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Thursday, October 14, 2021

अद्वैत वेदान्त में आत्मा की सिद्धि

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अद्वैत वेदान्त में आत्मा की सिद्धि

अद्वैत वेदान्त में आत्मा की सिद्धि

     जैन दर्शन, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और मीमांसा दर्शन ने आत्मा को अनुमान से सिद्ध करने का प्रयास किया है और आत्मा को शरीर। इंद्रियों और मन से भिन्न माना है परन्तु वेदान्त आत्मसत्ता की सिद्धि में अनुमान का प्रयोग नहीं करता। आत्मा के विषय में आचार्य शंकर लिखते है कि “उच्यते, न तावदयमेकान्तेनाविषयः, अस्मत्प्रत्यय विषयत्वात, अपरोक्षात्वाच्च प्रत्यगात्प्रसिद्धे” अर्थात आत्मा एकदम ही ज्ञान का विषय ना होकर वह अस्मत्प्रत्यय अर्थात “मैं” का विषय है। यदि आत्मा को अपरोक्ष न माने तो उसके प्रथित अर्थात ज्ञात न होने से सारा जगत् भी प्रथित न हो सकेगा और सब कुछ अंध अर्थात अप्रकाश हो जाएगा। जगत् जड़ है वह स्वतः प्रकाशित नहीं है। यदि आत्मा को स्वतः प्रकाशित न माने तो जगत् में भी प्रकाश न मिल सकेगा। अतः आत्मा की सत्ता अनुभव या अनुभूति कआ विषय है। आचार्य शंकर लिखते है कि “आत्मत्वाच्ख्चात्मनो निराकरण शंकानुपपत्तिः। नहात्मागन्तुकः कस्यचित् स्वयं सिद्धत्वात् न ह्यात्मात्मनः प्रमाणभपेक्ष्य सिध्यति। तस्य हि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणान्यप्रसिद्धप्रमेय सिद्धय उपदीयते” अर्थात आत्मा होने के कारण ही आत्मा का निराकरण सम्भव नहीं है। आत्मा बाहर की वस्तु नहीं, वह स्वयंसिद्ध है। आत्मा प्रमाणों से सिद्ध नहीं होती क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों का प्रयोग आत्मा अपने से भिन्न पदार्थों की सिद्धि में करती है। आत्मा तो प्रमाणादि व्यवहार का आश्रय है और प्रमाणों के व्यवहार से पहले ही सिद्ध है। इसके आगे आचार्य कहते है कि “आत्मा वर्तमान स्वभाव” है उसका कभी अन्यथाभाव नहीं होता। प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए आचार्य शंकर कहते है कि “सर्वस्यात्मत्वाच्च ब्रह्मास्तित्वप्रसिद्धिः” अर्थात सबकी आत्मा होने के कारण ब्रह्म का अस्तित्व प्रसिद्ध है अर्थात “आत्मा ही ब्रह्म है”।

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[प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कान्ट ने ट्रॉन्सेंडेन्टल युक्ति का आविष्कार किया जो कहती है कि “अनुभव की उत्पत्ति अथवा सिद्धि के लिए आवश्यक है कि उसकी यथार्थता स्वीकार करनी चाहिए”]   

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Monday, October 11, 2021

शंकर के अनुसार ब्रह्म और आत्मा का स्वरूप

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शंकर के अनुसार ब्रह्म और आत्मा का स्वरूप

शंकर के अनुसार ब्रह्म और आत्मा

    शंकर के अद्वैत का केन्द्र ब्रह्म या आत्मा ही है। ब्रह्म या आत्मा में शंकर ने कोई भेद नहीं माना है। उनका यह मत उपनिषदों से ही लिया गया है। ब्रह्म और आत्मा के अभेद होने का प्रमाण वे उपनिषद् की निम्न सूक्तियों के आधार पर करते है-

  • अहं ब्रह्मास्मि (वृह० उप०, 1/4/10)
  • तत्त्वमसि (छन्दोग्य, 7/87)
  • अयमात्मा ब्रह्म (वृहदा० उप०, 2/5/19)
  • एकमेवाद्वितीयम् (छन्दोग्य 622)
  • सर्व खल्विदं ब्रह्म (छन्दोग्य 3/14/1)
  • नेह नानास्ति किंचन (वृहदा० उप० 4/4/19)
  • आत्मा का इदमेक एवाग्र आसीत (ऐत० 2/1/1)

    उपरोक्त इन प्रमाणों के अतिरिक्त श्रुति यह भी कहती है कि एक को जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है और यह तभी सम्भव है जब एकमात्र ब्रह्म ही, जो जगत का कारण है, सत् पदार्थ हो। छन्दोग्य के छठे अध्याय में अपने पुत्र व्रतकेतु को समझाते हुए आरुणि ने कहा है कि “कारण को जान लेने से उसके समस्त कार्य को जान लिया जाता है, क्योंकि कार्य नामरूप मात्र है”।

     अद्वैत वेदान्त ब्रह्म अथवा आत्मा को प्रमाणों का विषय नहीं मानता अर्थात ब्रह्म या आत्मा ज्ञान का विषय नहीं है। वह कहता है कि प्रमाण का शब्दरूप अर्थ है- वह जिसके द्वारा ज्ञान के विषय का मापन किया जाता है अथवा जिसके द्वारा ज्ञेय को सीमित या परिच्छिन्न किया जाता है। चूंकि आत्मा या ब्रह्म अपरिच्छिन्न है इसलिए ये प्रमाणों के विषय ही नहीं बन सकते।

    आचार्य शंकर ने आत्मा को उपनिषदों के आधार पर अपरोक्ष या साक्षात्कार रूप कहा है। आत्मा को सत्य, ज्ञान एवं सच्चिदानन्द भी कहा है। उन्होंने आत्मा को भूमा भी कहा और आत्मा को ऐसा दृष्टा माना जो स्वयं नहीं देख सकता। अद्वैत में आत्मा चैतन्यरूप है परन्तु चैतन्य उसका गुण नहीं है। चित्सुखाचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रत्यत्त्कत्व प्रदीपिका’  में ब्रह्म को ज्ञान का विषय न होते हुए भी प्रत्यक्ष व्यवहार योग्य माना है। उनके अनुसार–“अवेद्यत्वे सति अपरोक्ष व्यवहारयोग्यत्वम् स्वप्रकाशत्वम्”। इस प्रकार ब्रह्म में दो प्रकार के लक्षणों का वर्णन आचार्य शंकर ने किया है- स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण। जगत ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है जबकि ब्रह्म जगत से परे भी है जो उसका तटस्थ लक्षण है।

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Friday, October 8, 2021

शंकर द्वारा परिणामवाद का खण्डन

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शंकर द्वारा परिणामवाद का खण्डन

शंकर द्वारा परिणामवाद का खण्डन

परिणामवाद का खण्डन – (प्रकृति परिमाणवाद की सिद्धि अनुमान व शब्द प्रमाण से असंभव है)

    शंकर के अनुसार सांख्य-योग दर्शनों का परिणामवाद सिद्धान्त प्रमाणों की दृष्टि से खण्डनीय है। क्योंकि अचेतन प्रकृति बिना किसी चेतन सत्ता का आश्रय लिये हुए प्रवृत्त नहीं हो सकती। जैसे स्वर्णादि से बने कंगन के लिए उपादान (Material) कारण के रूप में स्वर्णकार आदि चेतन आधार प्राप्त होते हैं। वैसे ही चेतन सत्ता का बिना सहारा लिये प्रकृति का सुख, दुःख और मोहात्मक पदार्थों का कारण होना भी आवश्यक है। यदि साधन साध्याभाव से व्याप्त हो तो विरुद्ध हेतु नाम का हेत्वाभास होता है। अतः यहाँ पर उसी प्रकार का विरुद्ध हेतु है जिस तरह किसी वस्तु को नित्य सिद्ध करने के लिए हेतु दें कि 'यह उत्पन्न होती है' जबकि उत्पन्न होने के कारण वह वस्तु अनित्य (साध्याभाव) स्वयं ही सिद्ध हो जायगी कि यह नित्य नहीं है। उसी तरह सांख्य के द्वारा यह सिद्ध करने के लिए कि प्रकृति चेतन की सहायता नहीं लेते हुए भी सुखादि से युक्त पदार्थों को उत्पन्न करती है प्रमाणिक नहीं रह जाता।

    इसके अतिरिक्त उक्त साधन स्वरूपासिद्ध भी है। सुख, दुःख और मोह आन्तरिक भाव है जो अन्तरिन्द्रिय मन के द्वारा ज्ञेय हैं जब कि चन्दनादि पदार्थ बाह्य भाव है जो चक्षुः, श्रोत्र आदि बाहरी इन्द्रियों से ग्राह्य हैं। अतः चन्दनादि दूसरे प्रत्ययों को साधनों के रूप में ज्ञेय होते हैं तथा सुखादि उनसे अलग रहकर इन्द्रियों के ऊपर दिखलाई पड़ते हैं। स्वरूपासिद्ध वह हेतु है जो पक्ष में न रहे जैसेशब्द एक गुण है क्योंकि यह चाक्षुष है। यहाँ चाक्षुषत्व-हेतु पक्ष (शब्द) में नहीं रहता है। उसी प्रकार चन्दनादि पदार्थों (पक्ष) में सुख, दुःख और मोह का अन्वय (हेतु) रखते हैं जो असिद्ध है। सुखादि आन्तर भाव हैं चन्दनादि बाह्य भाव। दोनों में एकता नहीं है अर्थात् एक ही प्रत्यय से दोनों का बोध नहीं होता। सुख और विषय विभिन्न प्रत्ययों से ज्ञेष हैं अतः दोनों का एक ही स्वभाव नहीं हो सकता। दोनों को एक मान लेने पर दोष होता है। यदि चन्दनादि का स्वभाव सुखादि होता तो हेमन्त काल में भी चन्दन सुख ही देता परंतु ऐसा तो नहीं होता कि चन्दन कभी अ-चन्दन हो जाता है। स्वभाव का अर्थ निरन्तर सम्बन्ध होना ही है। यदि सुख चन्दन का स्वभाव है तो कभी छूटना नहीं चाहिए। तब क्या कारण है कि शीतकाल में वह सुखद नहीं होता? अवश्य ही चन्दन सुख-स्वभाव नहीं है। उसी प्रकार ग्रीष्मकाल में भी कुंकुम लेप से सुख मिलता। ऐसी बात तो नहीं होती कि कभी-कभी कुंकुम का लेप अपना स्वभाव छोड़कर अकुंकुम लेप हो जाता है। इसी प्रकार काँटा जैसे ऊँट को सुख देता है उसी प्रकार मनुष्यादि प्राणियों को भी सुख देने लगता। ऐसी बात नहीं है कि कुछ लोगों के लिए ही वह काँटा दुःखद है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उक्त हेतु असिद्ध है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति को सुखादि के रूप में सांख्य लोग तभी सिद्ध करते हैं जब संसार के पदार्थों को सुखादि-उत्पादक मानें। लेकिन यह प्रमाण सिद्ध है कि कोई भी पदार्थ स्वभावतः सुखात्मक, दुःखात्मक या मोहात्मक नहीं है। परिस्थितियाँ उसे वैसा बना देती हैं। अतः प्रकृति को सिद्ध करने वाले अनुमान में हेतु ही असिद्ध (Unproved) है।

    प्रकृति को जगत् का कारण बतलाने वाले सिद्धान्त की पुष्टि के लिए श्रुति भी प्रमाण नहीं हो सकती। कारण यह है कि छान्दोग्य उपनिषद् में अग्नि का जो लाल रूप है वह तेज का रूप है, उजला रूप जल का और काला रूप अन्न का है' (छां० 6।4।1) इस प्रकार तेज, जल और अन्न रूपी प्रकृति के लाल, उजला और काला- ये तीन रूप दिये गये है। ये तीनों रूप ‘अजामेकाम्’ प्रत्यभिज्ञा (Recognition) से जाने जाते हैं। यहाँ पर एक तो वैदिक प्रत्यभिज्ञा प्रबल है, दूसरे लोहित आदि शब्दों में मुख्यार्थ ग्रहण करना संभव भी है । सांख्य में लोहित आदि शब्दों का मुख्यार्थं न लेकर लक्षणा से, रजकत्व आदि धर्मों की समानता देखकर इनका अर्थ रजस्, सत्व, तमस् तीन गुण के रूप में किया गया है। परंतु शंकराचार्य इनका खंडन करके कहते हैं कि जब मुख्य अर्थ लेना संभव है, तब लक्षणा क्यों लें? इसलिए इस श्रुति का अर्थ यही हुआ कि तेज, जल और अन्न रूपी प्रकृति ही जरायुज (गर्भाशय से उत्पन्न), अण्डज (पक्षी, सर्प, मछली आदि), स्वेदज (पसीने या गर्मी से उत्पन्न- कीड़े, मच्छड़, खटमल आदि) तथा उद्भिज्ज (पृथ्वी को फाड़कर निकलनेवाले पेड़-पौधे) इन चारों प्रकार के जीवसमूह का कारण है। चूंकि तेज, जल और अन्न प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं इसलिए इन्हें 'न जन्म लेनेवाला' कहकर यौगिक संज्ञा अर्थात वृत्ति के रूप में 'अजा' नहीं कह सकते। रूढि-संज्ञा के रूप में उस प्रकृति को अजा इसलिए कहते हैं कि आसानी से समझ में आ जाये।  इसलिए 'अजामेकाम्' इत्यादि श्रुति भी प्रकृति के परिमाणवाद का प्रतिपादन करनेवाली नहीं है।

    इस प्रकार शंकर सांख्य के प्रकृति परिमाणवाद का खण्डन करते है और कहते है कि यह जगत स्वयं नहीं बनता बल्कि इससे बनाने वाला कोई चेतन है जिसे शंकर ‘ब्रह्म’ कहते है।

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Thursday, October 7, 2021

वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

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वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

वेदान्त दर्शन का सामान्य परिचय साहित्य एवं इतिहास

शंकराचार्य ( 788-820 ई० )

    शंकराचार्य केरल प्रान्त के नम्बू दरी ब्राह्मण थे तथा गौडपाद के शिष्य श्री गोविन्दभगवत्पाद के शिष्य थे। स्मरणीय है कि गौडपाद ने मांडूक्य-कारिका लिखी थी जो मायावाद का प्रथम शास्त्र ग्रन्थ है। शंकर ने इसपर टीका लिखी थी। 32 वर्षों की अल्प आयु में भी शंकर का यश अक्षुराण है। शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर शारीरकभाष्य लिखा जिसने अद्वैत वेदान्त की आधारशीला रखी। इनका गद्य अपने ढंग का अद्वितीय है। इन्होंने संपूर्ण भारत का भ्रमण करके वेदान्त मत की प्रतिष्ठा की तथा कई स्थानों पर मठों की स्थापना की। शंकर के समकालिक मण्डनमिश्र थे जिन्होंने मीमांसा में बहुत यश प्राप्त किया था परन्तु शंकर के ही प्रभाव से ये वेदान्त मत में दीक्षित हो गये। इन्होंने ब्रह्मसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा जिस पर वाचस्पति मिश्र ने ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, चित्सुख (1225 ई०) ने अभिप्रायप्रका शिका और आनन्दपूर्ण ने भावशुद्धि नाम से टोकायें की थीं। मण्डन ने वेदान्ती होने पर अपना नाम सुरेश्वराचार्य रखा था। शंकर के एक शिष्य पद्मपादाचार्य थे जिन्होंने शारीरकभाष्य पर पञ्चपादिका वृत्ति लिखी जिसमें केवल चतु:सूत्री का विवेचन है। पंचपादिका पर कई टीकायें लिखी गई जिनमें प्रकाशात्मयति (1200 ई०) की विवरण टीका प्रसिद्ध है। इसके नाम पर विवरण प्रस्थान (Vivarana School) ही बन गया। विवरण की दो टीकायें हैंअखंडा नंद सरस्वती (1500 ई०) कृत तत्वदीपन तथा विद्यारण्य (1350 ई०) कृत विवरण प्रमेय संग्रह| सुरेश्वराचार्य के शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि (900 ई०) ने संक्षेपशारीरक नामक एक पद्यबद्ध व्याख्याग्रन्थ लिखा। वाचस्पतिमिश्र (850 ई०) ने शारीरकभाष्य पर अपनी सुप्रसिद्ध भामती नाम की टीका लिखी जो भाष्य के बाद अद्वितीय ग्रन्थ है। इसकी दो सुप्रसिद्ध टीकायें हैंअमलानन्द (1250 ई०) की कल्पतरु टीका और अप्पयदीक्षित (1550 ई०) की परिमल टीका| महाकवि श्रीहर्षं (1150 ई०) का खण्डनखण्डखाद्य वेदान्त का नैयायिक विधि से विश्लेषण करने वाला ग्रन्थ है। चित्सुखाचार्य (1225 ई०) ने सुरेश्वर की नैष्कर्म्यसिद्धि पर, ब्रह्मसिद्धि पर तथा शारीरकभाष्य पर टीकायें लिखकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रत्यक्तत्वदीपिका (चित्सुखी) के नाम से लिखा। सर्वदर्शन संग्रह के रचयिता माधवाचार्य सन्यस्त होकर विद्यारण्य के नाम से प्रसिद्ध और उन्होंने अपनी स्वतन्त्र कृति पंचदशी नाम से दी। शांकर दर्शन के अन्य ग्रन्थों में आनन्दबोध का न्यायमकरंद, मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि तथा सिद्धान्तबिन्दु, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्त लेशसंग्रह, धर्मराजाध्वरीन्द्र की वेदान्तपरिभाषा एवं सदानन्द का वेदान्त-सार प्रसिद्ध हैं।

वेदान्त का इतिहास

    जैसा कि स्वाभाविक है वैदिक वाङ्मय वेदों से हैं । वेदान्त के विषय में भी यही बात सत्य है। भारतीय वाङ्मय की उत्पत्ति मानते ऋग्वेद के सूक्तों में ही माया और ब्रह्म के सम्बन्ध की सूचनायें मिलती हैं। फिर भी वास्तविक वेदान्त वेद के अन्तिम भाग-उपनिषदों से शुरू होता है जहाँ जीव और ब्रह्म के विषय में विशिष्ट कल्पनायें की गई हैं। संख्या में अनेक होने पर भी शंकराचार्य ने केवल ग्यारह उपनिषदों को मान्यता दी है। वेदान्त से उपनिषदों का ही बोध मुख्य रूप से होता है। उपनिषदों का सारांश भगवद्गीता में आ गया है। इसलिए उसे भी वेदान्त के अन्तर्गत ही रखते हैं। उपनिषद् और गीता में बिखरे हुए विचारों को बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में शृंखलाबद्ध किया। इस प्रकार वेदान्त के तीन प्रस्थान ग्रन्थ कहलाते हैं- उपनिषद्, गीता और ब्रह्मसूत्र। शंकराचार्य ने तीनों पर व्याख्या लिखकर अद्वैतमत का प्रवर्तन किया।

अद्वैत वेदान्त की मुख्य मान्यताएं 

  • अद्वैत वेदान्त की मुख्य चार मान्यताएं है -
  • एकमात्र तात्विक पदार्थ निर्गुण, कूटस्थ नित्य, सच्चिदयानन्द ब्रह्म है। 
  • जीव और ब्रह्म एक ही है। 
  • जीव और ब्रह्म में जो भेद दिखाई देता है उसका कारण अविद्या है। 
  • यह दृश्यमान जगत माया का कार्य है और मिथ्या है।  
    इसके अतिरिक्त अद्वैत वेदान्त उपनिषदों के परा और अपरा विद्याओं के भेद को पारमार्थिक और व्यवहारिक सत्य के भेद में परिवर्तित कर देता है। वह सांख्य के सत्कार्यवाद को विवर्तवाद के सिद्धान्त में बदल देता है और परमार्थ और व्यवहार का भेद अद्वैत मत को बौद्धों के महायनी सम्प्रदाय के समानधर्मा बना देता है। यही कारण रहा कि शंकर को कुछ लेखकों ने प्रच्छन बौद्ध कहा है। 

वेदान्त-सूत्र (ब्रह्मसूत्र) की विषय-वस्तु

    वेदान्त शास्त्र चार अध्यायों में विभक्त है।  प्रत्येक अध्याय का एक-एक प्रतिपाद्य विषय या लक्षण होने के कारण इसे चतुर्लक्षरणी भी कहते हैं। शंकराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि भगवान् बादरायण के द्वारा रचित इस वेदान्त शास्त्र का विषय प्रत्यक् (जीवात्मा) और ब्रह्म की एकता का प्रदर्शन करना है।

    प्रथम अध्याय को समन्वयाध्याय कहते हैं जिसमें सिद्ध किया गया है कि सारे वेदान्त (उपनिषद्) वाक्यों का तात्पर्य ब्रह्म में ही समीहित है। द्वितीय अध्याय अविरोधाध्याय कहलाता है जिसमें सांख्य आदि दर्शनों के तर्कों से उत्पन्न विरोध का निराकरण किया गया है। तृतीय अध्याय साधनाध्याय है जिसमें ब्रह्मविद्या की सिद्धि की गई है। चतुर्थ अध्याय को फलाध्याय कहते हैं जिसमें ब्रह्मविद्या का फल निर्दिष्ट है।

    प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद हैं । प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में स्पष्ट रूप से (प्रत्यक्षतः) ब्रह्म को बतलाने वाले वाक्यों की मीमांसा हुई है। द्वितीय पाद में ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले उपासना-विषयक वाक्यों की मीमांसा है। तृतीय पाद में उसी तरह के (ब्रह्म का स्पष्ट निर्देश न करनेवाले ज्ञेय-विषयक वाक्यों की समीक्षा है और चतुर्थ पाद में 'अव्यक्त' 'अजा' आदि संदिग्ध शब्दों की समीक्षा हुई है।

    द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद में सांख्य, योग और वैशेषिक आदि स्मृतियों (दर्शनों) के द्वारा किये जानेवाले विरोध का परिहार किया गया है। द्वितीय पाद में सांख्यादि दर्शनों के मतों की दोषात्मकता दिखलाई गई है। तृतीय पाद में पाँच महाभूतों का वर्णन करनेवाली श्रुतियों और जीव-विषयक श्रुतिवाक्यों के परस्पर विरोध का निवारण किया गया है। चतुर्थ पाद में लिङ्गशरीर का वर्णन करनेवाली श्रुतियों के विरोध का परिहार किया गया है।  

    तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में जीव के परलोक जाने या न जाने के प्रश्न पर विचार करके वैराग्य का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय पाद में 'तत्त्वमसि' (छां ६||७) महावाक्य के 'त्वम्' और 'तत्' पद के अर्थ का अनुशोलन किया गया है। तृतीय पाद में सगुण ज्ञान के विषय में गुणों का उपसंहार अर्थात् अन्यत्र प्रतिपादित गुरणों का संकलन किया गया है। चतुर्थं पाद में निर्गुण ब्रह्म की विद्या (ज्ञान) प्राप्त करने के लिये बहिरंग और अन्तरंग साधनों जैसे आश्रम, यज्ञ (बहिरंग) तथा शम (अंतरंग) आदि का निरूपण हुआ है ।

    चतुर्थ अध्याय के प्रथम पाद में यह बतलाया गया है कि ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने से जीते जी ही व्यक्ति को वह मुक्ति मिलती है जिसमें पाप, पुण्य और क्लेश का सर्वथा विनाश हो जाता है। द्वितीय पाद में मरण और ऊपर उठने अर्थात स्वर्गगमन के प्रश्न पर विचार किया गया है। तृतीय पाद में सगुण ब्रह्म की उपासना करने वाले पुरुष के मरणोत्तर मार्ग का वर्णन किया गया है। चतुर्थं पाद में निर्गुण ब्रह्मवेत्ता और सगुण ब्रह्मवेत्ता की क्रमशः विदेहमुक्ति और ब्रह्मलोक में अवस्थिति का निरूपण हुआ है।

    इस प्रकार ब्रह्म-विचार-शास्त्र में वर्णित विषयों का संग्रह किया गया। ब्रह्मसूत्र (वेदान्तसूत्र) पर विभिन्न दार्शनिकों ने टीका करके अपने विशिष्ट मार्गों का प्रवर्तन किया है जो इस प्रकार है-

आचार्य

सिद्धान्त

भाष्य

शंकराचार्य

अद्वैत वेदान्त

शारीरिक भाष्य

रामानुजाचार्य

विशिष्टाद्वैत

श्री भाष्य

भास्कराचार्य

भेदाभेद

भास्कर भाष्य

निम्बार्काचार्य  

द्वैताद्वैत

वेदान्त पारिजात

मध्वाचार्य

द्वैतवेदान्त

पूर्ण प्रज्ञा भाष्य

बल्लभाचार्य

शुद्धाद्वैत

अणुभाष्य

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Wednesday, October 6, 2021

आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

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आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

आचार्य शंकर अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

अनिर्वचनीय ख्यातिवाद

    इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता है, जिसका निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत: कुछ कहा न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्। सत् नहीं है, क्योंकि वह साँप नहीं है, रस्सी है तथा असत् भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत् है और न ही असत् है, इसलिए यह अनिर्वचनीय है।

    भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों-आवरण एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु-सर्प भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का अध्यारोप है। इस तरह विक्षेप का कार्य है सत्य के स्थान पर मिथ्या वस्तु को प्रस्तुत करना।

    इस सिद्धान्त के अनुसार शंकर दर्शन में कहा गया है कि माया ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान का आवरण डाल देती है और विक्षेप शक्ति द्वारा ब्रह्म के स्थान पर आकाशादि प्रपंच को प्रस्तुत करती है। जगत् की प्रस्तुति के सम्बन्ध में यही शंकर का विवर्तवाद है।

    शंकराचार्य का अनिर्वचनीय ख्यातिवाद वस्तुतः उनके मायावाद को सिद्ध करने का प्रयास है। शंकर का सिद्धान्त अन्य ख्यातिवादों से अन्तर रखता है। यह अख्यातिवाद और असत् ख्यातिवाद से भिन्न इसलिए है, क्योंकि इनके समान यह नहीं कहता कि भ्रम का विषय असत् है या उसका ग्रहण नहीं होता। यह अन्यथा ख्यातिवाद से इसलिए भिन्न है, क्योंकि इसमें किसी का अन्यथा ग्रहण भी नहीं है। यह नवीन अनुभव है, स्मृति नहीं। यह आत्म ख्यातिवाद से भी पृथक् है, क्योंकि इसके अनुसार यहाँ सर्प का अथवा चाँदी का अध्यास या मिथ्या ग्रहण न होकर सत्ता का ग्रहण है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...