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Tuesday, July 19, 2022

न्याय दर्शन // Nyaya

न्याय दर्शन // Nyaya

 न्याय दर्शन का परिचय 

       ‘नीयते अनेन इति न्यायः' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  - 

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।

आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) 

उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य भारतीय दर्शन परम्पराओं को 'वादविधि की प्रक्रिया' का ख्यापन न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अवदान है। 

       न्याय दर्शन का इतिहास लगभग 2000 वर्षों में समाविष्ट है। इस विशाल दर्शन को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है - प्राचीन न्याय, मध्य न्याय तथा नव्य-न्याय। दूसरी शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई. का समय प्राचीनन्याय का है। मध्यन्याय का समय 6-12वीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी एवं उसके बाद का दर्शन नव्य-न्याय में रखा जाता है। बारहवीं शती के गंगेश उपाध्याय ने नव्य-न्याय की आधारशिला रखी थी। अन्य दर्शनों की भाँति न्याय दर्शन का भी मुख्य उद्देश्य दुःखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना ही है। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति तत्त्वज्ञान से अर्थात् द्वादश प्रमेयों के ज्ञान से प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है, जिससे दोष अर्थात् राग-द्वेष नष्ट होते हैं तथा मुक्ति मिलती है। 

न्याय दर्शन का साहित्य 

न्याय दर्शन के साहित्य को 3 भागों में देखा जा सकता है - 

1- प्राचीन न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक

  • गौतम - तर्क विद्या प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान रही है। उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु न्याय दर्शन को व्यवस्थित रूप में , एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि गौतम को जाता है जिनका 'न्यायसूत्र' इस मूल ग्रन्थ माना जाता है। इसमें 5 अध्याय 10 आह्निक, 84 प्रकरण तथा 528 सूत्र हैं। 
  • वात्स्यायन - न्यायसूत्र पर सर्वप्रथम भाष्य वात्स्यायन ने लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में लिखा जो 'वात्स्यायन भाष्य' या 'न्यायभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। 

 2. मध्य न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • उद्योतकार - वात्स्यायन भाष्य पर न्यायवार्तिक नाम की टीका लिखी, इनका समय लगभग 650 ई. कश्मीर में माना जाता है। 
  • वाचस्पतिमिश्र - इनका समय 841 ई में माना जाता है। ये मिथिला के निवासी थे तथा इन्हें षड्दर्शनीवल्लभ की उपाधि से जाना जाता है। इन्होंने न्यायवार्तिक पर तात्पर्यटीका लिखी जो ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • जयन्तभट्ट - 9 वीं शताब्दी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा जो न्यायमञ्जरी के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें आह्निकों की संख्या 84 है।
  • उदयन - इनका समय 984 ई0 माना जाता है। इन्होंने तात्पर्यटीका पर एक उपटीका लिखी, जो 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'न्यायकुसुमांजलि' एवं 'आत्मतत्त्वविवेक’ उनके दो अन्य प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं । 

3- नव्य-न्याय (प्रमाण प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • गंगेश उपाध्याय - नव्यन्याय के प्रवर्तक के रूप में विख्यात गंगेश उपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से ग्रन्थ लिखा, जो 4 खण्डों मे विभाजित है, जिसमें इन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द की विशद् व्याख्या की है। 'तत्वचिन्तामणि' की व्याख्या परम्परा में वर्धमान ने 'प्रकाश', पक्षधर मिश्र ने 'आलोक', शंकरमिश्र ने 'मयूख' रघुनाथ शिरोमणि ने 'दीधिति', मथुरानाथतर्कवागीश ने 'रहस्य', जगदीश तर्कालंकार ने दीधितिप्रकाश (जागदीशी), हरिराम तर्कवागीश ने ‘तत्त्वचिन्तामणिविचार' तथा गदाधर भट्टाचार्य ने 'दीधितिप्रकाशिका' नाम से विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाग्रन्थों की रचना की है। 

न्याय दर्शन के अन्य प्रमुख प्रवर्तक 

  • भासर्वज्ञ - 10 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' नामक प्रमाणाधारित प्रकरण ग्रन्थ की रचना की है जो कि अपनी मौलिक एवं नवीन उद्भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है। 
  • वरदराज - इनके ग्रन्थ का नाम ‘तार्किकरक्षा' है तथा इनका समय 1150 ई. का है। यह वैशेषिकपदार्थसमावेष्टा न्याय का प्रकरण ग्रन्थ है। 
  • केशव मिश्र - मिथिला के इस प्रसिद्ध नैयायिक ने 13 वीं शताब्दी में 'तर्कभाषा' की रचना की है जिसे न्यायदर्शन में प्रवेश का द्वार माना जाता है। 

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न्याय दर्शन के महत्वपूर्ण टॉपिक 

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

Saturday, November 20, 2021

एक वस्त्र और उसके धागों के बीच कौन सी कारणता है?

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प्रश्न - एक वस्त्र और उसके धागों के बीच कारणता है –

  1. असमवायि 
  2. समवायि 
  3. असमवायि और समवायि दोनों 
  4. निमित्त  
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उत्तर - ( 2 ) न्याय दर्शन में तीन प्रकार के कारण माने गये हैं ये है –

  1. उपादान कारण 
  2. असमवायी कारण 
  3. निमित्त कारण 

उपादान कारण उस द्रव्य को कहा जाता है जिसके द्वारा कार्य का निर्माण होता है। असमवायी कारण उस गुण या कर्म को कहते है जो उपादान कारण में समवेत रहकर कार्य की उत्पत्ति में सहायक होता है। निमित्त कारण उस कारण को कहा जाता है, जो द्रव्य से कार्य उत्पन्न करने में सहायक होता है। 

समवाय सम्बन्ध के पाँच भेद बताये गये हैं -

  1. अवयव-अवयवी सम्बन्ध 
  2. गुण-गुणी सम्बन्ध 
  3. क्रिया-क्रियावन सम्बन्ध 
  4. सामान्य-विशेष सम्बन्ध और 
  5. विशेष-नित्य द्रव्य सम्बन्ध 

मेज तथा उसके अवयवों का सम्बन्ध अवयव-अवयवी सम्बन्ध है, फलतः समवाय सम्बन्ध है। मेज तथा उसके रंग का सम्बन्ध गुण-गुणी समबन्ध है, फलतः समवाय सम्बन्ध है। इसी प्रकार मेज तथा मेजत्व का सम्बन्ध सामान्य-विशेष सम्बन्ध है अतः यह भी समवाय सम्बन्ध है। 

Wednesday, October 6, 2021

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

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न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

न्याय दर्शन का अन्यथाख्यातिवाद

अन्यथाख्यातिवाद

    भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है, किन्तु वह वहाँ नहीं है, जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं।

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Saturday, October 2, 2021

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

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न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति

    न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है-अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैं, जिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं है, प्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती है, जिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता है; जैसे-शुक्ति का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग-अलग सत्य है, केवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने वस्तुवाद को त्याग देते हैं, किन्तु नैयायिक वस्तुवाद की रक्षा करने के लिए भ्रम में रजत के वास्तविक प्रत्यक्ष की कल्पना करते हैं और इसके लिए ज्ञान लक्षण नामक असाधारण प्रत्यक्ष का सहारा लेते हैं। शक्ति और रजत का समान गुणों (सफेदी, चमक आदि) के कारण पूर्वट्रस्ट रजत का स्मरण होता है और स्मृति में विद्यमान रजत-रूप का बाहर शुक्ति के स्थान पर ज्ञानलक्षणप्रत्यासति द्वारा असाधारण प्रत्यक्ष होता है। किन्तु यह वस्तुवाद की रक्षा करने का प्रयत्न है।

     कुमारिल भ्रम में ऐसा कोई असाधारण प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं करते। नैयायिक यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप और संवादिप्रवृत्ति या सफलवृत्ति को यथार्थता के परीक्षण का साधन मानते हैं। कुमारिल यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप मानते हैं, किन्तु ज्ञान को स्वत: प्रमाण मानकर कारणदोषरहितता एवं बाधकज्ञानरहितता या संवाद को प्रामाण्य स्वरूप मानते हैं। कुमारिल प्रमा और भ्रम के विवेचन में तटस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि अपनाते हैं।

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बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

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बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

    भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण व्यवस्था का अर्थ है प्रत्येक प्रमाण का अपना एक दायरा/ क्षेत्राधिकार होता है, जो अन्य प्रमाण के दायरे/ क्षेत्राधिकार से अलग है। बौद्ध दर्शन भी प्रमाण व्यवस्था के अन्तर्गत यह मानता है कि प्रत्येक प्रमाण का क्षेत्राधिकार अलग है, जबकि प्रमाण संप्लव का अर्थ है विभिन्न प्रमाण एक-दूसरे से व्याप्त हो सकते हैं।

    न्याय दर्शन के अनुसार यद्यपि सभी ज्ञान अनुभूति/ अनुभव पर आधारित नहीं होते हैं फिर भी अधिकांश ज्ञान का आधार अनुभव ही है। विवाद का बिन्दु यह है कि विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के अलग-अलग प्रकार बताए गए हैं, जैसे कि बौद्ध दर्शन में प्रमाण के दो ही प्रकार स्वीकार किए गए हैं-प्रत्यक्ष तथा अनुमान, जबकि न्याय दर्शन में प्रमाण के चार प्रकार बताए गए हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रमाण

     बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार प्रत्यक्ष उसे कहते हैं, जो कल्पना रहित निभ्रान्त ऐसा ज्ञान हो जिसमें बिल्कुल सन्देह न हो। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'प्रत्यक्ष यथार्थता का' जैसा वह अपने आप में है, ज्ञान है अर्थात् प्रत्यक्ष स्वलक्षण वस्तु का ज्ञान है। जाति, गुण, सामान्य आदि शब्द केवल सम्बन्ध नहीं हैं। जब हम वस्तु को मन के हस्तक्षेप के पूर्व प्रथम बार देखते हैं, तब वही वस्तु का शुद्ध प्रत्यक्ष है। अत: वस्तु की चेतनामात्र ही अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रत्यक्ष है। जब हम वस्तु को सविकल्प के रूप में जानते हैं, उसे जाति-गुण आदि से विशेषित करके जानते हैं, तब उससे मन के विकल्पों का योग होने के कारण वह शुद्ध प्रत्यक्ष नहीं रह जाता है। जब हम करके जानते हैं, तब उसाता है।

     बौद्ध दर्शन के अनुसार, सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवहत होने के कारण पूर्वधारणा से स्वतन्त्र नहीं रहता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष कल्पना प्रौढ़ होने के कारण वस्तु के स्वलक्षण का ही ग्रहण है। यथार्थ, जिसके हम सम्पर्क में आते हैं अवर्णनीय एवं निर्विकल्प है। हम जिसका वर्णन करते हैं, वह सामान्य प्रत्यक्ष है। हम जैसे ही किसी वस्तु के विषय में कुछ कहते हैं, उस पर मन के विकल्पों को आरोपित कर देते हैं। इस प्रकार वस्तु सविकल्प प्रत्यक्ष में अपना वास्तविक स्वरूप खो देती है; जैसे-हम कानों द्वारा कुछ सुनते हैं, यह आवाज यथार्थ है, परन्तु जब हम कहते हैं कि यह मक्खी की आवाज है, तब यह हमारी कल्पना है। इस प्रकार हम सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर उसका स्वरूप बदल देते हैं, इससे वह प्रामाणिक नही रह जाता है।

     इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों की दृष्टि में एकमात्र निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही यथार्थ है। सविकल्प प्रत्यक्ष अवास्तविक है। उसी प्रकार बौद्ध दार्शनिकों ने दूसरे प्रमाण अनुमान के बारे में भी बताया है।

न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाण

     न्याय दर्शन में भी प्रमाण की विवेचना की गई है जो अलग प्रकार की है। न्याय दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का होता हैयथार्थ ज्ञान तथा अयथार्थ ज्ञान। वस्तु जैसी है, जब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता है तो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं, किन्तु जब वस्तु जैसी होती है, ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता तो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं।

     न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। इन चारों प्रमाणों में से प्रत्यक्ष को प्रधान एवं ज्येष्ठ प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान भी एक अन्य प्रमाण है जिस पर हमारा समस्त बौद्धिक ज्ञान निर्भर करता है, किन्तु इस प्रमाण का क्षेत्र प्रत्यक्ष की तुलना में काफी व्यापक है, साथ ही यह प्रमाण व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उपमान तथा शब्द प्रमाण न्याय दर्शन के अन्तर्गत दो अन्य स्वतन्त्र प्रमाण हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्ति के माध्यम हैं। उसी प्रकार चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक सभी ने प्रमाण के अपने-अपने दृष्टिकोण बताए हैं, जिससे प्रमाण संप्लव के विषय को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाता है। लेकिन हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि भले ही अलग-अलग दर्शन स्कूल ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रमाण के प्रकार बताए। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका (प्रमाण) का मूल लक्ष्य/ अर्थ सत्य ज्ञान या यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से है।

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न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

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न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

     न्याय के ईश्वर सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है तथा ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप मानते हैं। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण हैं, उसी प्रकार ईश्वर में भी गुण है, इसलिए जीव व ईश्वर दोनों ही आत्मा हैं। जीवात्मा व ईश्वर में अन्तर यह है कि जीवात्मा के गुण अनित्य, जबकि ईश्वर अनन्त नित्य गुणों से युक्त है, जिनमें छ: गुण-आधिपत्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य अत्यधिक प्रधान हैं। नैयायिकों के अनुसार, ईश्वर इस जगत का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। ईश्वर ने समस्त विश्व की रचना परमाणुओं से की है, इसलिए यह जगत का केवल निमित्त कारण है न कि उपादान कारण। इस विश्व को बनाने में ईश्वर का नैतिक व आध्यात्मिक उद्देश्य है। अत: यह सृष्टि सप्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोग सके अर्थात् जगत के ये विभिन्न पदार्थ हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए हैं, सुख-दु:ख भोगने के लिए हैं। इसके साथ ही नैयायिकों की मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मानव मोक्ष प्राप्त करने में सफल होता है। नैयायिकों का यह मोक्ष सम्बन्धी विचार रामानुज तथा मध्वाचार्य से साम्यता को दर्शाता है, क्योंकि इनकी भी मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव है।

     न्याय दर्शन में अनुमान के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं-

    सावयव वस्तुएँ बिना निमित्त कारण के उत्पन्न नहीं हो सकती। ब्रह्माण्ड में समस्त वस्तुएँ सावयव हैं, अत: इनका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए और यह निमित्त कारण ईश्वर है।

    सावयव वस्तुएँ तभी उत्पन्न हो सकती हैं जब परमाणु आपस में संयुक्त हों। ये संयुक्त तभी हो सकते हैं जब उनमें गति हो, क्योंकि परमाणु अगतिशील होते हैं अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिए, जो परमाणुओं में गति उत्पन्न करती है, यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में जितनी वस्तुएँ हैं उनका कोई--कोई आश्रय अवश्य होता है तो फिर तर्कत: जगत का भी कोई आश्रय अवश्य है और वह आश्रय ईश्वर है।

    वेदों से हमें जो भी ज्ञान प्राप्त होता है, उसकी सत्यता के बारे में हम सन्देह कर ही नहीं सकते। ऐसा ज्ञान जिसकी सत्यता के बारे में सन्देह किया ही नहीं जा सकता, ऐसा ज्ञान मनुष्य द्वारा सम्भव नहीं है। ऐसा ज्ञान तो किसी सर्वज्ञ सत्ता को ही हो सकता है और वह सत्ता ईश्वर है।

    वेद प्रमाण है, अत: वेद में जो कहा गया है, उसे स्वीकार करना चाहिए। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर इस जगत को बनाने वाला है। अतः हमें स्वीकार करना चाहिए कि ईश्वर है।

    प्रलयकाल में संख्या नहीं होती और बिना संख्या के दो परमाणु संयुक्त होकर द्विअणु कैसे बनेंगे और सृष्टि कैसे हो पाएगी। अत: कोई सत्ता अवश्य है जो संख्या उत्पन्न करती है और वह सत्ता ईश्वर है।

    सभी जीवों को संसार में उनके पूर्वजन्म के कर्मों का उपयुक्त फल प्राप्त होता है, पर कर्म तो अचेतन होते हैं जो अपने आप फल नहीं दे सकते। अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जो यह व्यवस्था करती है कि सभी जीवों को उनके कर्मों का उपयुक्त फल मिले। यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में सर्वत्र व्यवस्था या नियमानवर्तिता या प्रयोजन दिखाई देता है। अत: कोई--कोई व्यवस्थापक या नियामक या प्रयोजनकर्ता अवश्य है और वह ही ईश्वर है।

ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए युक्तियाँ

ईश्वर की अस्तित्व सिद्धि के लिए निम्नलिखित युक्तियाँ हैं-

    ईश्वर को निमित्त कारण मानकर न्याय दर्शन ने मानवीय भावों की कमजोरियों को उपस्थित कर दिया। क्योंकि यदि ईश्वर को इस जगत का केवल निमित्त कारण मान लिया जाए तो ऐसा ईश्वर पूर्ण और स्वतन्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि उसे जगत उत्पत्ति के लिए उपादान कारण पर आश्रित मानना पड़ेगा। यही कारण है कि वेदान्त ने ईश्वर की पूर्णता तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उसे इस जगत का उपादान एवं निमित्त कारण दोनों माना है।

    यदि ईश्वर इस विश्व का रचयिता है तो वह अवश्य ही शरीरधारी होगा, क्योंकि बिना शरीर के कोई कार्य नहीं हो सकता, किन्तु नैयायिक इसे स्वीकार नहीं करते।

    वेदों को आधार बनाकर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में चक्रक दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि न्याय दर्शन में वेद के आधार पर ईश्वर की सत्ता को तथा ईश्वर के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है।

    श्रुतियों को ईश्वर का प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि श्रुतियों की स्वयं की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है।

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न्याय दर्शन में हेत्वाभास

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न्याय दर्शन में हेत्वाभास

न्याय दर्शन में हेत्वाभास

     न्याय दर्शन में अनुमान को यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अन्तर्गत हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य, सार्वभौम तथा शर्तरहित सम्बन्ध के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। किन्तु कभी-कभी जब दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में जो दोष पैदा हो जाते हैं, तो अनुमान के दोष को 'हेत्वाभास' कहते हैं। हेत्वाभास का अर्थ होता है कि वस्तु देखने में तो हेतु के समान है, परन्तु वास्तव में हेतु नहीं है।

      भारतीय दर्शन में अनुमान का सम्बन्ध वास्तविकता से है, क्योंकि इसके मूल में प्रत्यक्ष होता है अत: यहाँ अनुमान में जो दोष पाया जाता है, वह भी वास्तविक है। नैयायिकों ने दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में दोष दिखाने के लिए तर्क की जो विधि अपनाई है, वह तो सही है, किन्तु तथ्य सही नहीं है। परिणामस्वरूप अनुमान में जो दोष उत्पन्न होते हैं, वे वास्तविक हैं न कि आकारिक। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य दर्शन में निगमनात्मक अनुमान के दोष आकारिक हैं, क्योंकि निगमन का सम्बन्ध तर्कवाक्यों की सत्यता या असत्यता से न होकर विधि की सत्यता या असत्यता से है। यदि आधार वाक्यों से निष्कर्ष तर्कत: निगमित हो रहे हैं तो विधि सत्य है अन्यथा असत्य। जबकि भारतीय दर्शन में नैयायिकों के अनुमान के समस्त दोष तथ्यात्मक वस्तुपरक असत्यता से उत्पन्न होते हैं, अत: अनुमान के समस्त दोष वस्तुपरक हैं न कि आकारिक। नैयायिकों के अनुसार दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में पाँच प्रकार के वास्तविक दोष उत्पन्न होते हैं-

  1. सव्यभिचार
  2. विरुद्ध
  3. सत्प्रतिपक्ष
  4. असिद्ध (साध्य सम)
  5. बाधित

सव्यभिचार 

यह दोष अनुमान में तब आता है, जब हेतु व्यभिचारी (अपवाद) हो। व्यभिचारी हेतु उसे कहते हैं, जिस हेतु का व्याप्ति के साथ सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ '

सभी द्विपद बुद्धिमान होते हैं।

हंस द्विपद है।

अतः हंस बुद्धिमान है (अनुमान में दोष)

विरुद्ध 

    यदि हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है तो अनुमान में जो दोष आ जाता है. ऐसे दोष को विरुद्ध कहते हैं। उदाहरणार्थ

'जो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अतः शब्द नित्य हैं (अनुमान का दोष)

     उपरोक्त तथ्यजो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं' दोषपूर्ण है, क्योंकि उत्पन्न होना नित्यता का खण्डन करता है। अतः यहाँ हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है। परिणामस्वरूप इस तथ्य के आधार पर किया गया यह अनुमान किशब्द नित्य है' दोषपूर्ण हो गया।

सत्प्रतिपक्ष 

     जिस अनुमान के हेतु दोष को हम किसी अन्य अनुमान द्वारा दिखा सकते हैं तो ऐसे दुष्ट अनुमान के दोष को सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। उदाहरणार्थ इस दोष को समझने के लिए दो अनुमान लेने पड़ेंगे

    प्रथम अनुमान

'सभी अदृश्य पदार्थ नित्य होते हैं। '

शब्द अदृश्य हैं

अतः शब्द नित्य हैं।

    द्वितीय अनुमान

'जो-जो उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अत: शब्द अनित्य हैं (सही अनुमान)

यहाँ द्वितीय अनुमान दिखाकर हमने प्रथम वाले अनुमान को गलत सिद्ध कर दिया।

असिद्ध (साध्य सम) 

     यदि हेतु वास्तविक ही न हो तब उस हेतु के आधार पर जो अनुमान किया जाता है तो ऐसा अनुमान दोषपूर्ण हो जाता है, अत: अनुमान के इस दोष को असिद्ध कहा जाता है। उदाहरणार्थ

'आकाश कमल कमल है। '

सभी कमल सुगन्धित होते हैं

अत: आकाश कमल सुगन्धित है।

    उपरोक्त उदाहरण में हेतु (आकाश कमल) वास्तविक नहीं है, अत: इस हेतु के आधार पर किया गया अनुमान दोषपूर्ण है।

बाधित 

     यदि किसी अनुमान के दोष को अन्य प्रमाण द्वारा दिखा सकें तो ऐसे अनुमान के दोष को बाधित कहते हैं। उदाहरणार्थ -

'सभी द्रव्य ठण्डे होते हैं। '

अग्नि द्रव्य है।

अतः अग्नि ठण्डी होती है।

इन अनुमान के दोष को हम प्रत्यक्ष द्वारा दिखा सकते हैं कि सभी द्रव्य ठण्डे नहीं होते हैं।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...