न्याय दर्शन // Nyaya
न्याय दर्शन // Nyaya न्याय दर्शन का परिचय ‘ नीयते अनेन इति न्यायः ' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है - प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अ