न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति
भारतीय दर्शन |
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न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति |
न्याय दर्शन में अन्यथाख्याति
न्यायवैशेषिक की अन्यथाख्याति में और कुमारिल की विपरीतख्याति में बहुत समानता देखने को मिलती है। न्याय के भ्रम के व्याख्यान का नाम ही अन्यथाख्याति है। अन्यथा का अर्थ है-अन्यत्र और अन्य रूप में और ये दोनों अर्थ अन्यथाख्याति में प्रयोग किए जाते हैं। कुमारिल और नैयायिक दोनों ही भ्रम को अन्यथाज्ञान या मिथ्याज्ञान मानते हैं, जिसमें एक वस्तु किसी अन्य वस्तु के रूप में जो वह नहीं है, प्रतीत होती है। भ्रम में विषयीमूलकता या पुरुषतन्त्रता होती है, जिसके कारण बुद्धि दोष से एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में अन्यथा ग्रहण होता है; जैसे-शुक्ति का रजत के रूप में या रज्जु का सर्प के रूप में ग्रहण। दोनों वस्तुएँ अलग-अलग सत्य है, केवल उनका सम्बन्ध मिथ्या है। सम्यक्ज्ञान से मिथ्याज्ञान का ही बोध होता है वस्तु का नहीं। कुमारिल स्पष्ट रूप से भ्रम में पुरुषतन्त्रता स्वीकार करते हैं और यहाँ अपने वस्तुवाद को त्याग देते हैं, किन्तु नैयायिक वस्तुवाद की रक्षा करने के लिए भ्रम में रजत के वास्तविक प्रत्यक्ष की कल्पना करते हैं और इसके लिए ज्ञान लक्षण नामक असाधारण प्रत्यक्ष का सहारा लेते हैं। शक्ति और रजत का समान गुणों (सफेदी, चमक आदि) के कारण पूर्वट्रस्ट रजत का स्मरण होता है और स्मृति में विद्यमान रजत-रूप का बाहर शुक्ति के स्थान पर ज्ञानलक्षणप्रत्यासति द्वारा असाधारण प्रत्यक्ष होता है। किन्तु यह वस्तुवाद की रक्षा करने का प्रयत्न है।
कुमारिल भ्रम में ऐसा कोई असाधारण प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं करते।
नैयायिक यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप और संवादिप्रवृत्ति या सफलवृत्ति को यथार्थता
के परीक्षण का साधन मानते हैं। कुमारिल यथार्थता को ज्ञान का स्वरूप मानते हैं, किन्तु
ज्ञान को स्वत: प्रमाण मानकर कारणदोषरहितता एवं बाधकज्ञानरहितता या संवाद को प्रामाण्य
स्वरूप मानते हैं। कुमारिल प्रमा और भ्रम के विवेचन में तटस्थ और वैज्ञानिक दृष्टि
अपनाते हैं।
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