न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

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न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

न्याय दर्शन में ईश्वर की अवधारणा

     न्याय के ईश्वर सम्बन्धी विचार भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। न्याय दर्शन ईश्वरवादी दर्शन है तथा ईश्वर को आत्मा का ही एक विशेष रूप मानते हैं। जिस प्रकार जीवात्मा में ज्ञान आदि गुण हैं, उसी प्रकार ईश्वर में भी गुण है, इसलिए जीव व ईश्वर दोनों ही आत्मा हैं। जीवात्मा व ईश्वर में अन्तर यह है कि जीवात्मा के गुण अनित्य, जबकि ईश्वर अनन्त नित्य गुणों से युक्त है, जिनमें छ: गुण-आधिपत्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य अत्यधिक प्रधान हैं। नैयायिकों के अनुसार, ईश्वर इस जगत का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है। ईश्वर ने समस्त विश्व की रचना परमाणुओं से की है, इसलिए यह जगत का केवल निमित्त कारण है न कि उपादान कारण। इस विश्व को बनाने में ईश्वर का नैतिक व आध्यात्मिक उद्देश्य है। अत: यह सृष्टि सप्रयोजन है। प्रयोजन यह है कि मनुष्य अपने कर्मों का फल भोग सके अर्थात् जगत के ये विभिन्न पदार्थ हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए हैं, सुख-दु:ख भोगने के लिए हैं। इसके साथ ही नैयायिकों की मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मानव मोक्ष प्राप्त करने में सफल होता है। नैयायिकों का यह मोक्ष सम्बन्धी विचार रामानुज तथा मध्वाचार्य से साम्यता को दर्शाता है, क्योंकि इनकी भी मान्यता है कि ईश्वर की कृपा से ही मोक्ष प्राप्ति सम्भव है।

     न्याय दर्शन में अनुमान के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है, जो निम्न प्रकार हैं-

    सावयव वस्तुएँ बिना निमित्त कारण के उत्पन्न नहीं हो सकती। ब्रह्माण्ड में समस्त वस्तुएँ सावयव हैं, अत: इनका निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए और यह निमित्त कारण ईश्वर है।

    सावयव वस्तुएँ तभी उत्पन्न हो सकती हैं जब परमाणु आपस में संयुक्त हों। ये संयुक्त तभी हो सकते हैं जब उनमें गति हो, क्योंकि परमाणु अगतिशील होते हैं अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिए, जो परमाणुओं में गति उत्पन्न करती है, यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में जितनी वस्तुएँ हैं उनका कोई--कोई आश्रय अवश्य होता है तो फिर तर्कत: जगत का भी कोई आश्रय अवश्य है और वह आश्रय ईश्वर है।

    वेदों से हमें जो भी ज्ञान प्राप्त होता है, उसकी सत्यता के बारे में हम सन्देह कर ही नहीं सकते। ऐसा ज्ञान जिसकी सत्यता के बारे में सन्देह किया ही नहीं जा सकता, ऐसा ज्ञान मनुष्य द्वारा सम्भव नहीं है। ऐसा ज्ञान तो किसी सर्वज्ञ सत्ता को ही हो सकता है और वह सत्ता ईश्वर है।

    वेद प्रमाण है, अत: वेद में जो कहा गया है, उसे स्वीकार करना चाहिए। वेदों में कहा गया है कि ईश्वर इस जगत को बनाने वाला है। अतः हमें स्वीकार करना चाहिए कि ईश्वर है।

    प्रलयकाल में संख्या नहीं होती और बिना संख्या के दो परमाणु संयुक्त होकर द्विअणु कैसे बनेंगे और सृष्टि कैसे हो पाएगी। अत: कोई सत्ता अवश्य है जो संख्या उत्पन्न करती है और वह सत्ता ईश्वर है।

    सभी जीवों को संसार में उनके पूर्वजन्म के कर्मों का उपयुक्त फल प्राप्त होता है, पर कर्म तो अचेतन होते हैं जो अपने आप फल नहीं दे सकते। अत: कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जो यह व्यवस्था करती है कि सभी जीवों को उनके कर्मों का उपयुक्त फल मिले। यह सत्ता ही ईश्वर है।

    जगत में सर्वत्र व्यवस्था या नियमानवर्तिता या प्रयोजन दिखाई देता है। अत: कोई--कोई व्यवस्थापक या नियामक या प्रयोजनकर्ता अवश्य है और वह ही ईश्वर है।

ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए युक्तियाँ

ईश्वर की अस्तित्व सिद्धि के लिए निम्नलिखित युक्तियाँ हैं-

    ईश्वर को निमित्त कारण मानकर न्याय दर्शन ने मानवीय भावों की कमजोरियों को उपस्थित कर दिया। क्योंकि यदि ईश्वर को इस जगत का केवल निमित्त कारण मान लिया जाए तो ऐसा ईश्वर पूर्ण और स्वतन्त्र नहीं हो सकता, क्योंकि उसे जगत उत्पत्ति के लिए उपादान कारण पर आश्रित मानना पड़ेगा। यही कारण है कि वेदान्त ने ईश्वर की पूर्णता तथा स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उसे इस जगत का उपादान एवं निमित्त कारण दोनों माना है।

    यदि ईश्वर इस विश्व का रचयिता है तो वह अवश्य ही शरीरधारी होगा, क्योंकि बिना शरीर के कोई कार्य नहीं हो सकता, किन्तु नैयायिक इसे स्वीकार नहीं करते।

    वेदों को आधार बनाकर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में चक्रक दोष उत्पन्न होता है, क्योंकि न्याय दर्शन में वेद के आधार पर ईश्वर की सत्ता को तथा ईश्वर के आधार पर वेदों की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया गया है।

    श्रुतियों को ईश्वर का प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि श्रुतियों की स्वयं की प्रामाणिकता सन्देहास्पद है।

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