोष दिखाने के लिए तर्क की जो विधि अपनाई है , वह तो सही है , किन्तु तथ्य सही नहीं है। परिणामस्वरूप अनुमान में जो दोष उत्पन्न होते हैं , वे वास्तविक हैं