बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

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बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

बौद्ध और न्याय की प्रमाण व्यवस्था

    भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करे। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो, उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण व्यवस्था का अर्थ है प्रत्येक प्रमाण का अपना एक दायरा/ क्षेत्राधिकार होता है, जो अन्य प्रमाण के दायरे/ क्षेत्राधिकार से अलग है। बौद्ध दर्शन भी प्रमाण व्यवस्था के अन्तर्गत यह मानता है कि प्रत्येक प्रमाण का क्षेत्राधिकार अलग है, जबकि प्रमाण संप्लव का अर्थ है विभिन्न प्रमाण एक-दूसरे से व्याप्त हो सकते हैं।

    न्याय दर्शन के अनुसार यद्यपि सभी ज्ञान अनुभूति/ अनुभव पर आधारित नहीं होते हैं फिर भी अधिकांश ज्ञान का आधार अनुभव ही है। विवाद का बिन्दु यह है कि विभिन्न दर्शनों में प्रमाण के अलग-अलग प्रकार बताए गए हैं, जैसे कि बौद्ध दर्शन में प्रमाण के दो ही प्रकार स्वीकार किए गए हैं-प्रत्यक्ष तथा अनुमान, जबकि न्याय दर्शन में प्रमाण के चार प्रकार बताए गए हैं।

बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रमाण

     बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार प्रत्यक्ष उसे कहते हैं, जो कल्पना रहित निभ्रान्त ऐसा ज्ञान हो जिसमें बिल्कुल सन्देह न हो। बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार 'प्रत्यक्ष यथार्थता का' जैसा वह अपने आप में है, ज्ञान है अर्थात् प्रत्यक्ष स्वलक्षण वस्तु का ज्ञान है। जाति, गुण, सामान्य आदि शब्द केवल सम्बन्ध नहीं हैं। जब हम वस्तु को मन के हस्तक्षेप के पूर्व प्रथम बार देखते हैं, तब वही वस्तु का शुद्ध प्रत्यक्ष है। अत: वस्तु की चेतनामात्र ही अर्थात् निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रत्यक्ष है। जब हम वस्तु को सविकल्प के रूप में जानते हैं, उसे जाति-गुण आदि से विशेषित करके जानते हैं, तब उससे मन के विकल्पों का योग होने के कारण वह शुद्ध प्रत्यक्ष नहीं रह जाता है। जब हम करके जानते हैं, तब उसाता है।

     बौद्ध दर्शन के अनुसार, सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान व्यवहत होने के कारण पूर्वधारणा से स्वतन्त्र नहीं रहता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष कल्पना प्रौढ़ होने के कारण वस्तु के स्वलक्षण का ही ग्रहण है। यथार्थ, जिसके हम सम्पर्क में आते हैं अवर्णनीय एवं निर्विकल्प है। हम जिसका वर्णन करते हैं, वह सामान्य प्रत्यक्ष है। हम जैसे ही किसी वस्तु के विषय में कुछ कहते हैं, उस पर मन के विकल्पों को आरोपित कर देते हैं। इस प्रकार वस्तु सविकल्प प्रत्यक्ष में अपना वास्तविक स्वरूप खो देती है; जैसे-हम कानों द्वारा कुछ सुनते हैं, यह आवाज यथार्थ है, परन्तु जब हम कहते हैं कि यह मक्खी की आवाज है, तब यह हमारी कल्पना है। इस प्रकार हम सविकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान में पदार्थ को तोड़-मरोड़ कर उसका स्वरूप बदल देते हैं, इससे वह प्रामाणिक नही रह जाता है।

     इस प्रकार बौद्ध दार्शनिकों की दृष्टि में एकमात्र निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही यथार्थ है। सविकल्प प्रत्यक्ष अवास्तविक है। उसी प्रकार बौद्ध दार्शनिकों ने दूसरे प्रमाण अनुमान के बारे में भी बताया है।

न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाण

     न्याय दर्शन में भी प्रमाण की विवेचना की गई है जो अलग प्रकार की है। न्याय दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान दो प्रकार का होता हैयथार्थ ज्ञान तथा अयथार्थ ज्ञान। वस्तु जैसी है, जब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता है तो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं, किन्तु जब वस्तु जैसी होती है, ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता तो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं।

     न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द। इन चारों प्रमाणों में से प्रत्यक्ष को प्रधान एवं ज्येष्ठ प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान भी एक अन्य प्रमाण है जिस पर हमारा समस्त बौद्धिक ज्ञान निर्भर करता है, किन्तु इस प्रमाण का क्षेत्र प्रत्यक्ष की तुलना में काफी व्यापक है, साथ ही यह प्रमाण व्यावहारिक जीवन की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उपमान तथा शब्द प्रमाण न्याय दर्शन के अन्तर्गत दो अन्य स्वतन्त्र प्रमाण हैं, जो सत्य ज्ञान प्राप्ति के माध्यम हैं। उसी प्रकार चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक सभी ने प्रमाण के अपने-अपने दृष्टिकोण बताए हैं, जिससे प्रमाण संप्लव के विषय को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाता है। लेकिन हमें इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि भले ही अलग-अलग दर्शन स्कूल ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रमाण के प्रकार बताए। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसका (प्रमाण) का मूल लक्ष्य/ अर्थ सत्य ज्ञान या यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति से है।

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